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This Article is From Feb 11, 2015

अरविंद केजरीवाल की अभूतपूर्व, ऐतिहासिक जीत के पांच फायदे, पांच नुकसान

Sushant Sinha, Vivek Rastogi
  • Assembly Polls 2015,
  • Updated:
    फ़रवरी 11, 2015 15:10 pm IST
    • Published On फ़रवरी 11, 2015 14:36 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 11, 2015 15:10 pm IST

नई दिल्ली : बीते साल 14 फरवरी की उस हल्की बारिश वाली शाम में समर्थकों की भारी भीड़ के बीच जब अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफे का ऐलान किया था, तब उन्होंने खुद तो क्या, किसी ने भी नहीं सोचा था कि वक्त कुछ यूं करवट लेगा और उन्हें ठीक एक साल बाद ऐतिहासिक जीत के साथ मुख्यमंत्री का ताज पहनने का मौका मिलेगा, लेकिन 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा में 96 फीसदी सीटें जीतने वाले केजरीवाल की इस जीत के कुछ फायदे हैं, तो कुछ नुकसान भी हैं...

पहले ज़िक्र करते हैं फायदों का...

1. बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद - केजरीवाल जानते हैं कि उनके और उनकी पार्टी के पास खुद को साबित करने का यह आखिरी मौका है। जनता ने एक बार उन्हें माफ कर दिया, लेकिन बार-बार ऐसा होना संभव नहीं होगा, इसलिए अगर उन्हें दिल्ली की राजनीति में बने रहना है और देश की राजनीति में आगे बढ़ना है तो उनके पास यही एक मौका है। केजरीवाल को अपनी पार्टी का राजनीतिक रथ आगे बढ़ाते रहना है तो उन्हें प्रदर्शन के पहियों पर ही चलना होगा, कोई और चारा नहीं है, वरना जनता हवा निकाल देगी। उन्हें आइंदा वोट मांगने के लिए अपने काम को ही दिखाना होगा। अगली बार दूसरी पार्टियों की नाकामी पर वोट नहीं पड़ेंगे। ऐसे में उनसे बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद बढ़ जाती है।

2. वक्त भी, स्वतंत्रता भी - केजरीवाल और उनकी पार्टी के लिए इस जनादेश का मतलब यह भी है कि उन्हें काम करने की स्वतंत्रता भी दी है जनता ने और वक्त भी। पिछली दफा इस्तीफे के बाद केजरीवाल लगातार बताते रहे थे कि कैसे लोकपाल बिल पर उनके हाथ बांध दिए गए थे और इसीलिए वह जनता से किया गया सबसे अहम वादा नहीं निभा पाने की सूरत में इस्तीफे की तरफ बढ़े थे। इस बार के जनादेश का सीधा मतलब है कि उनके पास काम करने की पूर्ण स्वतंत्रता होने के साथ-साथ पांच साल का वक्त भी है।

3. पब्लिक सपोर्ट - केजरीवाल की पार्टी को 70 सीटों वाली विधानसभा में 67 सीटें मिलना और तकरीबन 54 फीसदी वोट मिलना बताता है कि इस वक्त दिल्ली की जनता उनके साथ खड़ी है... और इसीलिए, वह जिस पब्लिक डॉयलॉग और पब्लिक सपोर्ट की बात करते आए हैं, उनके पास मौजूद होगा। वह जिस भी काम में जनता की हिस्सेदारी चाहेंगे, जनता उनके साथ खड़ी होगी और यह पहलू मौजूदा हालात में दिल्ली में कई बातों में बदलाव लाने में अहम साबित हो सकता है।

4. बाकी पार्टियों में बदलाव - केजरीवाल की इस ऐतिहासिक जीत का एक बड़ा फायदा यह है कि दिल्ली में पार्टियों को पता चल गया है कि जनता तक पहुंचना है तो खुद को बदलना होगा। पिछली बार जब आम आदमी पार्टी ने 28 सीटें हासिल की थीं, तब राहुल गांधी ने भी कहा था कि इनकी राजनीति का तरीका अलग है और कांग्रेस पार्टी इनसे सीखेगी। हालांकि ऐसा उन्होंने किया नहीं और नतीजतन कांग्रेस पार्टी इस बार खाता भी नहीं खोल पाई। इसलिए इस बार पार्टियों को पता है कि उन्हें किस तरह अपनी पुरानी राजनीति बदलनी होगी, कैसे विनम्र होना होगा, कैसे पांच साल में एक बार जनता से मिलने और सिर्फ वोट मांगने जाने की राजनीति नहीं चलेगी, कैसे गाली-गलौज की राजनीति नहीं चलेगी और इसलिए अगर वे दिल्ली में अगले पांच सालों में खुद को आम आदमी पार्टी के विकल्प के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं तो उन्हें खुद को और अपनी राजनीति के तरीके को बदलना होगा।

5. युवाओं की एन्ट्री - आम आदमी पार्टी की जीत के बाद 'पांच साल केजरीवाल' के गाने पर युवाओं को थिरकते देखना दिलचस्प था। हालांकि आम आदमी पार्टी का युवा कार्यकर्ताओं का बेस काफी मज़बूत है, लेकिन आज भी युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा राजनीति में आने से हिचकिचाता है। कई बार यह सोचकर कि जनता बदलाव चाहती नहीं और यहां कुछ बदलेगा नहीं। लेकिन केजरीवाल की यह ऐतिहासिक जीत धीरे-धीरे बदल रही सोच को गति देगी।

अब ज़िक्र करते हैं नुकसान का...

1. विपक्ष का न होना - लोकतंत्र में सत्तापक्ष की भूमिका जितनी अहम होती है, उतनी ही विपक्ष की भी, जिसका काम सत्तापक्ष को निरंकुश होने से रोकने का होता है, लेकिन दिल्ली चुनाव के नतीजों का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि विधानसभा में विपक्ष की मौजूदगी न के बराबर होगी। 67 सत्ताधारी विधायकों के बीच तीन विपक्षी विधायकों की आवाज़ सुनना कई बार बहुत मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में विधानसभा में होने वाली बहसों और कामों के एकतरफा हो जाने का डर बना रहेगा।

2. केंद्र से समन्वय की दिक्कत - हालांकि दिल्ली में बीजेपी की सीएम पद की उम्मीदवार किरण बेदी थीं, लेकिन चुनाव हमेशा 'मोदी बनाम केजरीवाल' ही नज़र आया। ऐसे में इस बात का संदेह ज़रूर बना रहेगा कि मोदी के विजय रथ को रोकने वाले केजरीवाल को केंद्र से कितना सहयोग मिल पाएगा...? हालांकि प्रधानमंत्री ने आम आदमी पार्टी की जीत के बाद खुद फोन कर केजरीवाल को बधाई दी, लेकिन जिस तरह बिहार को विशेष राज्य का दर्जा कहीं न कहीं इस बात पर अटका पड़ा है कि सूबे में भी उसी पार्टी की सरकार आ जाए तो यह काम भी हो जाएगा, उससे मन में यह शंका पैदा होती है कि कहीं इसी सोच की राजनीति का असर दिल्ली पर भी तो नहीं पड़ेगा...? इतिहास भी गवाह है कि कई राज्य इस बात की शिकायत करते रहे हैं कि केंद्र में अगर उनकी ही पार्टी की सरकार नहीं रही है तो कई बार कैसे मदद मिलने में भेदभाव हुआ है... और अगर यह इतिहास दिल्ली में भी दोहराया गया तो सबसे ज्यादा नुकसान दिल्ली वालों का ही होगा, क्योंकि दिल्ली को राज्य का दर्जा नहीं मिला हुआ है, सो, ऐसे में दिल्ली पुलिस के साथ-साथ कई अन्य मसले भी केंद्र की नाक के नीचे से ही गुज़रने होंगे।

3. अहंकार की राजनीति - दिल्ली के चुनावी नतीजों का सबसे अहम पहलू वह एकतरफा ताकत है, जो आम आदमी पार्टी को हासिल हुई है। हालांकि जीत के बाद से ही केजरीवाल और उनकी पार्टी के दूसरे नेता लगातार कह रहे हैं कि उनके कार्यकर्ताओं को अहंकार से दूर रहना होगा, लेकिन ऐसी ही कुछ बातें बीजेपी भी लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद कहा करती थी और आज उसी की पार्टी के कई नेता दबी ज़ुबान में कहते हैं कि पार्टी के कई नेताओं में अहंकार झलकता है। दरअसल, अहंकार कई बार कमरे में लगे उस मकड़ी के जाले की तरह होता है, जो कब बुना जा रहा हो, पता नहीं चलता। अगर आम आदमी पार्टी इस अहंकार की राजनीति से दूर नहीं रह पाई तो जनता से दूर दिखेगी।

4) संभालने के लिए लंबी फ़ौज - केजरीवाल की टीम में ज्यादातर खिलाड़ी राजनीति की पिच पर लंबा अनुभव नहीं रखने वाले हैं। ऐसे में केजरीवाल को खुद के अलावा चुने गए 66 विधायकों की लंबी-चौड़ी फौज भी संभालनी होगी, क्योंकि विपक्ष के साथ-साथ मीडिया की नज़रें भी टीम केजरीवाल के हर सदस्य, उसके काम, उसके आचरण पर रहेंगी। पार्टी भूली नहीं होगी कि कैसे पिछली दफा सोमनाथ भारती का विवाद उसके लिए गले की हड्डी बन गया था। इतना ही नहीं, जीतकर आई इस फौज में गाहे-बगाहे असंतुष्ट भी उठते रहेंगे। यानि जितनी बड़ी फौज, उसे संभालने की चुनौती भी उतनी ही बड़ी।

5. विकल्प कम होना - दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत की सबसे बड़ी वजह थी, गैर-बीजेपी वोट का न बंटना और वह सारा का सारा आम आदमी पार्टी को मिल जाना। यानि दिल्ली चुनाव के नतीजों ने इसकी तसदीक कर दी कि कई बार कही गई बात सच हो सकती है कि बीजेपी के विजय रथ को रोकना है तो विरोधी पार्टियों का साथ आना ज़रूरी होगा, ताकि वोट न बंटें। ऐसे में आश्चर्य नहीं होना चाहिए, अगर बिहार, उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों के आने वाले चुनावों में भी गैर-बीजेपी पार्टियां एक साथ आ जाएं। इससे सीधा नुकसान जनता का होगा, जिनके पास विकल्प कम हो जाएंगे, क्योंकि लोकतंत्र की खूबसूरती ही इस बात में है कि जनता के पास कई पार्टियों में से किसी एक बेहतर को चुनने का विकल्प हो, लेकिन अगर हर राज्य में मुकाबले को बाई-पोलर बनाने की कोशिश हुई तो सबसे बड़ा नुकसान वोटर का होगा, जिसे अपना वोट मजबूरी के तहत किसी को देना पड़ जाएगा।

बहरहाल, इस नफे-नुकसान की असली तस्वीर देखने के लिए थोड़ा इंतज़ार करना होगा, लेकिन जनता उससे किए गए वादों को अमली जामा पहनाए जाने का ज्यादा देर इंतज़ार नहीं करेगी। राजनीति में वादे कमोबेश उसी तरह होते हैं, जैसे किसी पक्षी के लिए पंख। राजनीति की उड़ान के लिए भी वादों के पंखों की ज़रूरत पड़ती है, लेकिन जब पंख ज़रूरत से ज्यादा बड़े हो जाएं, तो दूर तक उड़ना मुश्किल हो जाता है, इसलिए केजरीवाल सरकार जिन वादों के पंखों के सहारे इस वक्त सातवें आसमान पर है, उसे वे वादे जल्द पूरे भी करने होंगे, वरना जनता पर कतरने में भी वक्त नहीं लगाएगी।

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