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This Article is From Mar 10, 2012

'टीपू भैया' यानी उप्र की राजनीति का नया किंग

लखनऊ: सबसे कम उम्र में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड बनाने जा रहे समाजवादी पार्टी (सपा) के सुपरमैन यानी अखिलेश प्रसाद प्रदेश की राजनीति में धूमकेतु की तरह उगा वह सितारा है जिसकी चमक के आगे राजनीति के तमाम धुरंधर फीके पड़ गए।

उम्मीद की साइकिल पर सवाल होकर उसने जनता के मन में सपा के लिए उम्मीदों के फूल खिलाए और ऐसा प्रचंड जनादेश दिलाया जो उसे आज तक नसीब नहीं हुआ।

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती 39 साल की उम्र में उत्तर प्रदेश की सबसे युवा मुख्यमंत्री बनी थीं। 16वीं विधानसभा के लिए हुए चुनाव में बसपा को परास्त करने में सबसे अहम भूमिका निभाने वाला सपा का युवा चेहरा अखिलेश यादव (38) अब सबसे कम में मुख्यमंत्री बनकर मायावती का रिकॉर्ड तोड़ेगा। सपा विधायक दल के नेता चुने गए अखिलेश यादव की 15 मार्च को ताजपोशी होनी है।

अखिलेश का जन्म 1 जुलाई 1973 को हुआ। मालती और मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश की स्कूली पढ़ाई धौलपुर (राजस्थान) के सैनिक स्कूल में हुई। उसके बाद उन्होंने मैसूर के जेसी इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की।

मैसूर के बाद अखिलेश पर्यावरण इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए ऑस्ट्रेलिया चले गए। लेकिन जब लौटकर आए तो उन्हें सिविल इंजीनियरिंग नहीं, उत्तर प्रदेश की सोशल इंजीनियरिंग में उलझी राजनीति ही ज्यादा भायी।

12 साल पहले 26 साल के अखिलेश ने जब सक्रिय राजनीति में कदम रखा था तो वह महज एक शर्मीले नौजवान थे। सन 2000 में कन्नौज से उपचुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा पहुंचे अखिलेश ने 2004 और 2009 में भी इस सीट पर जीत दर्ज की।

तीन साल पहले फिरोजाबाद संसदीय क्षेत्र में हुए उपचुनाव में जब उनकी पत्नी डिंपल यादव को कांग्रेस के उम्मीदवार राज बब्बर ने हरा दिया तो उन्हें और उनकी पार्टी को एक बड़ा झटका लगा था। अखिलेश 2009 का लोकसभा चुनाव कन्नौज के अलावा फिरोजबाद से भी जीते थे जहां से उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। इस हार का सिरा कहीं न कहीं 2007 में उत्तर प्रदेश की सत्ता से पार्टी की बदनाम विदाई से भी जुड़ा था। लेकिन अखिलेश ने तय कर लिया था कि वह सपा का चेहरा बदलेंगे।

इस बीच मुलायम ने अखिलेश को प्रदेश संगठन की कमान सौंपते हुए प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। बसपा सरकार के खिलाफ संघर्ष के लिए सड़क पर उतरे अखिलेश के साथ नौजवानों ने पुलिस की लाठी खाने से गुरेज नहीं किया। कल्याण सिंह से दोस्ती तोड़ी गई। बड़बोले अमर सिंह को पार्टी से बाहर कर दिया गया। यही नहीं, चुनाव के पहले जब आजम खान और शिवपाल यादव जैसे पार्टी दिग्गजों ने बाहुबली डीपी यादव और मुख्तार अंसारी को पार्टी में शामिल करने का प्रयास किया तो अखिलेश ने कड़ा विरोध किया।

राजनीतिक विश्लेषक रमेश दीक्षित कहते हैं, "अभिषेक मिश्रा जैसे पढ़े-लिखे और साफ सुथरी छवि वाले युवाओं को टिकट देना और माफियाओं के पार्टी में प्रवेश पर अखिलेश के कड़े रुख ने साफ कर दिया कि वह पार्टी की छवि बदलने को लेकर कितनी गम्भीर हैं। इस एक फैसले ने लोगों को उनके बारे में गम्भीरता से सोचने को मजबूर कर दिया।"

कम्प्यूटर और अंग्रेजी विरोधी पार्टी की छवि तोड़कर मुफ्त लैपटॉप देने जैसे ऐलान और क्रांतिरथ यात्रा के जरिए पूरे सूबे में समाजवाद का संदेश लेकर लोगों तक पहुंचने में अखिलेश ने कोई कसर नहीं छोड़ी।

सपा युवजन सभा के अध्यक्ष सुनील सिंह कहते हैं, "टीपू भैया (अखिलेश) ने प्रचार के दौरान न बांह चढ़ाई और न किसी नेता पर व्यक्तिगत टिप्पणी की। बस सादगी से अपनी बातें रखकर लोगों को भरोसा दिलाया कि इस बार मौका मिला तो सपा पुरानी गलती नहीं करेगी।"

यादव कहते हैं कि ब्लैक बेरी और आईपैड जैसे अत्याधुनिक गजट के शौकीन अखिलेश धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक जीवन में शायद ही कभी अंग्रेजी बोलते हों। वह आम जनता से संवाद का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते थे।

अखिलेश खुद अक्सर कहते हैं कि आज अंग्रेजी को सम्मान की भाषा बना दिया गया है। हिंदी और उर्दू अब गरीबों की भाषा हो गई है।

अखिलेश की सादगी और मेहनत ने जनता के मन में सपा के लिए उम्मीदों के फूल खिलाए, जिसकी वजह से पार्टी को इतिहास में पहली बार प्रदेश में अपने दम पर सरकार बनाने का मौका मिला। ये ऐसी कामयाबी है जो धरतीपुत्र कहे जाने वाले मुलायम के हिस्से कभी नहीं आई। वह भी मानते हैं कि इस सपने के पूरा होने के पीछे अखिलेश ही हैं।

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