भारत को बड़ी राहत देते हुए हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता अदालत ने पाकिस्तान की आपत्तियों को खारिज कर दिया और जम्मू-कश्मीर में किशनगंगा नदी से पानी का प्रवाह मोड़कर विद्युत उत्पादन करने के नई दिल्ली के अधिकार को बरकरार रखा है।
भारत-पाकिस्तान मध्यस्थता मामले में अंतिम फैसला सुनाते हुए अदालत ने यह भी निर्णय दिया कि भारत को किशनगंगा जल विद्युत परियोजना के नीचे से 'हर वक्त' किशनगंगा-नीलम नदी में कम से कम नौ क्यूमेक्स (घन मीटर प्रति सेकेंड) पानी जारी करना होगा।
इस वर्ष 18 फरवरी को दिए गए आंशिक फैसले में न्यूनतम प्रवाह का मुद्दा अनसुलझा रहा था।
अदालत ने शुक्रवार को दिए अपने अंतिम फैसले में निर्णय किया कि 'किशनगंगा नदी से जल प्रवाह की दिशा प्रथम बार मोड़ने के सात वर्ष के बाद' भारत और पाकिस्तान दोनों स्थायी सिंधु आयोग और सिंधु जल समझौते की रूपरेखा के मुताबिक निर्णय पर 'पुनर्विचार' कर सकते हैं।
आंशिक फैसले में अदालत ने सर्वसम्मति से निर्णय किया था कि जम्मू-कश्मीर में 330 मेगावाट की परियोजना में सिंधु जल समझौते की परिभाषा के तहत नदी का प्रवाह बाधित नहीं होना चाहिए।
मध्यस्थता अदालत ने कहा कि विद्युत उत्पादन के लिए किशनगंगा-नीलम नदी से पानी के प्रवाह की दिशा मोड़ने के लिए भारत स्वतंत्र है। अदालत ने भारत को परियोजना के लिए पानी मोड़ने का अधिकार दे दिया है और निर्बाध पानी के प्रवाह के पाकिस्तान की मांग को स्वीकार कर लिया है।
पाकिस्तान ने दावा किया है कि परियोजना के कारण नदी जल में इसका करीब 15 फीसदी हिस्सा गायब हो जाएगा। इसने भारत पर आरोप लगाए कि वह पाकिस्तान के नीलम-झेलम जल विद्युत परियोजना (एनजेएचईपी) को नुकसान पहुंचाने के लिए नदी जल को मोड़ने का प्रयास कर रहा है।
अदालत ने कहा कि किशनगंगा जल विद्युत परियोजना (केएचईपी) की भारत ने पाकिस्तान के एनजेएचईपी परियोजना से पहले कार्ययोजना बनाई थी और परिणामस्वरूप केएचईपी को 'प्राथमिकता' मिलती है।
अंतिम फैसला दोनों देशों के लिए बाध्यकारी है और इस पर अपील नहीं किया जा सकता।
पाकिस्तान ने सिंधु जल संधि 1960 के प्रावधानों के तहत 17 मई 2010 को भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अदालत का रुख किया था।
सिंधु जल समझौता अंतरराष्ट्रीय समझौता है जिस पर भारत और पाकिस्तान ने 1960 में दस्तखत किए थे जिसके तहत दोनों देशों के बीच सिंधु नदी के जल के उपयोग को लेकर दिशा-निर्देश हैं।
केएचईपी की रूपरेखा ऐसे तैयार की गई है जिसके तहत किशनगंगा नदी में बांध से जल का प्रवाह मोड़कर झेलम की सहायक नदी बोनार नाला में लाया जाना है।
सात सदस्यीय मध्यस्थता अदालत की अध्यक्षता अमेरिका के न्यायाधीश स्टीफन एम स्वेबेल हैं जो अंतराराष्ट्रीय न्यायालय के पूर्व अध्यक्ष थे। अन्य सदस्यों में फ्रैंकलिन बर्मन और होवार्ड एस व्हीटर (ब्रिटेन), लुसियस कैफलिश (स्विट्जरलैंड), जान पॉलसन (स्वीडन) और न्यायाधीश ब्रूनो सिम्मा (जर्मनी) पीटर टोमका (स्लोवाकिया) है।
मध्यस्थता अदालत ने जून 2011 में किशनगंगा परियोजना स्थल एवं आसपास के इलाकों का दौरा किया था।
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