छबीला रंगबाज़ का शहर : हमारे समय में कथा-लेखन की अलग लकीर

पुस्तक समीक्षा : कहानी संग्रह के साथ प्रवीण कुमार ने हिंदी के समकालीन कथा-संसार में एक अलग तरह की दस्तक दी

छबीला रंगबाज़ का शहर : हमारे समय में कथा-लेखन की अलग लकीर

खास बातें

  • बतकही या गप्प की शैली का इस्तेमाल
  • एकरैखिकता को तोड़ती है प्रवीण कुमार की शैली
  • कस्बे की धूल-मिट्टी के बीच पनपीं कहानियां

अपने पहले कहानी संग्रह 'छबीला रंगबाज़ का शहर' के साथ प्रवीण कुमार ने हिंदी के समकालीन कथा-संसार में एक अलग तरह की दस्तक दी है. हिंदी में प्रचलित कथा लेखन में वे दिलचस्प ढंग से तोड़फोड़ करते दिखाई पड़ते हैं. वे बतकही या गप्प  का इस्तेमाल करते हैं जो गांवों की चौपालों, मुहल्ले के नुक्कड़ों और तमाम कस्बों-शहरों की फुरसतिया गप्प गोष्ठियों में बड़ी सहजता और प्रचुरता से मिल जाती है. यह आसान शैली नहीं है. इसका सबसे बड़ा ख़तरा बहुत आसानी से सतही और सड़कछाप क़िस्म की भाषा में उतर जाने का है. कुछ युवा लेखकों के भीतर यह ख़तरा घटित होता और उनकी कहानी को भोंथरा करता दिखाई पड़ता है.

लेकिन प्रवीण कुमार बड़ी सहजता से इसके पार चले जाते हैं. उनको पढ़ते हुए यह समझ में आता है कि मोहल्लों की क़िस्सागोई का फ़न उनके पास प्रचुर मात्रा में है. इस फ़न में वे अपना अध्ययन भी मिलाते हैं और अपना भाषिक कौशल भी- इन सबको जोड़कर वे कहानी कहने का अपना ढंग विकसित करते हैं जिसमें कथा फैलती भी जाती है, ब्योरे जुड़ते भी जाते हैं और एक पूरा माहौल बनता जाता है.

इस शैली की एक सुविधा और है. यह शैली कथा की एकरैखिकता को तोड़ती है. उनकी लगभग सारी कहानियां एक तरह की औपन्यासिकता का एहसास कराती हैं- सिर्फ अपने आकार की वजह से नहीं, बल्कि किस्सों के भीतर चले आते किस्सों के फैलाव के चलते भी. संग्रह की पहली ही कहानी 'छबीला रंगबाज़ का शहर' इस शैली की भी बेहतरीन मिसाल है और इससे निकलने वाली नई तरह की कहानी की भी. शहर में एक स्कूल में पढ़ाने के लिए आया ऋषभ ट्रेन से उतरते ही शहर का मिज़ाज देखना-झेलना शुरू करता है. प्लैटफॉर्म पर सोए लोगों को फलांगता वह निकल कर बाहर आता है और एक आदमी से समय पूछता है. आदमी पान थूकता हुआ कहता है, घड़ी का पैसा आपने दिया था क्या. यहां से शहर का रंग खिलना-खुलना शुरू होता है. ऋषभ को इस शहर में दोस्त भी मिलते हैं, दुश्मन भी, प्रेमिका भी मिलती है, गुंडे भी, पत्रकार भी मिलते हैं और माफिया भी- नए खुलते मॉल भी मिलते हैं और पुरानी छूटी इमारतें भी. ज़रूरी टकराव यहां टलते रहते हैं और गैरज़रूरी लड़ाइयां यहां चलती रहती हैं. पुलिस की शक्ल में गुंडे मिलते हैं और गुंडों की शक्ल में वैसे मासूम- जो ज़माने की मार खाए हुए हैं. जातिवाद और सांप्रदायिकता के ज़हर और असर दोनों यह शहर झेलता है, बहुत सारी नई-पुरानी विकृतियों के बीच अपनी जिजीविषा से जीता रहता है और अपने लोगों के इम्तिहान लेता रहता है.

कहानी में कई जगह उलझाव भी मिलते हैं, कुछ कथा सूत्रों को नए सिरे से सहेजने की इच्छा होती है, लेकिन यह सब उस स्वाभाविक शैली के बाई-प्रोडक्ट हैं जो प्रवीण अपनाते हैं. संग्रह की दूसरी कहानी 'लादेन ओझा की हसरतें' एक बदलते हुए क़स्बे और शहर के भीतर पांव पसार रही सांप्रदायिकता की मार्मिकता के साथ शिनाख़्त करती है. यहां भी प्रवीण बिल्कुल बतकही से शुरुआत करते हैं, एक कस्बे की धूल-मिट्टी के बीच कई कहानियां बनती हैं. तोराबोरा का लादेन मरता है और कस्बे के लादेन की मौत की ख़बर में बदल जाता है. दहाड़े मारती मां अचानक बेटे को सामने देखकर हैरान रह जाती है. यहां प्रेम और विवाह की संभावना टटोलती गंगा-जमनी संस्कृति है जो अंत आते-आते जैसे नई हवा की चपेट में आकर एक साथ मरने को मजबूर होती है.

संग्रह की कहानियां लंबी हैं. कुल चार कहानियों में पूरा संग्रह बन गया है. तीसरी कहानी 'नया ज़फ़रनामा' है- फिर से चमकती-दमकती राजधानी के हाशिए पर बसी एक ऐसी बस्ती की कहानी जिसे राजनीति के लिए बचाए रखना है और विकास के लिए उजाड़ा जाना है. इस बस्ती में छोटी-छोटी हसरतें, छोटी-छोटी ईर्ष्याएं बड़े-बड़े अभावों और बड़ी-बड़ी विडंबनाओं से टक्कर लेती नज़र आती हैं- कभी ठोकर मारती हुई आगे बढ़ती हैं और कभी ठोकर खाकर गिर पड़ती हैं. भारतीय लोकतंत्र यहां तरह-तरह के वादों की शक्ल में दाख़िल होता है और तरह-तरह की विडंबनाओं की शक्ल लेकर निकलता है. चौथी कहानी 'चिलैक्स लीलाधारी' है जो फिर अपने ढंग से अनूठी कहानी है- राजपूताना गरूर में डूबे एक पिता की ऐसी संतान की कहानी जिसका दिल अपनी तरह से कोमल और स्त्रैण है. वह प्रेम करता है, घर में पिटता है, प्रेम करता है, छोड़ दिया जाता है, प्रेम करता है और उसे याद करता है और फिर प्रेम करता है और अंततः अपने प्रेम को हासिल करने का साहस दिखाता है- इस साहस में वह स्वतंत्रता भी शामिल है जो उसने अपनी आर्थिक आज़ादी के बूते हासिल की है. लेकिन इस बहुत स्थूल कथानक के भीतर कई कथाएं और हैं- जाति के गरूर के टूटने की, रिश्तों के उलझाव की और अंततः एक व्यक्तित्व के निर्माण की.

सच तो यह है कि इस टिप्पणी में बहुत सपाट ढंग से इन कहानियों का ज़िक्र कर दिया गया है- इसलिए भी कि कई सूत्रों में बिखरी इन कहानियों का संक्षेपण न आसान है न उनकी समीक्षा के लिए ज़रूरी है. कहने को ये चार कथाएं हैं, लेकिन इनमें कई उपकथाएं भी शामिल हैं. लेकिन इन सारी कहानियों के सिरे आपस में जोड़ते हुए प्रवीण कुमार के लेखन के बारे में कुछ ज़रूरी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. प्रवीण के शिल्प पर शुरू में ही बहुत सारी बातें कह दी गई हैं. लेकिन हम जानते हैं कि किसी भी कथा में शिल्प अलग से कुछ नहीं होता, वह कथ्य का अभिन्न हिस्सा होता है. इस लिहाज से प्रवीण दरअसल जो शिल्प चुनते हैं, वह उनके कथ्य से निर्धारित होता है. एक बडे स्तर पर देखें तो उनकी कहानियां इस भूमंडलीय समय में पीछे छूट रहे शहरों, क़स्बों, लोगों और उनके जज़्बों की कहानियां हैं. लेकिन क्या हमारे समय की ज़्यादातर कहानियां इन्हीं शहरों-कस्बों की कहानियां नहीं हैं? फिर प्रवीण में विलक्षण क्या है? शायद यह बात है कि वे नए और पुराने के द्वंद्व को- हावी हो रहे और पीछे छूट रहे समाज के तनाव को  किसी जानी-पहचानी समाजशास्त्रीय दृष्टि भर से नहीं देखते, वे बस उन छूट रही बस्तियों में दाखिल हो जाते हैं और अचानक उनकी वह माइक्रोस्कोपिक तस्वीर ले आते हैं जो हम सबकी स्मृतियों से धीरे-धीरे छूट रही है. उनकी कहानियों का जीवट, उनके हिलते-डुलते शहर, उनके बोलते-बतियाते किरदार- कहीं यह भरोसा और तसल्ली देते हैं कि जिसे हम भूमंडलीकरण की असंदिग्ध विजय की तरह देखने के आदी हो रहे हैं, उसे हमारे समय और समाज के लोग अपनी तरह से तार-तार भी कर दे रहे हैं, कि अपनी सारी आक्रामकता के बाद भी यह नया दौर उनके जीवट को जीत नहीं पाया है.

एक तरह से ये हाशिए के उन लोगों की कहानियां हैं जिन्होंने अपने जीने और बोलने का मुहावरा बचाया हुआ है. बेशक, उनकी पीठ पर कई तरह के प्रहार हो रहे हैं- लिजलिजी राजनीति, क्रूर और भ्रष्ट मीडिया, लोलुप बाज़ार और इन सबकी सेवा में लगा तंत्र सबको तोड़ने में लगा है, कुछ चीज़ें टूट भी रही हैं, लेकिन अंततः वह जीवन बचा हुआ है जो इस समाज को अपनी तरह से रचता और बचाता है.

निस्संदेह प्रवीण की इन कहानियों में अपनी तरह की जटिलताएं भी हैं. इनके बीहड़ में दाखिल होना पड़ता है. कई बार यह समझ में आता है कि उनकी किस्सागोई में एक खेल शामिल हो गया है जो शायद उसके पूरे असर को कुछ कम कर रहा है, कभी-कभी यह भी लगता है कि शिल्प का सधाव इस स्तर पर बाकी है कि ये कहानियां बहुत बड़ी हूक पैदा करें. ये पठनीय कहानियां हैं जो हमारी संवेदनाओं को छूती हैं, लेकिन हमें इस तरह विचलित और अवसन्न छोड़ जाएं कि हम बार-बार इन कहानियों को पढ़ना चाहें- इनमें यह बात पैदा होना अभी बाक़ी है. लेकिन फिर हमारे समय में किसकी कहानियों में यह बात पैदा हो रही है? प्रवीण निस्संदेह इस दौर के कथा-लेखन में अपनी अलग लकीर खींचते हैं.

छबीला रंगबाज़ का शहर:  प्रवीण कुमार, राजपाल प्रकाशन, मूल्य- 225 रुपये


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