विज्ञापन

शुभांकर मिश्रा की कचहरी: मराठी बनाम हिन्दी भाषा विवाद सही या गलत, कुछ हैं जो घर को तोड़ने पर तुले हैं...

भारत का संविधान कहता है — सबको बराबरी का हक है. न धर्म से भेद होगा, न जाति से, न भाषा से. लेकिन हकीकत क्या है? साफ है — संविधान किताब में है, जमीन पर नहीं.

  • उत्तर भारत के मजदूरों को उनकी भाषा, पहचान और प्रदेश के कारण शहरों में अपमान और भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
  • मराठी-हिंदी विवाद में कुछ राजनीतिक दल भाषा को वोट बैंक के लिए हथियार बना रहे हैं, जिससे सामाजिक एकता और संविधान की भावना प्रभावित हो रही है।
  • हिंदी भाषा भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली मातृभाषा है लेकिन इसे राजनीतिक कारणों से खतरा बताया जा रहा है.
क्या हमारी AI समरी आपके लिए उपयोगी रही?
हमें बताएं।
नई दिल्‍ली:

आज की कचहरी का पहला मुकदमा उत्तर भारत के उन मेहनतकश लोगों के बारे में हैं, जिन्हें उनकी पहचान, उनके राज्य और उनकी भाषा के लिए अपमानित किया जाता है. वो जो बिहार, यूपी, एमपी, राजस्थान, दिल्ली और हरियाणा से पेट भरने के लिए घर-परिवार छोड़कर दूर-दराज शहरों में जाते हैं. वहीं जाकर मजदूरी करते हैं. ईंट उठाते हैं, बिल्डिंग बनाते हैं, टैक्सी चलाते हैं, होटल में काम करते हैं, ढाबे में बर्तन धोते हैं. हर वो छोटा-बड़ा काम करते हैं जिससे ये शहर चलते हैं. लेकिन जब बात इज्‍जत की आती है, तो इन्हीं से पूछा जाता है "तुम यहां क्या करने आए हो?" कोई इन्हें इसलिए गाली देता है क्योंकि ये उत्तर भारत से हैं. कोई इसलिए मारता है क्योंकि ये गरीब हैं और काम मांगने आए हैं. और कोई इसलिए चिढ़ता है क्योंकि ये हिंदी बोलते हैं. 

भारत का संविधान कहता है — सबको बराबरी का हक है. न धर्म से भेद होगा, न जाति से, न भाषा से. लेकिन हकीकत क्या है? साफ है — संविधान किताब में है, जमीन पर नहीं. जो सबसे ज्‍यादा काम करता है, उसे सबसे कम सम्मान मिलता है.जिसने शहर खड़े किए, उसे ही बाहर का बताया जाता है. 

अब सीधा सवाल उठता है —
क्या मजदूर होना जुर्म है?
क्या हिंदी बोलना गुनाह है?

क्या उत्तर भारत से आना कोई अपराध है? ये मुकदमा सिर्फ मजदूरों का नहीं है — ये मुकदमा उस सोच के खिलाफ है जो मेहनत को छोटा समझती है. जिस दिन इन मेहनतकश लोगों की आवाज सुनी जाएगी, उस दिन संविधान की सच्ची इज्‍जत होगी. वरना ये देश, कुछ लोगों का रह जाएगा — और बाकी बस चुप रह जाएंगे. 

आज की कचहरी में इन राज्यों के कुछ नेताओं और उनके गुंडे समर्थकों पर आरोप है कि ये अपनी राजनीति चमकाने के लिए इस देश में भाषा के नाम पर वोटों की आग भड़काते हैं. इनका गुस्सा भी बड़ा चुनिंदा होता है—ये कभी फिल्मी सितारों पर नहीं भड़कते जो मुम्बई में हिन्दी फिल्में बनाते हैं, उनके साथ तो ये तस्वीरें खिंचवाते हैं, चाय पीते हैं और अपने मंचों पर बुलाते हैं. मुम्बई के स्टूडियो में जो हिन्दी टीवी सीरियल बनते हैं, उनसे भी इनका कोई झगड़ा नहीं होता. यहां तक कि IPL में जब उत्तर भारत के हिन्दी भाषी खिलाड़ी इनकी टीम के लिए खेलते हैं और जीत दिलाते हैं, तब भी इनका 'मराठी अस्मिता' या 'द्रविड़ गौरव' शांत रहता है. लेकिन जैसे ही कोई गरीब मजदूर, कोई टैक्सी ड्राइवर, कोई ढाबा वर्कर या ईंट ढोने वाला मज़दूर हिन्दी बोलता है, ये उसकी गर्दन पर सवाल रख देते हैं. इन्हें सिर्फ उस आदमी से दिक्कत है जो कमजोर है, गरीब है, पसीना बहा रहा है और अपने हक के लिए चुपचाप मेहनत कर रहा है. यही लोग संविधान को रौंदते हैं, भारत की एकता का मज़ाक उड़ाते हैं और उस देश के टुकड़े-टुकड़े करते हैं जिसे लाखों मेहनतकश लोग अपने खून-पसीने से जोड़े हुए हैं. 

मराठी-हिन्दी भाषा विवाद सही या गलत?

आज अगर मैं आपसे कहूं कि एक घर में पांच कमरे हैं और हर कमरे में एक-एक भाई अपने परिवार के साथ रहता है, तो क्या इसका ये मतलब निकाला जाएगा कि एक भाई दूसरे के कमरे में नहीं जा सकता? क्या जब वो भाई अपने ही घर के किसी और कोने में जाता है तो उसे बाहरी कहा जाएगा? अरे, घर सबका है, जमीन सबकी है, और सबसे बड़ी बात —हम सब एक ही परिवार के हिस्से हैं, हम सब भारतीय हैं. हमें इस देश में कहीं भी जाकर रहने, काम करने, पढ़ने, बोलने और अपने धर्म को मानने का पूरा हक है. यही तो भारत की खूबसूरती है —अलग-अलग भाषा, बोली, पहनावा और सोच के बावजूद हम सब एक साथ हैं. लेकिन कुछ लोग हैं जो इस पूरे घर को तोड़ने पर तुले हुए हैं — कभी धर्म के नाम पर लड़ाते हैं, कभी जाति के नाम पर बांटते हैं और अब भाषा को हथियार बनाकर अपने ही भाई से दुश्मनी करा रहे हैं. सवाल ये नहीं है कि मराठी बोले या हिन्दी, सवाल ये है कि क्या इस देश में अब अपने ही घर में रहने के लिए भी किसी को साबित करना पड़ेगा कि वो अपना है?

बोल कि लब आजाद हैं तेरे...

इस पूरी पृथ्वी पर करीब 87 लाख जीव-जंतु हैं — जानवर, पक्षी, मछलियां, कीड़े — लेकिन इनमें से कोई भी बोल नहीं सकता. किसी के पास अपनी बात कहने का, दुख या खुशी जताने का, सोच को शब्द देने का जरिया नहीं है. ये ताकत सिर्फ इंसान के पास है. हम बोल सकते हैं. हमारे पास भाषा है, शब्द हैं, अभिव्यक्ति है.और हम भारतीय तो और भी भाग्यशाली हैं — हमारे पास सैकड़ों भाषाएं, बोलियां और सांस्कृतिक रंग हैं, जिनसे हम अपनी पहचान बनाते हैं. 

लेकिन अफसोस, आज हम उसी भाषा को लेकर एक-दूसरे से लड़ रहे हैं. जो आवाज भगवान ने हमें जोड़े रखने के लिए दी थी, उसी आवाज को हम दीवार बना रहे हैं. जो भाषा दिलों को मिलाने का जरिया थी, उसे राजनीति की आग में झोंका जा रहा है. कभी मराठी बनाम हिन्दी, कभी उत्तर बनाम दक्षिण —इंसान इंसान से इसलिए कट रहा है क्योंकि उसने अपनी सबसे बड़ी ताकत को अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया है. 

आता माझी सटकली — लेकिन किसकी और क्यों?

आपने ये डायलॉग जरूर सुना होगा — "आता माझी सटकली!" ये मराठी भाषा के शब्द हैं, लेकिन इसे पूरे देश ने अपनाया, खासकर हिन्दी भाषी लोगों ने. जब सिंघम फिल्म में ये डायलॉग आया, तो किसी ने थिएटर में ये नहीं कहा कि हमें मराठी क्यों सुनाया जा रहा है. किसी ने कुर्सियां नहीं तोड़ीं, किसी ने पोस्टर नहीं फाड़े, किसी ने हिंसा नहीं फैलाई. उल्टा, लोगों ने इसे सिर आंखों पर बिठा लिया और इसे हिन्दी सिनेमा के सबसे पॉपुलर डायलॉग्स में शामिल कर लिया. क्योंकि उन्हें फर्क नहीं पड़ा कि भाषा कौन सी है, उन्हें उस डायलॉग की ताकत और जज़्बा महसूस हुआ. लेकिन अब सोचिए, मराठी भाषा की राजनीति करने वाले कुछ लोग क्या कर रहे हैं? पिछले दिनों मुम्बई में कई लोगों को सिर्फ इसलिए पीटा गया क्योंकि वो हिन्दी बोल रहे थे, लेकिन मराठी नहीं जानते थे.

एक महिला को सिर्फ इसलिए अपशब्द कहे गए क्योंकि वो हिन्दी भाषा की इज़्ज़त कर रही थी और इसका अपमान नहीं सह पाई. और सबसे बड़ी विडम्बना तो ये है कि पहले तो ये लोग हिन्दी भाषियों को पीटते हैं, और फिर सड़कों पर उतरकर खुद को गांधीवादी बताने लगते हैं.कहते हैं कि वो सत्याग्रह करेंगे, जैसे महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ किया था. लेकिन शायद उन्हें ये भी नहीं पता कि गांधी जी गुजरात से थे, पर पूरे देश से जुड़ने के लिए हिन्दी में बोले. वो जानते थे कि भारत को जोड़ने वाली भाषा कोई दीवार नहीं, एक सेतु होनी चाहिए.और आजादी का जो आंदोलन उन्होंने खड़ा किया, उसे असली ताकत हिन्दी ने दी थी —उस भाषा ने, जिसे आज ये लोग गाली दे रहे हैं, ठुकरा रहे हैं और सिर्फ राजनीति का मोहरा बना रहे हैं. 

राज ठाकरे की गलती 

विडम्बना देखिए, पहले राज ठाकरे की पार्टी के समर्थक हिन्दी भाषी लोगों के साथ मारपीट करते हैं — और अब वही लोग खुद को गांधीवादी बताकर सड़कों पर उतर आते हैं. कहते हैं कि वो सत्याग्रह करेंगे, जैसे महात्मा गांधी ने किया था. लेकिन शायद उन्हें ये तक नहीं मालूम कि गांधी जी गुजरात से थे, मगर देश से संवाद करने के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया. उन्होंने जिस आज़ादी के आंदोलन को खड़ा किया, उसकी आवाज़ भी हिन्दी ही बनी. 

MNS कहती है कि वो मराठी भाषा की लड़ाई लड़ रही है, लेकिन सच्चाई ये है कि ये मराठी भाषा की नहीं, अपनी राजनीतिक जमीन और परिवार को बचाने की लड़ाई है.अगर ये पूरे महाराष्ट्र की आवाज़ होती, तो सड़कों पर सिर्फ MNS के चंद कार्यकर्ता नहीं, पूरा महाराष्ट्र दिखता. मगर आम मराठी मुम्बईकर इस हिंसा से खुद को अलग रखता है. 

राज ठाकरे की पार्टी की हालत खुद गवाह है. न कोई विधायक, न सांसद, न BMC में एक भी सीट. 2024 में 125 सीटों पर चुनाव लड़ा और एक भी नहीं जीत पाए. यहां तक कि राज ठाकरे के बेटे अमित ठाकरे भी हार गए. पूरे महाराष्ट्र में जहां 68.8% लोग मराठी बोलते हैं, वहां MNS को सिर्फ 1.5% वोट मिले. अगर मराठी जनता को उनकी राजनीति मंजूर होती, तो क्या इतनी बुरी हार मिलती? अब जब सत्ता दूर, समर्थन खत्म और पार्टी हाशिए पर पहुंच गई है, तो भाषा का सहारा लेकर वोटों की दुकान चलाने की कोशिश हो रही है. 

MNS के लोग जब हिन्दी वालों को पीटते हैं, तब वो ये क्यों नहीं बताते कि हिन्दी और मराठी दोनों बहनें हैं? खुद उनकी पार्टी के नाम — “महाराष्ट्र नव निर्माण सेना” में भी जो ‘नव निर्माण' और ‘सेना' जैसे शब्द हैं, वो संस्कृत मूल के हैं — और संस्कृत से ही हिन्दी और मराठी दोनों निकली हैं. मराठी, महाराष्ट्री प्राकृत से आई है, जो संस्कृत से विकसित हुई थी.पहले इसे ‘मरहट्टी' कहते थे, बाद में ‘मराठी' बन गया. 

कहानी हिंदी की 

अब जरा हिन्दी की कहानी भी सुनिए — अगर संस्कृत नहीं होती, तो हिन्दी का जन्म ही नहीं होता. ऋग्वेद से लेकर खुमान रासो तक, और फिर भारत के आजादी आंदोलन तक, हिन्दी एक पुल की तरह काम करती रही है. ये वही भाषा है जिसने 1900 के बाद देश को एक साझा स्वर दिया. ये वही भाषा है जिसमें कभी संस्कृत के शब्द मिले, कभी उर्दू के, कभी अंग्रेज़ी के, और कभी लोक भाषाओं के.क्योंकि हिन्दी सबसे ज्‍यादा सहनशील भाषा है — वो हर किसी को जगह देती है. 

'खबर' जैसे कई शब्द हिन्दी के नहीं हैं, बल्कि अरबी और फारसी से आए हैं. लेकिन हिन्दी ने कभी किसी को नकारा नहीं. वो हर भाषा से कुछ न कुछ सीखती रही और आगे बढ़ती रही. इसीलिए भारत की 44% आबादी इसे अपनी मातृभाषा मानती है. जबकि मराठी को सिर्फ 6.8% लोग, तमिल को 5.7%, तेलगू को 6.7%, और पंजाबी को 2.7% लोग बोलते हैं. 

अब सोचिए —जिस देश में आधे से ज्यादा लोग हिन्दी बोलते हैं, उसी देश में हिन्दी को ही खतरा बताया जा रहा है? और वो भी ऐसे राज्यों से जहां खुद भी कई भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं — जैसे बिहार में भोजपुरी, मगही, मैथिली... उत्तर प्रदेश में ब्रज, अवधी, बुंदेली... राजस्थान में मारवाड़ी और मालवी... हरियाणा में हरियाणवी... लेकिन फिर भी लोग हिन्दी से प्यार करते हैं और उसे अपनाते हैं. 

हिन्दी भाषा को नज़रअंदाज़ करना सही नहीं 

भारत में 19 हज़ार से ज्यादा भाषाएं और बोलियां मौजूद हैं, जिनमें 22 भाषाओं को संविधान की आठवीं सूची में शामिल किया गया है और ये वो आठ भाषाएं हैं, जिन्हें देश के 96 पर्सेंट से ज्यादा लोग बोलते हैं. और इनमें भी सबसे ज्यादा 44 पर्सेंट लोगों की मातृभाषा हिंदी है. जबकि 8 पर्सेंट लोग बांग्ला, 6.8 पर्सेंट लोग मराठी, 6.7 पर्सेंट लोग तेलगू, 5.7 पर्सेंट लोग तमिल, 4.5 पर्सेंट लोग ''गुजराती'', 4.1 पर्सेंट लोग उर्दू, 3.6 पर्सेंट लोग कन्नड़, 3.1 पर्सेंट लोग उड़िया, 2.8 पर्सेंट लोग मलयालम और 2.7 पर्सेंट लोग पंजाबी भाषा को अपनी मातृभाषा मानते हैं. यानी इस देश में लगभग आधी आबादी की मातृभाषा हिन्दी है लेकिन जो नेता भाषा की राजनीति पर अपने वोटों का महल खड़ा करना चाहते हैं, वो सोचते हैं कि हिन्दी को अपनी मातृभाषा मानने वाले लोग इसे मात्र एक भाषा मानने लगें.

भाषा के नाम पर नफरत फैलाने वालों को ये समझना होगा कि धर्म और जाति की तरह भाषा के नाम पर लोगों को बांटना सही नहीं है.इससे इन नेताओं को कुछ वोट तो मिल सकते हैं लेकिन इससे देश का भला नहीं हो सकता. 

जिस भारत में हर 15 से 20 किलोमीटर के बाद भाषाएं और बोलियां बदल जाती हैं, आज उसी भारत में हिन्दी को दूसरी भाषाओं से खतरा बताना सरासर गलत है. सच्चाई ये है कि आप बिहार जाएंगे तो वहां भी भोजपुरी, मैथिली और मगही जैसी भाषाएं बोली जाती हैं. उत्तर प्रदेश में भी भोजपुरी, अवधी, ब्रज भाषा और बुंदेली भाषा बोली जाती है. राजस्थान में भी मारवाड़ी और मालवी जैसी भाषाएं बोली जाती हैं, पंजाब में पंजाबी भाषा बोली जाती है, हरियाणा में हरियाणवीं भाषा बोल जाती है और उत्तराखंड में भी गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषा बोली जाती है लेकिन इसके साथ ही यहां के लोग हिन्दी भाषा भी बोलते हैं और ऐसा कभी नहीं हुआ कि हिन्दी भाषा की वजह से इन राज्यों की भाषाओं को कोई नुकसान पहुंचा हो.

भाषा पर बांटने का खेल सिर्फ राजनीति के लिए 

भाषा पर हो रही ये राजनीति असल में हफ्ता वसूली की तरह है.जैसे बाहुबली पैसे खत्म होने के बाद हफ्ता वसूली करते थे, ठीक वैसे ही MNS जैसी पार्टियां वोट खत्म होने के बाद इसकी हफ्ता वसूली के लिए ऐसी राजनीति करती हैं.और हिन्दी और हिन्दी बोलने वाले मेहनतकश लोग भी इसी राजनीति का शिकार हो रहे हैं.अगर हिन्दी भाषा सहनशील नहीं होती तो RSS का मुख्यालय महाराष्ट्र के नागपुर में नहीं होता.और दक्षिण भारत की फिल्मों को हिन्दी भाषी लोग इतना प्यार नहीं देते.

Three Language Policy क्या है? 

इस कचहरी में एक और इल्ज़ाम ये है कि केन्द्र सरकार Three Language फॉर्मूले के तहत देशभर के स्कूलों पर हिन्दी भाषा को थोपना चाहती है लेकिन सबूत और गवाह बताते हैं कि ये दावा सरासर गलत है. भारत सरकार ने 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ये कहा है कि अब से स्कूलों में बच्चों को जो तीन भाषाएं पढ़ाई जाएंगी, उनमें से किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा. बच्चे जो तीन भाषाएं स्कूलों में जाकर सीखेंगे, वो राज्य सरकारें और छात्रों की पसंद पर आधारित होंगी.यहां शर्त सिर्फ इतनी है कि इनमें से कम से कम दो भाषाएं भारत की होनी चाहिए. और एक भाषा विदेशी होनी चाहिए. 

पुराने फॉर्मूल में अंग्रेजी को अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाता था लेकिन अब सरकार ने अंग्रेजी को विदेशी भाषा में डाल दिया है और अब ये छात्रों की पसंद पर निर्भर करता है कि वो Korean, Japanese, French, German, Spanish, या अंग्रेज़ी भाषा में से कौन सी एक विदेशी भाषा सीखना चाहते हैं.

इसके अलावा अब बच्चों को भारत की दो भाषाएं सिखाना ज़रूरी  हैं और इनमें हिन्दी भाषा का होना अनिवार्य नहीं है.ये राज्य सरकारें और छात्र खुद तय कर सकते हैं कि वो अपनी मातृभाषा के साथ एक और कौन सी भारतीय भाषा स्कूलों में पढ़ना चाहते हैं.

महाराष्ट्र सरकार ने पहली से पांचवी कक्षा के छात्रों को तीसरी भाषा के तौर पर हिन्दी पढ़ाने का फैसला किया था, जिस पर विवाद हुआ और सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा लेकिन यहां आपको ये समझना होगा कि बच्चे कौन सी भाषा सीखेंगे, ये राज्य सरकार ही तय करेगी.और केंद्र सरकार से इसका कोई लेना-देना नहीं है. 

ये इल्ज़ाम भी गलत है कि तीन भाषाएं पढ़ाने का ये फॉर्मूला नया है. भारत में ये फॉर्मुला पहली बार शिक्षा आयोग ने 1966 में पेश किया था, जिसे 1968 में इंदिरा गांधी की सरकार ने पहली बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शामिल कराया. उस वक्त Three Language फॉर्मुले का मतलब था, स्कूलों में बच्चों को तीन भाषाएं पढ़ाना, जिनमें बच्चों की मातृभाषा और अंग्रेज़ी भाषा अनिवार्य होती थी. इसके बाद 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने भी इसी नीति को अपनाया और 1992 में पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने भी इसमें कुछ बदलाव किए और इसे राष्ट्रीय एकता के लिए ज़रूरी बताया. 

ये इल्ज़ाम भी गलत है कि भारत में पहली बार भाषा को लेकर इतना विवाद हो रहा है.1937 में, तत्कालीन मद्रास सरकार ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य किया था.इस फैसले का जस्टिस पार्टी और द्रविड़ आंदोलन के नेता पेरियार ने कड़ा विरोध किया और यह नीति 1940 में वापस ले ली गई, लेकिन तमिलनाडु में हिंदी-विरोधी भावना हमेशा बनी रही.जब 1968 में भी तीन भाषाएं पढ़ाने का फॉर्मुला लाया गया, तब भी तमिलनाडु ने कहा था कि उस पर हिंदी थोपी जा रही है और तमिल नाडु ने इस नीति को नहीं अपनाया था और वहां दो ही भाषाएं पढ़ाई जाती हैं, जिनमें एक है तमिल भाषा और दूसरी है अंग्रेजी भाषा. 

तमिलनाडु आज भी एकमात्र राज्य है, जिसने कभी स्कूलों में तीन भाषाएं नहीं पढ़ाईं और हिंदी के ऊपर हमेशा अंग्रेज़ी भाषा को रखा. 

आखिर में आपको महान स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक विनोबा भावे की एक बात याद रखनी चाहिए.वो महाराष्ट्र से थे और मराठी थे लेकिन उन्होंने कहा था कि मैं दुनिया की सभी भाषाओं इज्जत करता हूं लेकिन मेरे देश में हिन्दी की इज्जत ना हो ये मैं सह नहीं सकता. 
 

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com