अबकी बार के यूपी चुनावों में कई सियासी दिग्गजों का भविष्य दांव पर लगा है
नई दिल्ली:
यूपी में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर राज्य की सियासत में तीन चेहरे ऐसे हैं, जिनके लिए ये चुनाव बेहद अहम साबित होने जा रहे हैं. दरअसल ये चुनाव इनके राजनीतिक अस्तित्व और भविष्य के लिए खासा अहमियत रखते हैं और नतीजों का इन पर निर्णायक असर होगा. आइए जानते हैं, वे वजहें जिनके चलते ये चुनाव इनके सियासी भविष्य के लिए सबसे अहम हैं :
अखिलेश यादव
अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण चुनाव लड़ने जा रहे हैं क्योंकि इनके सियासी भविष्य पर इसका निर्णायक प्रभाव पड़ेगा. सपा में मचे घमासान के बीच पहली बार पिता की छाया से निकलकर सियासी मोर्चे पर अपनी किस्मत आजमाने जा रहे हैं. विकासवाद बनाम जातिवाद के इर्द-गिर्द घूमती सियासत के बीच विकास पुरुष की इमेज के साथ चुनाव में लड़ने का इरादा रखते हैं. अखिलेश का यह अवतार सपा की परंपरागत सियासी सोच से अलग मिजाज का है. स्वच्छ छवि, ईमानदार चेहरा उनकी सियासी पूंजी मानी जा रही है.
अपने अभियान 'काम बोलता है' के माध्यम से अब तक किए गए विकास कार्यों का ब्यौरा भी पेश कर रहे हैं. इस मोर्चे पर उनकी सराहना आलोचक भी करते हैं. जाति, धर्म की सियासत से भी खुद को नहीं जोड़ा और प्रगतिशील इमेज है. कांग्रेस की यूपी में सीएम पद का चेहरा शीला दीक्षित भी अखिलेश की तारीफ करती नजर आती हैं और तमाम चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में अखिलेश को मुख्यमंत्री के रूप में पहली पसंद बताया जा रहा है. हालांकि यह भी सही है कि यदि सपा में दो फाड़ होता है और मुलायम गुट अलग से चुनाव लड़ता है तो एक ही वोट बैंक होने से वोट कटने का खतरा है. वोटों के बिखराव को रोकना अखिलेश के लिए बड़ी चुनौती है.
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यह भी पढ़ें : सत्ता का सेमीफाइनल : 5 राज्यों के चुनावों से पीएम मोदी की लोकप्रियता का भी होगा इम्तिहान
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शिवपाल यादव
सपा के कद्दावर नेता माने जाते रहे हैं. पार्टी के भीतर गजब की संगठन क्षमता मानी जाती रही है. हालांकि भतीजे के साथ संघर्ष में फिलहाल अखिलेश खेमे ने उनको यूपी के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया है. अगर सपा में दो फाड़ की स्थिति में अखिलेश खेमा चुनावी शिकस्त का सामना करना पड़ता है तो यह कहने की स्थिति में होंगे कि पार्टी की बागडोर उनके हाथ में ही सुरक्षित है. लेकिन अखिलेश खेमा जीतता है तो शिवपाल के पास भविष्य के लिहाज से सियासी विकल्प सीमित होंगे.
मायावती
बसपा सुप्रीमो. 2012 में पार्टी हारकर यूपी की सत्ता से बाहर हुई. 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का खाता तक नहीं खुला. अबकी बार चुनाव से ऐन पहले स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे बड़े नेताओं के पार्टी छोड़कर जाने से पार्टी के हौसलों पर विपरीत असर पड़ा. पिछले दो दशकों में राज्य के सियासी फलक पर सपा के विकल्प के रूप में बसपा को ही देखा जाता रहा है लेकिन अबकी बार बीजेपी के उभार और कांग्रेस, रालोद के अखिलेश खेमे वाली सपा के साथ गठजोड़ की स्थिति में बसपा के लिए सत्ता में लौटने की राह आसान नहीं होगी. इन सब परिस्थितियों में लगातार यदि पार्टी सत्ता में नहीं लौटती है तो बसपा और मायावती की आगे की सियासी राह आसान नहीं होगी.
हालांकि 2007 में सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला बनाने वाली बसपा ने अबकी बार सबसे बड़ा दांव मुस्लिमों पर लगाया है. पार्टी ने 97 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं और 87 सीटों पर दलित प्रत्याशी उतारे हैं. बसपा को लगता है कि सपा के कमजोर होने की स्थिति में सियासी फायदा पूरी तरह से बसपा को होगा. हालांकि ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा.
अखिलेश यादव
अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण चुनाव लड़ने जा रहे हैं क्योंकि इनके सियासी भविष्य पर इसका निर्णायक प्रभाव पड़ेगा. सपा में मचे घमासान के बीच पहली बार पिता की छाया से निकलकर सियासी मोर्चे पर अपनी किस्मत आजमाने जा रहे हैं. विकासवाद बनाम जातिवाद के इर्द-गिर्द घूमती सियासत के बीच विकास पुरुष की इमेज के साथ चुनाव में लड़ने का इरादा रखते हैं. अखिलेश का यह अवतार सपा की परंपरागत सियासी सोच से अलग मिजाज का है. स्वच्छ छवि, ईमानदार चेहरा उनकी सियासी पूंजी मानी जा रही है.
अपने अभियान 'काम बोलता है' के माध्यम से अब तक किए गए विकास कार्यों का ब्यौरा भी पेश कर रहे हैं. इस मोर्चे पर उनकी सराहना आलोचक भी करते हैं. जाति, धर्म की सियासत से भी खुद को नहीं जोड़ा और प्रगतिशील इमेज है. कांग्रेस की यूपी में सीएम पद का चेहरा शीला दीक्षित भी अखिलेश की तारीफ करती नजर आती हैं और तमाम चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में अखिलेश को मुख्यमंत्री के रूप में पहली पसंद बताया जा रहा है. हालांकि यह भी सही है कि यदि सपा में दो फाड़ होता है और मुलायम गुट अलग से चुनाव लड़ता है तो एक ही वोट बैंक होने से वोट कटने का खतरा है. वोटों के बिखराव को रोकना अखिलेश के लिए बड़ी चुनौती है.
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शिवपाल यादव
सपा के कद्दावर नेता माने जाते रहे हैं. पार्टी के भीतर गजब की संगठन क्षमता मानी जाती रही है. हालांकि भतीजे के साथ संघर्ष में फिलहाल अखिलेश खेमे ने उनको यूपी के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया है. अगर सपा में दो फाड़ की स्थिति में अखिलेश खेमा चुनावी शिकस्त का सामना करना पड़ता है तो यह कहने की स्थिति में होंगे कि पार्टी की बागडोर उनके हाथ में ही सुरक्षित है. लेकिन अखिलेश खेमा जीतता है तो शिवपाल के पास भविष्य के लिहाज से सियासी विकल्प सीमित होंगे.
मायावती
बसपा सुप्रीमो. 2012 में पार्टी हारकर यूपी की सत्ता से बाहर हुई. 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का खाता तक नहीं खुला. अबकी बार चुनाव से ऐन पहले स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे बड़े नेताओं के पार्टी छोड़कर जाने से पार्टी के हौसलों पर विपरीत असर पड़ा. पिछले दो दशकों में राज्य के सियासी फलक पर सपा के विकल्प के रूप में बसपा को ही देखा जाता रहा है लेकिन अबकी बार बीजेपी के उभार और कांग्रेस, रालोद के अखिलेश खेमे वाली सपा के साथ गठजोड़ की स्थिति में बसपा के लिए सत्ता में लौटने की राह आसान नहीं होगी. इन सब परिस्थितियों में लगातार यदि पार्टी सत्ता में नहीं लौटती है तो बसपा और मायावती की आगे की सियासी राह आसान नहीं होगी.
इस बार बसपा ने सर्वाधिक 97 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं
हालांकि 2007 में सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला बनाने वाली बसपा ने अबकी बार सबसे बड़ा दांव मुस्लिमों पर लगाया है. पार्टी ने 97 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं और 87 सीटों पर दलित प्रत्याशी उतारे हैं. बसपा को लगता है कि सपा के कमजोर होने की स्थिति में सियासी फायदा पूरी तरह से बसपा को होगा. हालांकि ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा.
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