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This Article is From Jul 07, 2014

मणि-वार्ता : क्या हिन्दुओं को चाहिए यूनिफॉर्म सिविल कोड?

मणि-वार्ता : क्या हिन्दुओं को चाहिए यूनिफॉर्म सिविल कोड?

'मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं'

मैंने और मेरी सिख पत्नी ने विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के अंतर्गत आज से 41 वर्ष पहले विवाह किया था। वैसे तो समारोह शांतिपूर्वक संपन्न हुआ, लेकिन एक बार उस समय मुझे अपनी हंसी रोकनी पड़ी, जब मुझे शपथ लेनी पड़ी कि 'अपनी पूर्ण जानकारी तथा विश्वास के अनुसार' मैं किसी भी और से विवाहित नहीं हूं। यदि यही विवाह हमने वर्ष 1954 से पहले किया होता, तो हम दोनों को विवाह कर पाने से पहले अपना-अपना धर्म त्यागना पड़ता। दरअसल, वर्ष 1954 से पहले समान नागरिक संहिता सिर्फ अनीश्वरवादियों तथा नास्तिकों के लिए उपलब्ध थी, जो अपने पूर्वजों के धर्म का परित्याग कर स्वयं को सिद्ध कर चुके हों।

वर्ष 1954 में यह सब बदल गया। भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (असांप्रदायिक विशेषण 'भारतीय' पर ध्यान दें) के साथ शामिल किए गए विशेष विवाह अधिनियम के जरिये हमने 60 वर्ष पहले खुद को वैकल्पिक समान नागरिक संहिता दे दी थी। फिर भी हमारे अल्पसंख्यकों पर अनिवार्य समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) लादने की कसम खाए बैठे मोदीवादी यह बताने की कृपा नहीं करते कि उन्होंने 60 साल से हमारे संविधान में मौजूद समान नागरिक संहिता को स्वयं आज तक क्यों नहीं अपनाया है। नहीं, वे आज भी हिन्दू कानून के अंतर्गत विवाह करते हैं, और अपनी निजी ज़िन्दगियों को उसी हिन्दू पर्सनल लॉ के तहत चलाते हैं, जिसे तीन अन्य कानूनों के साथ वैकल्पिक समान नागरिक संहिता के प्रभावी होने के बाद वर्ष 1955 और 1956 में लागू किया गया था। और मोदीवादी उन अल्पसंख्यकों का मज़ाक बनाते हैं, जो उनके अपने-अपने पर्सनल लॉ के स्थान पर समान नागरिक संहिता लागू करने का विरोध करते हैं।

यह पाखण्ड किसलिए...? सिर्फ मुस्लिमों का मज़ाक उड़ाने के लिए, यह दावा करने के लिए कि मुस्लिम सुधार-विरोधी हैं, जबकि बहुसंख्यक प्रगतिशील हैं। कोई भी पर्सनल लॉ उन कानूनों से ज़्यादा प्रगतिशील नहीं है, जिसके तहत मैंने विवाह किया था। वह ऐसा निर्णय था, जो मुझे अनिच्छा से इसलिए करना पड़ा था, क्योंकि मेरे पिता द्वारा बनवाए गए मंदिर के पुजारियों ने विवाह संस्कार करवाने से इस कारण से इनकार कर दिया था, क्योंकि मेरी होने वाली वधू ब्राह्मण नहीं थी। उसके बाद हालांकि उन्होंने एक दूसरे पुजारी से विवाह संस्कार संपन्न करवा लेने की पेशकश की, जो कुछ पैसे लेकर मेरा काम कर सकता था, लेकिन मुझे गुस्सा आया, और मैंने वह पेशकश साफ ठुकरा दी, और अपनी भावी पत्नी की सहमति से एक ऐसे कानून के अंतर्गत विवाह करने का निर्णय किया, जो आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष था। वह आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष कानून उपलब्ध होने के बावजूद बहुसंख्यक समुदाय ने अपना पर्सनल लॉ क्यों चुना...? सिर्फ इसलिए कि हिन्दू पर्सनल लॉ हिन्दुओं के दिल के ज़्यादा करीब है। ऐसी स्थिति में, अन्य संप्रदायों के लिए उनके पर्सनल लॉ दिल के करीब क्यों नहीं होने चाहिए...?

यह सच है कि हिन्दू पर्सनल लॉ को संसद ने तैयार किया है, जबकि शेष पर्सनल लॉ को नहीं। लेकिन ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ, क्योंकि महात्मा गांधी ने यह सुनिश्चित किया था कि स्वाधीनता के लिए चलाया गया हमारा आंदोलन न सिर्फ विदेशी सत्ता से मुक्ति दिलाए, बल्कि हम उन भयानक कुप्रथाओं से भी छुटकारा पा सकें, जो हिन्दुओं के धर्म तथा संस्कृति से जुड़ी थीं। संसद द्वारा संहिता का बनाया जाना इसलिए संभव हो पाया, क्योंकि वह स्वतंत्रता संघर्ष का बचा हुआ काम था।

आज़ादी से बहुत पहले, वर्ष 1941 में ब्रिटिश भारतीय सरकार ने बीएन राऊ की अध्यक्षता में हिन्दू लॉ कमेटी का गठन किया था, जिसने अपना काम पूरा करने में छह साल लिए, और स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर संविधान सभा को अपनी रिपोर्ट सौंपी। उसके बाद भी आठ साल का वक्त फिर लिया गया, और आखिरकार वर्ष 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम, 1956 में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में ही हिन्दू दत्तक-ग्रहण तथा रखरखाव अधिनियम, तथा 1956 में ही हिन्दू अल्पसंख्यक तथा संरक्षण अधिनियम पारित हुए। तब से लेकर अब तक इनमें कई संशोधन किए जा चुके हैं, और निश्चित रूप से आगे भी होते रहेंगे, जिसके चलते इसे 'कार्य प्रगति पर है' माना जा सकता है। सो, यह आशा करना कि अन्य संप्रदाय अपने कानूनों में बदलाव के लिए इतना समय नहीं लेंगे, विद्वेषपूर्ण है।

यह भी ध्यान देना होगा कि राऊ कमेटी के हिन्दू कोड बिल पर संसद में हुई बहसों में सिर्फ हिन्दू सांसदों ने ही भाग लिया, और मुस्लिम, ईसाई तथा पारसी समुदायों की भागीदारी बिल्कुल नहीं या बहुत कम रही, जिसके कारण गैर-हिन्दुओं के दिमाग में आया, और लगभग सही आया, कि उनके कानून हिन्दू ही बनाते और संशोधित करते हैं, अन्य संप्रदायों के लोग नहीं। तो फिर मुस्लिमों अथवा अन्य गैर-हिन्दुओं को गैर-मुस्लिम क्यों बताएं कि उन्हें अपने कानून कैसे सुधारने हैं।

सुधार आसान नहीं होते। राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद से लेकर नीचे तक के हिन्दू परम्परावादियों ने जी-जान से सुधारों को रोकने की कोशिश की, और कोड में इतनी खामियां छोड़ दीं कि हिन्दुओं में मुस्लिमों से भी ज़्यादा द्विपत्नी विवाह तथा बहुपत्नी विवाह के किस्से सामने आए (1961 की जनगणना तथा महिलाओं की स्थिति पर बनी समिति की 1974 में आई रिपोर्ट)। इसके अलावा, वर्ष 1964 में हिन्दू विवाह अधिनियम में किए गए एक संशोधन के परिणामस्वरूप अब हिन्दू तलाक अधिनियम के तहत एक पत्नी को 'उसके वैवाहिक निवास से आसानी से निकाला जा सकता है, यदि पति यह कहे कि उसके (पति के) मुताबिक विवाह टूट चुका है...' अब कोई तीन बार तलाक कहने पर बात करेगा...? (यह मैं नहीं कह रहा हूं, बल्कि यह अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, लखनऊ के विधि संकाय के डीन प्रोफेसर अजय कुमार ने अपनी महान कलाकृति 'यूनिफॉर्म सिविल कोड : चैलेंन्जेस एंड कन्सट्रेन्ट्स, 2012' में कहा है) उन्होंने हिन्दू कानूनों पर एक और विशेषज्ञ डॉ जेडीएम डेरेट के हवाले से यह भी कहा है कि इसके बाद लागू किए गए विवाह कानून (संशोधन) अधिनियम, 1976 की वजह से यह 'आश्चर्यजनक रूप से महिलाओं के प्रति कहीं ज़्यादा असंवेदनशील कानून' बन गया। 'द इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली' के 16 दिसंबर, 1995 के अंक में अपने बेहद पसंद किए गए आलेख में फ्लैवियो एग्नेस ने भी इस कानून के अनैतिक तथा द्वेषपूर्ण हिस्सों का पुलिंदा पेश किया।

बहरहाल, जैसा कि हैदराबाद की नालसार यूनिवर्सिटी की कुलपति फरज़ाना मुस्तफा ने संशोधित हिन्दू कानून को लेकर सवाल किया, "क्या इससे हिन्दू महिलाओं का उत्थान हुआ...? कितनी हिन्दू महिलाओं को जायदाद में हिस्सा मिलता है...? वास्तव में हिन्दू महिलाओं को जायदाद में जितना हिस्सा मिला है, वह संशोधित हिन्दू कानून के अनुसार उन्हें मिल सकने वाली जायदाद का एक बहुत छोटा हिस्सा है... कानून में बदलाव लाने से ज़रूरी सामाजिक बदलाव नहीं आते हैं..." और वह अंत में लिखती हैं, "कानूनों में निर्देशात्मक बदलाव लाने से आवश्यक सामाजिक बदलाव नहीं आते हैं..." (द हिन्दू, 2 जुलाई, 1994)

इससे हम यह बेहद महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाल सकते हैं, कि यदि कानून के साथ-साथ धरातल पर सामाजिक सुधार भी चाहिए तो कानून में सुधार संप्रदाय के भीतर से ही होना चाहिए। बिल्कुल यही बात भारतीय महिला मुस्लिम आंदोलन (बीएमएमए) भी लगातार कहता आ रहा है। बीएमएमए की सह-संस्थापक नूरजहां साफिया नवाज़ ने 29 जून, 2014 को 'द हिन्दू' की पत्रिका में कहा है कि सात साल की अवधि में 10 राज्यों में बसी हज़ारों महिलाओं, जिनमें अधिकतर गरीब थीं, से सलाह-मशविरे के बाद उन्होंने एक नया 'मुस्लिम विवाह एवं तलाक अधिनियम' तैयार किया है। उनका कहना है कि पहले संप्रदाय के लोगों को इस पर चर्चा करने दी जाए।

जैसा कि पाकिस्तान समेत कई मुस्लिम देशों ने दिखाया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार करना भी उतना ही साध्य है, जितना हिन्दू पर्सनल लॉ में सुधार करना, लेकिन जैसा हिन्दुओं से जुड़े मामले में होता है, ऐसा तभी संभव है, जब सुधार करने का दबाव संप्रदाय के भीतर से ही डाला जाए। बाहर से दबाव डालकर, खासकर जब कोई संप्रदाय अल्पसंख्यक हो, जब भी सुधारों की कोशिश होगी, उसका विरोध होगा ही। इसी वजह से बेगम साफिया नवाज़ साफ-साफ कहती हैं, "हम समान नागरिक संहिता का विरोध करते हैं..." वे चाहते हैं कि उनके संप्रदाय का पर्सनल लॉ चलता रहे, परन्तु उन्हें विश्वास है कि वे इसमें भीतर से सुधार ला सकते हैं। निश्चित रूप से कोई भी देशभक्त भारतीय इस पहल का स्वागत ही करेगा।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा समय-समय पर व्यक्त किए गए स्वतंत्र विचारों के हवाले से यह दलील दी जाती है कि समान नागरिक संहिता से राष्ट्रीय अखंडता को मजबूती मिलेगी, लेकिन ठीक इसके उलट हड़बड़ी में एकमत तैयार किए बिना कोई कानून लाने से सिर्फ सांप्रदायिक तनाव बढ़ेगा, जिस तरह किसी अन्य संप्रदाय के विश्वासों और मान्यताओं व परम्पराओं के बारे में की गई निंदात्मक टिप्पणियों से देश बिखरकर रह जाता है। यदि हम बेसब्र होकर, सुधारों की प्रकृति को लेकर मुस्लिम समुदाय में मतैक्य बनाने से पहले हमारी उस संसद में कानून बनाने के जरिये मुस्लिम पर्सनल लॉ में संशोधन करते हैं, जहां मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व बेहद कम है, हम अपने संविधान में वर्णित उस व्यवस्था को खतरे में डाल देंगे, जो जटिल सामाजिक-कानूनी मुद्दों से निपटने के लिए परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील है। कुमार कहते हैं, हमारा संविधान विशिष्ट रूप से भारतीय है, जो कई स्तरों पर विभिन्नताओं को समझता भी है, और व्यक्ति-समूहों के मतभेदों को पहचानता भी है, सो, वह विभिन्न पर्सनल लॉ समेटे हुए है। साथ ही कुमार यह भी कहते हैं, "भारत सरकार ने सोच-समझकर, हालांकि चुपके से, नज़र बचाकर, सावधानी से, और धीरे-धीरे विभिन्न भारतीय पर्सनल लॉ के बीच सामंजस्य बिठाया, और पर्सनल लॉ के उनके अपने-अपने दर्जे को चुनौती दिए बिना सबको लगभग एक ही जैसा बना दिया..." वह एक उदाहरण के रूप बाल विवाह प्रतिबंध अधिनियम, 2006 का ज़िक्र करते हैं, और इसे आगे बढ़ने का समझदारी भरा रास्ता बताते हैं।

सो, मोदी सरकार को समान नागरिक संहिता को ठंडे बस्ते में डालकर देश को समान वित्तीय संहिता देने की दिशा में शुरुआत करनी चाहिए। करों में छूट सिर्फ हिन्दू अविभाजित परिवारों को ही क्यों दी जानी चाहिए, किसी भी अन्य संप्रदाय के अविभाजित परिवारों को क्यों नहीं...? सो, हमें उम्मीद है कि वित्तमंत्री अरुण जेटली अगले सप्ताह के अपने बजट भाषण में इस 'गुगली' का जवाब ज़रूर देंगे।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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