
फाइल फोटो
लखनऊ:
इलाहबाद हाई कोर्ट ने यू पी के क़रीब 40 लाख सरकारी कर्मचारियों और अफसरों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ना जरूरी कर दिया है। इनमें आईएएस, आईपीएस, आईएफएस अफसर, एलएलए, एमपी समेत सरकार से वेतन या मानदेय पाने वाला हर शख्स शामिल है। अदालत के इस फैसले पर जहां बड़ी संख्या में आम लोगों ने खुशी जाहिर की है वहीं कुछ लोगों ने सरकारी स्कूलों में पढ़ने की बाध्यता को मौलिक अधिकार के खिलाफ बताया है।
अदालत ने सरकारी प्राइमरी स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती में गड़बड़ियों को लेकर दायर की गई याचिकाओं पर यह फैसला दिया है।
आम लोग हाई कोर्ट के फैसले से खुश हैं। उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षक संघ के महासचिव डॉ आर पी मिश्रा कहते हैं, "हम लोग बहुत दिनों से यह नारा देते रहे हैं कि ...बढ़े कदम अब नहीं रुकेंगे, अब कृष्ण-सुदामा साथ पढ़ेंगे। यह हमारी सोच की भी जीत है. चूंकि हमारे यहां बड़े लोगों के बच्चे सरकारी प्राइमरी स्कूलों में नहीं पढ़ते इसीलिए यहां शिक्षा की इतनी बुरी हालत है। हालत यह है कि सरकारी प्राइमरी और सेकेंडरी स्कूलों में 270000 शिक्षकों की कमी है। कहीं-कहीं स्कूलें इतनी छोटी हैं कि बच्चों को पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ना पड़ता है। हिंदी का टीचर कंप्यूटर पढ़ाता है और उर्दू का गणित पढ़ा रहा है।"
क़ानून के कई जानकार इस फैसले से इत्तेफाक नहीं रखते। उनका कहना है कि यह संविधान से मिले मौलिक अधिकार के खिलाफ है। उनका मत है कि जिन 40-50 लाख लोगों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ना जरूरी किया जा रहा है, वे सभी लोग प्राइमरी शिक्षा के खराब स्तर के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। जो लोग जिम्मेदार हैं, सजा उन्हें दी जा सकती है, लेकिन उनके बच्चों को खराब स्कूल में पढ़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। यही नहीं इस पर अमल व्यवहारिक रूप से भी काफी मुश्किल होगा। लेकिन इस फैसले से यह उम्मीद बंधी है कि हो सकता है कि इसी बहाने प्राइमरी शिक्षा की हालत कुछ सुधर जाए।
गौरतलब है कि यू पी में सरकारी प्राइमरी स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती में गड़बड़ियों की शिकायतों की इलाहाबाद हाई कोर्ट में कई याचिकाएं आई थीं। इस पर अपने फैसले में अदालत ने लिखा है कि "सरकारी प्राइमरी स्कूलों की पढ़ाई घपलों-घोटालों और भ्रष्टाचार की शिकार है। स्कूलों में न पीने का पानी है न वाशरूम। पेड़ के नीचे भी पढ़ाई होती है। डीएम ,एस पी के बच्चे इनमें नहीं पढ़ते। इसलिए सरकार से पैसा पाने वाले हर शख्स का बच्चा यहीं पढ़े। जो न भेजें उन पर फाइन लगाया जाए। चीफ सेक्रेटरी इसे 6 महीने में लागू कराएं।
अदालत ने सरकारी प्राइमरी स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती में गड़बड़ियों को लेकर दायर की गई याचिकाओं पर यह फैसला दिया है।
आम लोग हाई कोर्ट के फैसले से खुश हैं। उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षक संघ के महासचिव डॉ आर पी मिश्रा कहते हैं, "हम लोग बहुत दिनों से यह नारा देते रहे हैं कि ...बढ़े कदम अब नहीं रुकेंगे, अब कृष्ण-सुदामा साथ पढ़ेंगे। यह हमारी सोच की भी जीत है. चूंकि हमारे यहां बड़े लोगों के बच्चे सरकारी प्राइमरी स्कूलों में नहीं पढ़ते इसीलिए यहां शिक्षा की इतनी बुरी हालत है। हालत यह है कि सरकारी प्राइमरी और सेकेंडरी स्कूलों में 270000 शिक्षकों की कमी है। कहीं-कहीं स्कूलें इतनी छोटी हैं कि बच्चों को पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ना पड़ता है। हिंदी का टीचर कंप्यूटर पढ़ाता है और उर्दू का गणित पढ़ा रहा है।"
क़ानून के कई जानकार इस फैसले से इत्तेफाक नहीं रखते। उनका कहना है कि यह संविधान से मिले मौलिक अधिकार के खिलाफ है। उनका मत है कि जिन 40-50 लाख लोगों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ना जरूरी किया जा रहा है, वे सभी लोग प्राइमरी शिक्षा के खराब स्तर के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। जो लोग जिम्मेदार हैं, सजा उन्हें दी जा सकती है, लेकिन उनके बच्चों को खराब स्कूल में पढ़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। यही नहीं इस पर अमल व्यवहारिक रूप से भी काफी मुश्किल होगा। लेकिन इस फैसले से यह उम्मीद बंधी है कि हो सकता है कि इसी बहाने प्राइमरी शिक्षा की हालत कुछ सुधर जाए।
गौरतलब है कि यू पी में सरकारी प्राइमरी स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती में गड़बड़ियों की शिकायतों की इलाहाबाद हाई कोर्ट में कई याचिकाएं आई थीं। इस पर अपने फैसले में अदालत ने लिखा है कि "सरकारी प्राइमरी स्कूलों की पढ़ाई घपलों-घोटालों और भ्रष्टाचार की शिकार है। स्कूलों में न पीने का पानी है न वाशरूम। पेड़ के नीचे भी पढ़ाई होती है। डीएम ,एस पी के बच्चे इनमें नहीं पढ़ते। इसलिए सरकार से पैसा पाने वाले हर शख्स का बच्चा यहीं पढ़े। जो न भेजें उन पर फाइन लगाया जाए। चीफ सेक्रेटरी इसे 6 महीने में लागू कराएं।
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