Mumbai:
निर्देशक प्रकाश झा नेता भी रहे हैं, इसीलिए उनकी फिल्म 'आरक्षण' में कई जगह नेताओं वाला बैलेंसिंग एक्ट दिखता है। फिल्म के दो मुख्य किरदार अपने-अपने तरीके से शिक्षा में आरक्षण के समर्थक हैं। ईमानदार कॉलेज प्रिंसिपल प्रभाकर आनंद यानी अमिताभ बच्चन और मेहनती दलित टीचर दीपक कुमार यानी सैफ अली खान। लेकिन आरक्षण की सरकारी नीति पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला इनकी जिंदगी बदल देता है। एजुकेशन को बिजनेस मानने वाले भ्रष्ट प्रोफेसर मनोज वाजपेयी और मंत्री प्रभाकर आनंद से हिसाब-किताब बराबर कर लेते हैं। प्रिंसिपल सवर्णों के साथ ही दलितों की नजरों में भी बुरा बन जाता है। शुरुआती 30 मिनट में खास दम नहीं। फिर परदे पर आरक्षण की चिंगारी भड़कती है। दलित और सवर्ण किरदारों को रीप्रेजेंट कर रहे सैफ और प्रतीक बब्बर के किरदारों के बीच आरक्षण पर तीखी बहस होती है। दमदार डायलॉग्स फिल्म को जबर्दस्त ऊंचाई पर ले जाते हैं। हालांकि इनमें भी झा ने बैलेसिंग एक्ट दिखाया। ये तो पहले ही पता था कि फिल्म में आरक्षण को लेकर कोई काल्पनिक या फिक्शन सॉल्यूशन नहीं होगा, लेकिन झा ने जो फिल्म आरक्षण के नाम से बेची, इंटरवेल के बाद उसी फिल्म से आरक्षण का मुद्दा करीब-करीब गायब हो गया। फिल्म कॉलेज प्रिंसिपल के मकान हथियाए जाने की बोरिंग प्रॉब्लम और कोचिंग माफिया से उसकी जंग पर फोकस हो गई। आरक्षण जैसे मुद्दे पर गहराई में उतरने और राजनैतिक पार्टियों की खींचतान दिखाने के बजाय झा को सैफ दीपिका की लव स्टोरी ज्यादा उचित लगी। फिल्म धीमी पड़ गई सो अलग। हेमा मालिनी का गेस्ट अपीयरेंस भी अजीबोगरीब रहा। कैसे 32 साल से गायब एक पावरफुल महिला अचानक प्रगट होकर प्रिंसिपल के एजुकेशन सेंटर को बचा लेती है। कैसे एक बेहद शातिर टीचर क्लाईमैक्स पर मीडिया के सामने अपना दिमागी संतुलन खो बैठता है। अमिताभ, मनोज वाजपेयी, सैफ अली ख़ान के अच्छे परफॉरमेंस। कुल मिलाकर आरक्षण एक एवरेज फिल्म है और इसके लिए मेरी रेटिंग है-2 स्टार...
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