इस शहर को देखने के लिए लगता है एक ही चश्मा बना है। जिस चश्मे से बनारस के घाट दिखते हैं, प्रदूषित और मरनासन्न गंगा जी दिखती हैं, बुनकरों और जुलाहों के बीच फ़र्क करने वाले सवालों के साथ पावरलुम दिखते हैं और कुछ लोग जो पान खाते चाय पीते भी दिखते हैं, जो ख़ुद को जितना बनारसी होने का दावा करते हैं, उससे कहीं ज़्यादा उस एक चश्मे से देखने वाला पत्रकार उनके बनारसीपन को उभारता है।
बनारस हमेशा से तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की निगाह से देखा जाने वाला शहर रहा है। दुनिया के किसी भी धार्मिक महत्व वाले शहर के साथ ऐसा होता है। देखने वाला उस शहर की अन्य वास्तविकताओं को छोड़ उन्हीं प्रतीकों की अराधना में डूब जाता है। पूरा पर्यटन तंत्र भी इन छवियों को एक कारोबार में बदल देता है। पोस्टकार्ड में छपी तस्वीरें सबके लिए प्रमाण बन जाती हैं। कोई इन तस्वीरों से पार जाकर उस शहर को नहीं देखता।
नदी के किनारे किसी भी शहर में जाइये कुछ लोग डुबकी लगाते मिल जाएंगे। श्मशान घाट मिल जाएंगे। काशी इसलिए अलग है क्योंकि यह मोक्ष का मार्ग बताया गया है। जीवन के अंतिम समय में लोग मोक्ष प्राप्ति के लिए यहां आकर बसते रहे हैं। इस चाहत ने बनारस की कुछ कटु वास्तविकताओं को भी जन्म दिया है। विधवाओं की हालत और उनके क़िस्सों के बारे में आप जानते ही हैं।
चुनाव के संदर्भ में टीवी और अख़बार ने इस शहर को श्रृंगार रस में बदल दिया है। पोस्टकार्ड पर छपने वाली उन्हीं चंद तस्वीरों को बार- बार दिखा रहा है। जिनमें बनारस का नया विस्तार नहीं है। शहर और जीवन की विविधता नहीं है। ऐसा लगता है कि मीडिया वहां चुनाव कवर करने नहीं गया है। किसी धार्मिक उत्सव को कवर कर रहा है। इस प्रक्रिया में आप उसी बनारस को जानते हैं, जिसे पहले से जानते आए हैं। बनारस एक शहर के रूप में क्या चाहता है यह मुद्दा नहीं है। सारे कैमरे घाट पर चले जाते हैं। ऐसा नहीं है कि पूरा बनारस रोज़ घाट पर चला आता है। बनारस में ही कई लोग हैं, जिन्हें घाट की तरफ़ गए महीनों हो गए होंगे। बनारसी सिर्फ घाट पर नहीं मिलते हैं।
बनारस के उन गांवों में रहने वाले बनारसी ही हैं, जिनके पास कैमरे नहीं जाते। किसी को यह भी समझने का प्रयास करना चाहिए, बनारस के गांवों के लोग मीडिया और पर्यटन मंत्रालय की बनाई छवियों में अपनी छवि कैसे देखते हैं। बनारस के जीवन में अतिरिक्त और विशिष्ठ मौजमस्ती को देखने वाले पत्रकारों को समझना चाहिए कि जीवन के प्रति मोह और त्याग, हताशा और आशा किसी और शहर में बनारस से कम नहीं है। बनारस सिर्फ घाट नहीं है।
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