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This Article is From Feb 25, 2014

प्राइम टाइम इंट्रो : सेकुलरिज्म के नाम पर गोलबंदी

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार...जब दो सेकुलर दल आपस में लड़ते हुए अपना मकसद सांप्रदायिकता से लड़ना बताएं तो समझिए कि चुनाव आ गया है। सेकुलरिज्म भारतीय राजनीति का वह बुनियादी तत्व है, जिसे सियासी दलों ने फुटबॉल बना दिया है। कभी सेकुलरिज्म के नाम पर मोर्चे बना करते थे, अब इसे लेकर मोर्चा बनाने वाले आपस में लड़ रहे हैं।

दिक्कत यह है कि सेकुलरिज्म का चुनावी जीवन बीमा बांटने वाले दल सिर्फ मुस्लिम समाज के प्रतिनधियों से ही क्यों बात करते हैं। उन्हें ही क्यों आश्वासन देने जाते हैं। क्या आपने कभी ऐसी बैठक देखी है, जिसमें बहुसंख्यक समाज के लोगों को बुलाया गया हो और नेता कह रहे हों कि हमें बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को खत्म करना है। बिना बहुसंख्यक सांप्रदायिकता से लड़े कोई कैसे अल्पसंख्यकों को आश्वासन दे सकता है।

आप इन तस्वीरों में किसी एक पार्टी को मत देखिए। हर दल करीब-करीब यही करते हैं। सांप्रदायिकता के शिकार सिख भी हैं और ईसाई भी हैं। मगर न तो उनसे कोई सर्टीफिकेट लेने जाता है न वह देते नजर आते हैं। इसीलिए कहा कि अगर यह बुनियादी तत्व न होता तो सारे दल दिखावे के लिए ही सही इसकी वकालत न करते। मतलब कि यह जरूरी है और यह भी जरूर है कि इसके नाम पर हेराफेरी ज्यादा हुई है जमीन पर लड़ाई कम।

सोमवार को दिल्ली में अरविंद केजरीवाल भी मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बीच जाते हैं और कहते हैं कि सांप्रदायिकता भ्रष्टाचार से भी बड़ा खतरा है। कहते हैं अगर दंगों में हमारा परिवार खत्म हो गया, तो फिर सब खत्म हो जाता है। मंगलवार को राजनाथ सिंह और अरुण जेटली भी दिल्ली में ही मुस्लिम समाज के प्रतिनिधियों से मिलते हैं। सम्मेलन का नाम है- 'नरेंद्र मोदी मिशन 272 प्लस रोल ऑफ मुस्लिम समिट'।

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कहते हैं कि कलेजे पर हाथ रख कर जो भी बातें हमने रखी हैं, जो भी मन में सवाल पैदा हों आप पूछ लेना कभी भी जहां गड़बड़ हुई, हम लोगों के पार्ट पर भी अगर कोई गड़बड़ या चूक हुई होगी, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि हम शीश झुका कर क्षमा मांग लेंगे।

वैसे आप दशर्क खुद से सवाल कीजिए कि सिख दंगों पर माफी से इंसाफ मिलता है या सजा देने से। क्या गुजरात, दिल्ली, मुजफ्फरनगर दंगों के लिए किसी नेता के माफी मांग लेने से सांप्रदायिकता समाप्त हो जाती है। माफी के नाम पर कहीं एक दूसरे को माफ करने का खेल तो नहीं चल रहा। दंगों में शामिल नेता की तरह राजनीतिक दलों को भी प्रतिबंधित करने का ख्याल कैसा है।

अब चलते हैं पटना, जहां सेकुलरिज्म की लड़ाई एक अज्ञात व ऑटोमेटिक दलबदल के जरिए हो रही है। लालू यादव ने 24 घंटे के भीतर अपने 13 में से 9 विधायकों को खोज निकाला और रिक्शे पर बैठकर कहने लगे कि नीतीश बीजेपी के इशारे पर सांप्रदायिकता के खिलाफ उनकी लड़ाई को कमजोर कर रहे हैं। नीतीश कहते हैं कि वह तो एनडीए-बीजेपी से अलग हुए हैं। सांप्रदायिकता से किसी भी तरह का समझौता नहीं कर सकते। चिराग पासवान कहते हैं कि पिता रामविलास पासवान ने मुझ पर फैसला छोड़ा है। नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट मिल चुकी है।

उधर आज दिल्ली में 11 दल जमा हुए यह कहते हुए कि वे गैर कांग्रेस और गैर भाजपा है। जयललिता की एआईडीएमके, बीजेडी, सपा, जेडीयू और एजीपी। इनके बीच सीटों का समझौता नहीं है। प्रधानमंत्री का उम्मीदवार तय नहीं है, मगर चेन्नई में जयललिता की पार्टी उनका जन्मदिन केक रूपी संसद को काट खाकर मनाती है और प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव पास करती है। ट्विटर से प्राप्त इस तस्वीर में जयललिता प्रधानमंत्री बन चुकी हैं और दुनिया के तमाम राष्ट्र प्रमुख उनको नमस्कार कर रहे हैं। इस पोस्टर में जयललिता के कदमों में श्रीलंका के राष्ट्रपति बैठे हुए हैं। विदेशी नीति भी फाइनल है बस मोर्चे का जीतना बाकी है।

उधर लखनऊ में सपा कहती है कि मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाना है। सपा ने यूपीए से समर्थन वापस नहीं लिया है, मगर मोर्चे में आ गई। प्रकाश करात ने कहा कि बीजेपी की विभाजनकारी सांप्रदायिक नीतियों के खिलाफ हम एक जुट हुए हैं। भ्रष्टाचार और आर्थिक नीतियों के मामले में कांग्रेस और बीजेपी में कोई फर्क नहीं है। शरद यादव ने कहा है कि हम एक हैं और यही पहला मोर्चा है।

क्या यह अच्छा नहीं होता कि इस मोर्चे को विश्वसनीय बनाने के लिए ये सभी 11 दल लिखित हलफनामा देते कि नतीजे कुछ भी आए वे इस गठबंधन को छोड़ कर नहीं जाएंगे। क्या भरोसा जयललिता मोदी के समर्थन में नहीं जाएंगी या क्या भरोसा तीसरे मोर्चे को फेल आइडिया बताने वाली बीजेपी इनमें से किसी से अब समर्थन नहीं मांगेगी। बीजेपी के रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि कुछ लोग जुटते हैं फटे हुए कपड़े की तरह, उसमें सिलाई और मरम्मत करते हैं और चुनाव के बाद फिर टूट जाते है। यही थर्ड फ्रंट है, फेडरल फ्रंट है, न्यू फ्रंट है। देश इससे ऊब चुका है।

वैसे यूपीए और एनडीए भी अपने आप में मोर्चा ही हैं और इनके भीतर भी टूट-फूट होती रहती है। चुनाव के पहले भी और बाद में भी। सांप्रदायिकता से लड़ने का दावा करने वाली ममता मायावती किसी गठबंधन में नहीं हैं। बिना वोटो का बिखराव रोके वैचारिक समथर्नबाजी से ये तमाम सेकुलरदल आपस में भी लड़ते हुए किसकी मदद कर रहे हैं। जनता कैसे पहचाने कि असली योद्धा कौन है, सांप्रदायिकता के खिलाफ.... (पूरा वीडियो देखें)

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