सुशांत सिन्‍हा का ब्‍लॉग : गड़बड़ा गया है बिहार चुनाव का DNA

सुशांत सिन्‍हा का ब्‍लॉग : गड़बड़ा गया है बिहार चुनाव का DNA

नई दिल्‍ली:

किसी चुनाव का DNA क्या होता होगा? ये सवाल यूं ही तो मन में नहीं आया। दरअसल आजकल बिहार चुनाव में इतना DNA-DNA हो रहा है कि ये सवाल भी बिन बुलाए मेहमान की तरह टपक पड़ा।

मोटे तौर पर समझने के लिए मान लीजिए कि DNA यानी Deoxyribonucleic acid दरअसल बॉयोलॉजिकल जानकारियां रखता है और अनुवांशिक अच्छाईयां या बुराईयां आगे बढ़ाता है। यानी आसान है, चुनाव का भी DNA होता होगा तो जो सालों से एक चुनाव की मोटे तौरपर रूप रेखा होती होगी उसे आगे बढ़ाता होगा। यानी, एक विपक्ष हो जो सत्ता पक्ष को गलियाए, सत्ता पक्ष अपनी ख़ूबियां और काम गिनाए और इस सब को सुनकर वोटर वोट डाल आए। लेकिन मोटे तौर पर अगर किसी चुनाव का यही DNA होता है तो बिहार के चुनाव का DNA तो पूरा गड़बड़ा गया लगता है।

अब आप ख़ुद देखिए, जो विपक्ष (लालू यादव) बीते दस साल से सत्ता से बाहर है और उसे कायदे से सबसे ज्यादा सत्ता की कमियां गिनानी चाहिए, वो मन मारकर सत्ता पक्ष की तारीफ़ कर रहा है। RJD के हर नेता ने मन में नीतीश कुमार की सरकार की बखिया उधेड़ने के लिए न जाने कितने अलंकारों से सुसज्जित बयान तैयार रखे होंगे, लेकिन सब धरे के धरे रह गए। सियासत की मजबूरी है कि पार्टी प्रमुख लालू यादव ने चुनाव से ऐन पहले नीतीश कुमार से गलबहियां कर लीं, तो कार्यकर्ता से लेकर प्रवक्ता तक.. सब चाहें न चाहें, नीतीश जी की तारीफ़ में जुटे हैं।

अब बिहार चुनाव के DNA का एक दूसरा गड़बड़ाया पहलू भी समझ लीजिए। दस में से लगभग नौ साल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहे नीतीश कुमार यानी सत्ता पक्ष, अपना काम गिनाने की बजाए ये गिनाने में जुटा है कि केन्द्र में बैठे प्रधानमंत्री जी ने देश की जनता को कैसे ठगा है और अब बिहार को कैसे ठगने की योजना बना रहे हैं। पर उनकी भी मजबूरी है। इन दस सालों की सत्ता में से लगभग आठ साल ऐसे रहे जब बीजेपी नीतीश सरकार का हिस्सा रही।

नीतीश कुमार अगर शुरूआती पांच साल के कामकाज को गिनाते हैं तो सीधे-सीधे आधा श्रेय बीजेपी को भी देना होगा और अगर दूसरे कार्यकाल के पांच साल का हिसाब किताब रखते हैं तो भी बीजेपी के हिस्से का श्रेय सामने आ खड़ा होता है। इतना हीं नहीं, उन जीतन राम मांझी के काम को भी नज़रअंदाज़ करके रिपोर्ट कार्ड बनाना है जो अब NDA का हिस्सा हैं। और इसलिए सत्ता पक्ष यानी नीतीश जी ने ज्यादा ताकत DNA, केन्द्र के पैकेज का गड़बड़झाला और शब्द वापसी जैसे मुद्दों पर झोंक रखी है। इतना ही नहीं, एक दिक्कत और है उनकी कि जिस लालू यादव के जंगल राज से बचाने का मसीहा वो खुद को बताकर लगातार विकास पुरूष का तमगा हासिल करते रहे वो लालू जी भी अब उन्हीं की नाव पर बैठे हैं। मतलब ये कि वो मुद्दा भी गया हाथ से।

उधर, बीजेपी की दिक्कत भी कमोबेश नीतीश जी जैसी ही है। वो नीतीश कुमार के काम को सिरे से खारिज करती है तो उनके साथ रहकर किए खुद के काम को भी नकार देती है। बीते दो साल के काम को खारिज करती है तो फिर उन जीतन राम मांझी के काम को कचरे में फेंक देती है जिसे उसने इस चुनाव में अपना साथी बना रखा है। और अगर केन्द्र के काम को गिनाती है तो लोग पूछ सकते हैं कि अच्छे दिन और काला धन कहां हैं भाई? यानी बीजेपी के लिए नीतीश कुमार को धोखेबाज़ और मौकापरस्त बताकर चुनाव लड़ने के अलावा और क्या विकल्प रह जाता है?

उफ्फ!! कौन कहता है कि शीना वोरा मर्डर केस ही बहुत उलझा हुआ है। बिहार चुनाव में मुद्दों का भी कमोबेश यही हाल है। जो परंपरा का हिस्सा है वो इस बिहार चुनाव का हिस्सा नहीं है। और इसीलिए राजनीतिक रूप से जागरूक माने जाने वाले बिहार के वोटर को समझना होगा कि तकरीबन 61 फ़ीसदी की साक्षरता वाले बिहार में, जहां 40 फ़ीसदी आबादी तो सीधे-सीधे ये नहीं समझती कि DNA होता क्या है और जो बाकि की 61 फ़ीसदी आबादी है उसमें से भी DNA के बारे में जानकारी रखने वालों का भी आंकड़ा बहुत बड़ा नहीं होगा, वहां DNA चुनाव का मुद्दा क्यों बन रहा है या बनाया जा रहा है।

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चुनाव का DNA भले गड़बड़ा रहा हो लेकिन अगर वोटिंग का DNA नहीं गड़बड़ाए और विकास और सिर्फ़ विकास को देखकर हीं वोट पड़ें तो सब खुद ब खुद सुलझ जाएगा।