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Guru Gobind Singh: कौन थे गुरु गोबिंद सिंह? जानिए उनके बारे में सबकुछ

गुरु गोबिंद सिंह जी (Guru Gobind Singh) ने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा करते हुए और सच्चाई की राह पर चलते हुए ही गुजार दिया था.

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Guru Gobind Singh: गोबिंद सिंह ने ही सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया.
नई दिल्ली:

गुरु गोबिंद सिंह जी (Guru Gobind Singh) की आज पुण्यतिथि है. गुरु गोबिंद सिंह सिखों के दसवें गुरु थे. उनका जन्म पटना साहिब में हुआ था. गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh) को ज्ञान, सैन्य क्षमता आदि के लिए जाना जाता है. उनके पिता गुरु तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त 11 नवंबर सन 1675 को वे गुरु बने. उन्होंने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा करते हुए और सच्चाई की राह पर चलते हुए ही गुजार दिया था. गुरु गोबिंद सिंह ने ही सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब (Guru Granth Sahib) को पूरा किया. गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु प्रथा को समाप्त किया और गुरु ग्रंथ साहिब को सर्वोच्च बताया जिसके बाद से ही ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब की पूजा की जाने लगी. साथ ही गोबिंद सिंह जी ने खालसा वाणी - "वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतह" भी दी. खालसा पंथ की की रक्षा के लिए गुरु गोबिंग सिंह जी मुगलों और उनके सहयोगियों से कई बार लड़े.

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खालसा पंथ की स्थापना गुरु गोबिन्द सिंह जी ने 1699 को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में की. इस दिन उन्होंने सर्वप्रथम पांच प्यारों को अमृतपान करवा कर खालसा बनाया और तत्पश्चात् उन पांच प्यारों के हाथों से स्वयं भी अमृतपान किया. खालसा सिख धर्म के विधिवत् दीक्षाप्राप्त अनुयायियों सामूहिक रूप है. उन्होंने खालसा को पांच सिद्धांत दिए, जिन्‍हें 'पांच ककार' कहा जाता है. पांच ककार का मतलब 'क' शब्द से शुरू होने वाली उन 5 चीजों से है, जिन्हें गुरु गोबिंद सिंह के सिद्धांतों के अनुसार सभी खालसा सिखों को धारण करना होता है. गुरु गोविंद सिंह ने सिखों के लिए पांच चीजें अनिवार्य की थीं- 'केश', 'कड़ा', 'कृपाण', 'कंघा' और 'कच्छा'. इनके बिना खालसा वेश पूर्ण नहीं माना जाता. 

गुरु गोबिंद सिंह ने संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी आदि भाषाओं का ज्ञान था.  गुरु गोबिंद सिंह एक लेखक भी थे, उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की थी.  उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया. किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया.

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गुरु गोबिंद सिंह जी मानते थे कि मनुष्य को किसी को डराना नहीं चाहिए और न ही किसी से डरना चाहिए. वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं- ''भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन. वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे.'' उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी. उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है.

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