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7 years ago
नई दिल्ली: मुझसे कहा गया कि संसद ,
देश की धड़कन को प्रतिबिंबित करने वाला
दर्पण है, जनता को  जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?  
या यह सच है कि
अपने यहां संसद तेली की वह घानी है,
जिसमें आधा तेल है और आधा पानी है.
और यदि यह सच नहीं है
तो यहां एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?

क्‍या संयोग है कि यह जिस कवि की कविता है यानी धूमिल, वे मुक्‍तिबोध की तरह नवंबर महीने में जन्‍मे. किसी ज्‍योतिषीय संयोग के नाते नहीं किन्‍तु केवल चार दिन के फर्क के बावजूद दोनों कवियों के मिजाज में भारी समानता है. दोनों ने बहुत कम उम्र पाई. धूमिल मात्र 37 बरस और मुक्‍तिबोध 37 बरस में इहलोक से विदा हो गए. लेकिन आधुनिक कविता के इतिहास में दोनों अपने जुदा तेवर के लिए पहचाने गए. धूमिल ने कविता का इससे पहले का प्रचलित ट्रेंड बदल दिया तो मुक्‍तिबोध ने कविता के माध्‍यम से समाज और सभ्‍यता के अंधकार को लोकेट किया. मुक्‍तिबोध ने नई कव अचरज नहीं कि इन कवियों ने जो लिख दिया वह आज भी प्रासंगिक है. धूमिल के पैदा होने से मात्र दस साल बाद देश को आजादी मिली तो मुक्‍तिबोध के पैदा होने के तीस साल बाद किन्‍तु आजादी व लोकतंत्र के अंधकार को लेकर,उसके मोहभंग को लेकर दोनों कवियों में भयंकर मतैक्‍य-सा है. 

मुक्‍तिबोध लिख रहे थे, 
पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता

तो धूमिल ने लिखा, 
वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं. वे वकील हैं. वैज्ञानिक हैं.
अध्यापक हैं. नेता हैं. दार्शनिक हैं. 
लेखक हैं. कवि हैं. कलाकार हैं.
यानी कि- कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है.

मुक्‍तिबोध ने इसी बात को यों लिखा--
सब चुप, साहित्‍यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिंतक, शिल्‍पकार, नर्तक, चुप हैं

इस तरह हम देखते हैं कि एक तरफ मुक्‍तिबोध की कविता अंधेरे में है तो दूसरी तरफ धूमिल की पटकथा. धूमिल और मुक्‍तिबोध दोनों, पूंजीवाद और बुद्घिजीवियों के दुचित्‍तेपन से अपनी अपनी जगह लड़ रहे थे. क्‍या दिलचस्‍प बात है कि जिस गाय को बचाने के नाम पर गोरक्षकों के दल हाल ही बहुत सक्रिय रहे हैं उसकी आशंका धूमिल ने आज से लगभग पचास साल पहले ही व्यक्‍त कर दी थी.

भूख से मरा हुआ आदमी
इस मौसम का
सबसे दिलचस्प विज्ञापन है 
और गाय सबसे सटीक नारा है

सत्‍तर के दशक के नायक कवि धूमिल, सत्‍तर के दशक की युवा कविता के नायक रहे हैं. अकविता की गैर सामाजिक ज़मीन पर अपनी प्रायोजित कुंठाओं की फसल उगाने वाले कवियों के विरुद्ध धूमिल ने पहली आवाज उठाई और लिखा: कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है. आजादी के बाद उभरे मोहभंग को सटीक भाषा न अकविता दे सकी, न नई कविता के अलंबरदार. धूमिल की काव्‍यभाषा की तल्‍खी से प्रथमद्रष्‍ट्या यह भ्रम जरूर होता था कि वे अकविता के हिमायती कवियों में हैं किन्‍तु जल्‍दी ही उन्‍होंने अराजक होने की मुद्राएं पहचान ली और अपने मुहावरे की तल्‍खी और भाषाई नुकीलेपन के साथ कविता में अलग से लक्षित किये जाने लगे. कविता से उनके सरोकार न केवल भाषाई थे बल्‍कि पतन की ढलान पर अग्रसर मनुष्‍यता को बचा लेने की उनके भीतर गहरी बेचैनी थी. इसीलिए उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंच कर जो कविता उन्‍होंने रुग्‍णता की दशा में भी रची वह यही कहती थी. अक्षरों में गिरे हुए आदमी को पढ़ो. नामवर सिंह कहते हैं, उनका समस्‍त व्‍यवस्‍था विरोध और संघर्ष इसी आम आदमी को बचाने की कोशिश है. 
dhoomil

सत्‍तर के दशक की युवा कविता के नायक रहे घूमिल.


धूमिल 9 नवंबर, 1936 को वाराणसी के गांव खेवली में जन्‍मे और 10 फरवरी 1975 को ब्रेन ट्यूमर की वजह से मात्र 39 साल की अवस्‍था में दिवंगत हुए. यानी वे आज होते तो इक्‍यासी बरस के होते और उसी तरह होते जिस तरह आज हमारे बीच रामदरश मिश्र, नामवर सिंह और विश्‍वनाथ  त्रिपाठी जी हैं. वे होते तो आज की कविता का चेहरा निश्‍चय ही दूसरा होता. वे ट्रेंड सेटर पोएट थे. अपनी राह खुद बनाने वाले. इस छोटी-सी जीवनावधि में उनकी आवाज इतनी प्रभावी थी कि उनकी अनुपस्‍थिति को अनदेखा नहीं किया जा सकता  था. उनके असामयिक निधन पर उस वक्‍त की तमाम पत्रिकाओं  पूर्वग्रह, आलोचना आदि ने विशेष अंक निकाले और आदर से उन्‍हें याद किया. मोहभंग की रोशनी में लोकतंत्र की फीके पड़ते चेहरे की जो पहचान धूमिल ने उकेरी थी उसके अनेक भाष्‍य किए गए. लेकिन आज भी उनकी कविताओं का न कोई सानी है न कोई तोड़. 

शराबी कवियों के बीच असहज : एक घटना 
धुर किसानी चेतना से लैस धूमिल में शहराती पड़ते कविता के मुहावरे को चीर कर कविता के फैब्रिक को नया रूप देने की बेचैनी सर्वाधिक थी. इसीलिए वे कवियों के बीच अपने इसी ईमानदार वैशिष्‍ट्य के कारण तनिक मिसफिट से लगते थे क्‍योंकि वे रसरंजन की तरह कविता को मनोरंजन न मानते थे तथा शराबी कवियों के बीच अपने को पर्याप्‍त असहज महसूस करते थे. यही वजह है कि जब पटना में एक बड़े सम्‍मेलन के बाद अशोक वाजपेयी ने उन्‍हें भोपाल आमंत्रित किया तो उन्‍होंने लिखा था: ''मैंने देखा वहां मांस खाने और उससे खेलनेवाले लोग ही ज्यादातर लोग थे.  आपस में घरेलू होने का नाटक करते थे और पशु की तरह रिश्तों पर घाव करते थे. आत्मीय होने के बखान के साथ बर्बरता से अपमान करने का वह अमानवीय दृश्य देख फिर ऐसे आयोजनों में शरीक होने का गौरव में नहीं जुटा पाऊंगा." एक पत्र में उन्‍हें यह भी स्‍पष्‍ट किया कि, "आप कविता को निजी प्रोटेस्ट मानते हैं और मैं यह मनवाने पर उतारू हूं कि कविता आम आदमी की जिंदगी में भाषा का सार्थक हस्तक्षेप है. मैं मानता हूं कि कविता जीने के कर्म का हिस्सा है." उनके न रहने पर जी ही जाने है आह मत पूछो जैसा मार्मिक संस्‍मरण लिखने वाले काशीनाथ सिंह ने लिखा था: "वे भाषा के बारे में सोचते हुए भाषा को डायनामाइट मानते थे."

कविता की पैकेजिंग के खिलाफ हस्‍तक्षेप
धूमिल अपनी गरबीली गरीबी की आन रखते हुए पटकथा, मोचीराम, भाषा की रात जैसी कविताओं के जरिए मनुष्‍य और समाज के साथ गुज़रती नीच ट्रेजेडीज़ का धारदार वक्‍तव्‍य लिख सके तो इसलिए कि वे खुले हुए कवि थे; भाषाई चाकचिक्‍य से दूर. पर तीखी और तल्‍ख भाषा उनकी कविताओं की जान है. पटकथा को मुक्‍तिबोध की कविता अंधेरे में की भांति ही अपार लोकप्रियता मिली. धूमिल की कविता उस नाराज़ युवा वर्ग की कविता रही है जो जड़ीभूत मूल्‍यों से टकराती है और अपनी बात कहने के लिए एक नई भाषा गढ़ती है. कविता की परंपरागत और परंपराग्रस्‍त भाषा को अपने लिए कतई अपर्याप्‍त मानती है. इसे नई पीढ़ी की असहमति और अवज्ञा का विवेक भी कहा जा सकता है, जिसके चलते धूमिल कविता में मुक्‍तिबोध के लगभग एक दशक बाद विरोध और असहमति का वह हलफनामा लिख सके जो उनके समकालीनों में कोई न लिख सका. मुक्‍तिबोध और धूमिल की लंबी कविताओं के फैशन में बहुत सी लंबी कविताएं लिखी गयीं, आज भी लिखी जा रही हैं. लंबी कविताओं के शिल्प और कथ्‍य विधान का आंदोलन भी चलाया गया किन्‍तु कविता के विकास और मोड़ों को प्रभावित करने में उनका योगदान नगण्‍य-सा लगता है. उनकी भाषा यदि कहीं कहीं शील और संयम के बांध को तोड़ती नज़र आती है तो उसका एक कारण यह भी है कि कविता अब तक जिस फार्मेट में लिखी जा रही थी उसकी शिल्‍पविधि और उसकी पूरी पैकेजिंग के खिलाफ धूमिल की कविता एक जबर्दस्‍त हस्‍तक्षेप है. 
dhoomil

त्रिलोचन अध्याय केंद्र में धूमिल.


बीस साल बाद, जनतंत्र के सूर्योदय में, अकाल दर्शन, एकांत कथा, वसंत, शांतिपाठ, उस औरत के बगल में लेट कर, भाषा की रात, पटकथा और मोचीराम  जैसी कविताओं के आईने में धूमिल की कविताओं में विरोध और संघर्ष को चिह्नित एवं आकलित किया जा सकता है. साठोत्‍तरी कविता जैसे बहु-व्‍यवहृत पद की नींव में धूमिल जैसे कवि ही थे. वे आजादी के बाद के मोहभंग से उपजी कविता का एक नया पाठ तैयार कर रहे थे. उन्‍होंने नेहरु के निधन पर शोकाकुल कविता लिखी पर नेहरूवियन माडल के प्रशंसक नहीं रहे. वे आजादी और गांधी के नाम पर चलने वाले राजनैतिक कारोबार को समझ रहे थे. उनकी कविता में समाजवादी ढकोसलों और प्रजातांत्रिक नुस्‍खों की अप्रतिहत आलोचना मिलती है. वे कविता और राजनीति दोनों में अभिजात प्रवृत्‍तियों के विरोधी थे. उनकी कविता कुलीनता को दूर से ही नमस्‍कार करती है. आजादी के प्रतिफलन को धूमिल ने जिस रूप में देखा उसकी निहायत यथार्थवादी परिणति उनकी कविता में मिलती है, तभी उन्‍होंने लिखा: "गलत होने की जड़ इस समझदारी में है कि वित्‍त मंत्री की ऐनक का कौन सा शीशा कितना मोटा है और विपक्ष की बेंच पर बैठे हुए नेता के भाइयों के नाम सस्‍ते गल्‍ले की कितनी दूकानों का कोटा है."

धूमिल के व्‍यक्‍तित्‍व और कविता दोनों में कहीं लचीलापन नहीं दिखता. कविधर्म के निर्वाह में वे आम नागरिक की बदहाली और अपने किसानी तेवर के साथ अडिग खड़े दिखते हैं. वे अपने समय के काव्‍यांदोलन से गहरे जुड़े थे. संचार की सीमित सुविधाओं के बावजूद धूमिल अपने समकालीनों के लेखन से न केवल सुपरिचित थे बल्‍कि अपने समकालीनों को लिखी चिट्ठियों में कविता के बारे में अपने रुख का इज़हार भी करते रहते थे. बेशक उनकी कविता पर पहला प्रभाव अकविता व भूखी पीढ़ी का पड़ा हो पर धीरे धीरे धूमिल ने ग्राम्‍य जीवन के अपने अनुभव बोध से मुहावरे उठाए और शहराती बोध की कविता का एक विकल्‍प प्रस्‍तुत किया.

धूमिल को थोड़ा ही जीवन मिला, जिसे उन्‍होंने जीवन की सार्थकता में बदल दिया. पर तबादले, घरेलू मुकदमे और बीमारी से वे कल से न बैठ सके. हां, कविता आम आदमी के जीवन के कैसे हस्‍तक्षेप कर सकती है इस बारे में उनका कवि मन अंतिम क्षणों तक सक्रिय रहा. याद है 1997 के आसपास वाराणसी से शिवप्रसाद सिंह, ज्ञानेंद्र पति की अगुवाई में हम कुछ लेखकों का समूह खेवली गया तो यह देख कर अचरज हुआ कि तब तक कोई ठीक ठाक सड़क खेवली तक के लिए न थी. गांव वैसा ही जैसे सारे गांव होते हैं. गांव के बड़े बूढ़ों को आज भी धूमिल की याद है, पर शायद उन्‍हें इसका ठीक ठाक अहसास न हो कि धूमिल ने अपनी कविताओं में खेवली का नाम अमर कर दिया है. प्राय: हर वर्ष 9 नवंबर को साहित्‍यिक लोगों का जुटान होता है. धूमिल को लोग अपनी-अपनी तरह से याद करते हैं. स्‍वयं उनके साहित्‍यिक पुत्र डॉ.रत्‍नशंकर आतिथ्‍य की व्‍यवस्‍था करते हैं. धूमिल के गांव, घर, परिवारजनों और उनकी कविताओं से जुड़े ठीहों के चित्रों की एक प्रदर्शनी भी खेवली में डॉ.सुरेश्‍वर त्रिपाठी लगा चुके हैं. धूमिल की पत्‍नी मूरत जी अभी हैं. उनके बड़े पुत्र रत्‍नशंकर अब वाराणसी में आकर बस गए हैं पर वहीं से खेवली की देख रेख करते रहते हैं और धूमिल की टोह में आने वालों का मार्गदर्शन भी करते हैं. धूमिल की मूल्‍यवान रचनाएं संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे व सुदामा पांडे का जनतंत्र में लगभग प्रकाशित हो चुकी हैं. पर अभी भी काफी कुछ छिटपुट रचनाएं, पत्राचार व डायरी अंश हैं, जिनकी पोटली आज भी रत्‍नशंकर पूरे मन से सहेजे हुए हैं. 

>> डॉ ओम निश्‍चल हिंदी के सुपरिचित कवि गीतकार और आलोचक हैं तथा धूमिल के जीवन और साहित्‍य पर केंद्रित 'हमारे समय में धूमिल शीर्षक आलोचनात्‍मक पुस्‍तक के संचयन-संपादन में संलग्‍न हैं

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