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This Article is From Aug 17, 2018

दूसरों को छोटे होने का एहसास नहीं होने देते थे वाजपेयी...

Kamal Khan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 17, 2018 20:31 pm IST
    • Published On अगस्त 17, 2018 20:31 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 17, 2018 20:31 pm IST
आज वाजपेयी बहुत याद आते हैं. और बहुत सी यादें ऐसी हैं जिन्‍हें याद कर के यकीन नहीं होता कि क्‍या वाकई ये सब हुआ था? 2004 में लोकसभा चुनाव हो रहे थे. वाजपेयी लखनऊ से चुनाव जीत कर तीसरी बार पीएम थे. वो फिर यहां से लोकसभा उम्‍मीदवार थे. लखनऊ के राजभवन में उनकी प्रेस कॉन्‍फ्रेंस थी. इस बार उनकी प्रेस कॉन्‍फ्रेंस के लिए सिक्‍योरिटी काफी सख्‍त थी. राजभवन के गेट से प्रेस कॉन्‍फ्रेंस वेन्‍यू दरबार हॉल तक सात-आठ जगह पत्रकारों की सुरक्षा जांच हो रही थी. कुछ महिला पत्रकारों की ऐसी जांच हो रही थी कि वो बहुत नाराज थीं. वाजपेयी के आने पर प्रेस कॉन्‍फ्रेंस से पहले एक वरिष्‍ठ पत्रकार ने वाजपेयी से इसकी शिकायत की और कहा कि अगर आपकी सुरक्षा को इतना ही खतरा है ता आप दिल्‍ली से वीडियो कॉन्‍फ्रेंसिंग के जरिए प्रेस कॉन्‍फ्रेंसिंग कर लीजिए. लेकिन उन सब पत्रकारों से जिनसे आपके हमेशा रिश्‍ते रहे हैं, उन्‍हें जलील मत करिए. एक अंग्रेजी अखबार की महिला पत्रकार ने उनसे कहा कि महिलाओं की सुरक्षा जांच के कुछ तरीके होते हैं. सुरक्षा के नाम में उन्‍हें कहीं भी हाथ नहीं लगाया जा सकता.

वाजपेयी इस नोंक-झोंक से बिलकुल नाराज नहीं थे. सब बहुत खामोशी से सुनते रहे. उनकी आंखों में तकलीफ थी. उन्‍होंने इसके लिए पत्रकारों से माफी मांगी. और इस घटना पर जांच बिठा दी. फिर सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ. जिनमें तमाम तीखे सवाल भी थे. पाकिस्‍तान में उस वक्‍त मुशर्रफ की हुकूमत थी. चुनाव कवर करने एक पाकिस्‍तानी न्‍यूज चैनल के पत्रकार भी आए थे. वो ये देख के हैरत में थे. उन्‍होंने हमसे पूछा, 'आप लोग वजीर-ए-आजम से ऐसे सवालात करते हैं?' मैंने उनसे कहा, 'जी हां, क्‍योंकि ये पाकिस्‍तान नहीं है.'

मैं आज जब उस वाकए को सोचता हूं तो लगता है कि अब भी ये पाकिस्‍तान नहीं है, लेकिन अब हम वजीर-ए-आजम से सवाल नहीं कर सकते.

1997 में बीजेपी और बीएसपी ने यूपी में गठबंधन सरकार बनाई थी. तय हुआ था कि पहले छह महीने मायावती फिर अगले छह महीने कल्‍याण सिंह सीएम रहेंगे. लेकिन खुद छह महीने सीएम रहने के बाद मायावती ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. बाद में राजनाथ सिंह ने बहुत जोड़-तोड़ कर दूसरे दलों के तमाम विधायकों के समर्थन से कल्‍याण सिंह के नेतृत्‍व में सरकार बनवा दी थी. इस सरकार में तमाम बाहुबली और माफिया कहे जाने वाले नेता मंत्री बन गए थे. इनमें राजा भैया, अमरमणि त्रिपाठी, हरिशंकर तिवारी, प्रेम प्रकाश सिंह जैसे लोग शामिल थे, जिन पर दर्जनों आपराधिक मुकदमे थे. वाजपेयी पीएम थे और जब भी लखनऊ आते तो राजभवन में प्रेस कॉन्‍फ्रेंस करते. मैंने उसने पूछा, 'क्‍या यही पार्टी विद डिफरेंस है, जिसने सत्ता के लिए आपराधिक छवि के एमएलए को ढूंढ-ढूंढ कर मंत्री बना दिया है.' वाजपेयी ने कुछ ऐसे जाहिर किया जैसे वो सवाल सुन नहीं पाए. उन्‍होंने बगल में बैठे केसरीनाथ त्रिपाठी से कहा, 'कमाल क्‍या पूछ रहे हैं?' फिर केसरीनाथ त्रिपाठी ने उनको मेरा सवाल बताया. फिर उन्‍होंने मेरे सवाल का जवाब दिया. ये उनका स्‍टाइल था कि अचानक पूछे गए किसी मुश्किल सवाल का जवाब देने के लिए ऐसा जाहिर करते थे मानो उन्‍होंने सवाल सुना नहीं. और बगल वाले से पूछते थे कि क्‍या पूछ रहे हैं. उतनी देरे में वो उसका जवाब सोच लेते थे... किसी भी मुश्किल सवाल पर न कभी भड़कते थे और न कभी उठकर जाते थे.

वाजपेयी का दिल बड़ा था. आज की तरह वह अपने राजनीतिक विरोधियों को अपना जानी दुश्‍मन नहीं मानते थे. लखनऊ के वरिष्‍ठ पत्रकार ब्रिजेश शुक्‍ला बताते हैं कि उनके गांव में कुछ लोगों ने वाजपेयी जी की एक नुक्‍कड़ सभा रखी. संघ के कुछ लोगों ने उसे यह कह कर रद्द करने की सूचना दे दी कि सभा कराने वाले पुराने कांग्रेसी हैं. पता चला तो ब्रिजेश शुक्‍ला ने वाजपेयी को फोन पर बताया. वाजपेयी ने उनसे कहा, 'कांग्रेसी थे तो क्‍या हुआ. पहले तो पूरा देश ही कांग्रेसी था. तो क्‍या देश छोड़ देंगे. सभा होगी और मैं आऊंगा.'

वाजपेयी मस्‍तमौला इंसान थे. उन्‍हें अपने बड़े होने का गुमान नहीं था. और दूसरों को छोटे होने का एहसास नहीं होने देते थे. 1996 में जब वाजपेयी लखनऊ से चुनाव जीत कर पीएम बनने जा रहे थे हम लोगों ने उनका इंटरव्‍यू किया. तब हाई बैंड कैमरे हुआ करते थे, जिसमें साउंड रिकॉर्डर अलग हुआ करता था. इंटरव्‍यू के बाद पता चला कि साउंड रिकॉर्डिंग में खराबी है. उनके पास वक्‍त कम था थोड़ा खिन्‍न हुए. लेकिन नाराज नहीं हुए. दोबारा इंटरव्‍यू दिया.

1957 में जब वाजपेयी बलरामपुर से चुनाव लड़े तो दाऊद नाम का एक नौजवान उनका फैन हो गया. वो उनके जनसंपर्क में उनका झंडा लेकर आगे-आगे चलता था. रात में देर हो जाती तो वाजपेयी उसे छोड़ने उसके घर जाते. 1977 में जब वाजपेयी विदेश मंत्री बने तो दाऊद उनसे मिलने गया. वो जल्‍दी में थे इसलिए उससे बात करने के लिए उसे कार में बैठा कर ले गए. पीएम बनने के बाद भी वो लखनऊ के अपने मुस्लिम ड्राइवर को पूछा करते थे.

वाजपेयी लखनऊ के खाने के बहुत शौकीन थे. चौक की एक पतली सी गली में 213 साल पुरानी राम आसरे की मिठाई की दुकान है. राम आसरे के पोते सुमन बिहारी कहते हैं, 'वाजपेयी जी को हमारी दुकान का मलाई पान बहुत पसंद था. पहले खुद यहां खाने आते थे, जब पीएम बन गए तो दिल्‍ली मंगवाते थे.' इसी इलाके में राजा की ठंडाई की दुकान पर उनकी महफि‍ल जमती थी. टंडन जी की रसोई में नॉन-वेज पकाने पर प्रतिबंध था. इसलिए वाजपेयी के लिए उनके घर के अलग कमरे में नॉन-वेज पकता था. डिप्‍टी सीएम दिनेश शर्मा कहते हैं, 'उनको खाने की जबरदस्‍त पहचान थी. मिसाल के लिए उनको गोलगप्‍पे खिलाओ तो मुंह में रखते ही कहते, "क्‍या ये सदर के गोलगप्‍पे हैं?" टिक्‍की खिलाओ तो कहते, "क्‍या सागर महाराज की चौक की टिक्‍की है?"

कमाल खान एनडीटीवी इंडिया के रेजिडेंट एडिटर हैं.

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