विज्ञापन
This Article is From Nov 28, 2015

सुशांत सिन्‍हा का ब्‍लॉग : मीडिया देश नहीं चलाता, देश में क्या हो रहा है सिर्फ़ ये बताता है...

Sushant Sinha
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 23, 2015 14:26 pm IST
    • Published On नवंबर 28, 2015 10:52 am IST
    • Last Updated On दिसंबर 23, 2015 14:26 pm IST
कल दोपहर वॉट्सऐप पर एक ग्रुप में एक मेसेज आया। मेसेज एक ऑडियो क्लिप था और नीचे लिखा था कि सुनिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फ़डणवीस आमिर ख़ान वाले विवाद पर कितनी समझदारी की राय ज़ाहिर कर रहे हैं। वक्त नहीं था तो सोचा बाद में सुन लूंगा, लेकिन थोड़ी देर में वही मेसेज चार-पांच ग्रुप पर आ गया तो सोचा सुन ही लूं कि माननीय मुख्यमंत्री जी ने ऐसा क्या कह दिया है जो इतने लोगों को सही लग रहा है और सब सुनना या सुनाना चाह रहे हैं। सुनने बैठा तो पता नहीं चल पाया कि आवाज़ मुख्यमंत्री जी की थी भी या नहीं, लेकिन जिसकी भी आवाज़ थी वो ये बता रहा था कि कैसे आमिर ख़ान का विवाद मीडिया की वजह से पैदा हुआ और सिर्फ़ आमिर ख़ान का विवाद ही नहीं बल्कि देश में असहनशीलता का मुद्दा भी मीडिया की वजह से ही है।

ऑडियो रिकॉर्डिंग सुनकर ज़्यादा आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि ये आजकल का लेटेस्ट ट्रेंड है- 'सब मीडिया की गलती है और सब मीडिया की वजह से है।' हर कुछ दिन पर ऐसे मेसेज आना, सोशल मीडिया पर न्यूज़ चैनल्स को कैसे, कब, क्या ख़बर दिखानी चाहिए, इसका मार्गदर्शन मिलना या फिर किसी पार्टी या फ़ंक्शन में जाने पर भी कुछ लोगों का मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाना आजकल बहुत आम हो गया है।

शुरू में कुछ दिन तो लगा कि ऐसा क्यों हो रहा है? जिस मीडिया की वजह से देश के कई बड़े-बड़े घोटाले सामने आए, कई लोगों को उनकी आवाज़ बुलंद करने का मौका मिला। अन्‍ना आंदोलन को मिला मीडिया कवरेज ही था कि पूरा देश उससे जुड़ गया और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ देशभर में आवाज़ बुलंद हुई। निर्भया कांड के बाद लोगों की भावनाओं को मिला कवरेज ही था कि सरकार को नया क़ानून लाना पड़ा और ऐसे न जाने कितने ही उदाहरण हैं और होंगे, लेकिन फिर भी लोगों के अंदर ये भावना क्यों है कि सब मीडिया की गलती है या मीडिया ज़िम्मेदार नहीं है?

इसमें दो राय नहीं कि कुछ न्यूज़ चैनल्स को उनके कंटेंट के कुछ हिस्से पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है, लेकिन मोटे तौर पर तमाम अख़बारों और न्यूज़ चैनल्स को आप मिला दें तो स्थिति इतनी भयावह नहीं है जितनी इस नए ट्रेंड के बारे में सोचकर लगती है।

और एक सच ये भी है कि सारे लोग अभी इस ट्रेंड के शिकार भी नहीं हुए हैं, लेकिन जो हुए हैं उसके पीछे की एक वजह उनके अंदर घर कर चुकी निराशा है। इस निराशा का शिकार पहले पॉलिटिशियन या नेता होते थे। लोगों को लगता था कि इस देश में सबकुछ नेताओं की वजह से ख़राब है या सुधर नहीं रहा, लेकिन फिर धीरे-धीरे ये सवाल सामने आकर खड़ा होने लगा कि अगर सब नेताओं की वजह से है तो उस वोटर की वजह से क्यों नहीं जो इन नेताओं को चुन रहा है? अगर आपराधिक छवि वाले नेता चुने जा रहे हैं, जाति को ध्यान में रखकर नेता चुने जा रहे हैं, अगर परिवारवाद को बढ़ावा मिल रहा है तो इस सब के लिए उस वोटर की ज़िम्मेदारी क्यों नहीं जो इन्हें चुन रहा है? हर चुनाव में वोटिंग प्रतिशत बहुत ज्यादा भी हुआ तो 60-65 फ़ीसदी होता है, तो फिर ज़िम्मेदारी उनकी क्यों नहीं जो वोट देने तक नहीं जाते, लेकिन सवाल उठाने वालों की लाइन में सबसे आगे खड़े होते हैं।

इस सवाल की चुभन इतनी थी कि निशाने पर मीडिया आ गया। आरोपों के तीर मीडिया पर छोड़े जाने लगे कि मीडिया ही सब बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता है, इसलिए ऐसा हो रहा है। हालांकि हम पत्रकारों को ऐसे आरोपों की आदत है, क्योंकि नेता भी अमूमन यही कहते हैं जब उनसे पूछे जाने वाले सवाल उन्हें चुभने लगते हैं या फिर दूसरा जवाब होता है कि 'बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया'। देश को बदलने की ज़िम्मेदारी का हिस्सा न बनने वाले ज्यादातर लोग अपनी ज़िम्मेदारी न निभाने का अंतर्मन में उठ रहा सवाल मीडिया को भला-बुरा बताकर शांत कर लेते हैं। कमोबेश वैसे ही जैसे बंगलुरू और मुंबई में बैठे लोग बिहार वोट डालने तो नहीं गए, लेकिन लालू यादव की जीत की निराशा अगर उनके मन में थी तो उस जीत के लिए जिन्होंने वोट दिया उनको नासमझ बताकर अपनी भड़ास निकाल ली। मीडिया भी भड़ास निकालने का ज़रिया बन गया है।

एक वजह ये भी है कि दर्शक 'जो' कंटेंट 'जिस वक्त' देखना चाहता है अगर वो उसे उस वक्त नहीं मिलता तो उसके लिए मीडिया का हर कंटेंट फालतू हो जाता है। जो ख़बर एक दर्शक वर्ग को उसके मतलब की न लगती हो, वही ख़बर दूसरे दर्शक वर्ग के लिए सबसे अहम हो सकती है, ये भी याद रखा जाना चाहिए। इतना ही नहीं, अगर कोई ख़बर उस नेता या व्यक्ति को सवालों के कटघरे में खड़ा कर रही हो, जो दर्शक की पसंद का है तो उस दर्शक के लिए उस ख़बर को दिखाने वाला चैनल या अख़बार बिका हुआ या बायस्ड हो जाता है।

न्यूज़ चैनल्स को समाज सेवी संगठन समझने वाले ये ज़रूर याद रखें कि न्यूज़ चैनल्स की अपनी सीमाएं होती हैं। हर न्यूज़ चैनल को कर्मचारियों की तनख्वाह से लेकर चैनल चलाने तक के लिए हर महीने करोड़ों ख़र्च करने पड़ते हैं और सच्चाई ये है कि चैनल या अख़बार को कोई सरकारी आर्थिक मदद नहीं मिल रही होती। ऐसे में टीआरपी-ऐड और सामाजिक ज़िम्मेदारी के बीच एक संतुलन बनाने की ज़िम्मेदारी निभानी होती है जो कई चैनल्स बखूबी निभा रहे हैं। बीते 13 साल से पत्रकारिता करते हुए मैंने महसूस किया है कि न्यूज़ चैनल्स में भी ज़िम्मेदारी का भाव घटने की बजाए बढ़ा है। अपवाद हर जगह मिल जाएंगे, लेकिन आंकलन का दायरा बड़ा रखा जाए तो कमोबेश हर मीडिया हाउस ख़बर से मुंह मोड़े हो, ऐसा नहीं है। नेताओं से लेकर अधिकारियों तक में ज़िम्मेदारी का एक भाव लाने में मीडिया की भी भूमिका है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। दर्शक के पास आज विकल्प है और उस विकल्प का इस्तेमाल करने की पूरी छूट भी है उसके पास, लेकिन हर बात के लिए और देश की हर छोटी-बड़ी समस्ता के लिए मीडिया को ज़िम्मेदार बताकर अपनी ज़िम्मेदारी पर पर्दा डालने से बचना होगा। मीडिया देश नहीं चलाता, देश में क्या हो रहा है सिर्फ़ ये बताता है।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
मीडिया, जनता, न्‍यूज चैनल, अखबार, सोशल मीडिया, Media, Public, News Channels, Newspapers, Social Media
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com