यूपी चुनाव में जितने भी वादे किए गए थे, उनमें सबसे साफ व नापतोल के लायक वादा किसानों की कर्ज़ माफी का ही था...
उत्तर प्रदेश में किसानों की कर्ज़ माफी एक नया झंझट बनकर खड़ी होने वाली है. उत्तर प्रदेश चुनाव में जितने भी वादे किए गए थे, उनमें सबसे साफ और नापतोल के लायक वादा कर्ज़ माफी का ही था. कब्रिस्तान, श्मशान या तीन तलाक या धर्म के आधार पर भेदभाव जैसी बातें कितनी भी भावनात्मक हों, उन्हें पूरा करने में सरकार की कोई बड़ी भूमिका नज़र नहीं आती. ये काम ऐसे हैं कि कुछ करते दिखने-भर से काम चल सकता है, सो, यह काम चिरंतन चलता रह सकता है. ऐसे काम पूरे पांच साल गुज़र जाने के बाद भी चलते रह सकते हैं. इतना ही नहीं, यह काम पूरा हुए बिना भी दावा किया जा सकता है कि सरकार ने जो वादे किए थे, उन पर उसने लगातार काम किया, लेकिन कर्ज़ माफी किसानों के लिए जीवन-मरण का मुद्दा था, लिहाज़ा इसे भुलाया जाना या दाएं-बाएं किया जाना बहुत मुश्किल है.
सबसे आकर्षक वादा यही था...
कर्ज़ माफी का वादा कितना आकर्षक और महत्वपूर्ण था, इसका पता इस बात से चलता है कि उत्तर प्रदेश चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने शुरू में अपने वादों की लिस्ट में नहीं रखा था, लेकिन बहुत जबर्दस्त बात लगने के कारण इसे बाद में वादों की सूची में डाल लिया. दरअसल, सबसे पहले इसे सपा-कांग्रेस गठबंधन की तरफ से लाया गया था और इसके हद से ज़्यादा आकर्षक होने के कारण बीजेपी ने इसे ज़्यादा तरजीह देकर जनता के सामने रख दिया था. वैसे मूल रूप से इसे उत्तर प्रदेश चुनाव की तैयारियों में सबसे पहले राहुल गांधी की किसान यात्रा में लाया गया था.
बीजेपी ने प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर दिखाया...
किसानों की कर्ज़ माफी का वादा पूरा करने की विश्वसनीयता के लिए बीजेपी की ओर से खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह भी वादा कर दिया था कि उत्तर प्रदेश में सरकार बनने के फौरन बाद, यानी कैबिनेट की पहली ही बैठक में सबसे पहले कर्ज़ माफी का काम किया जाएगा. हालांकि सरकार बने अभी जुम्मा-जुम्मा हफ्ताभर हुआ है, सो, फिलहाल सरकार कह सकती है कि इतनी जल्दी भी क्या है...? लेकिन यह प्रत्यक्ष है कि इस वादे को पूरा करने में अभी से अगर-मगर होने लगी है. मसलन, स्टेट बैंक और रिज़र्व बैंक के ज़रिये किसानों की कर्ज़ माफी के खिलाफ बुलवाया जाना इस वादे को पूरा करने में टालमटोल की तैयारी जैसा दिखने लगा है.
अब उत्तर प्रदेश की माली हालत की बातें...
सीधे-सीधे उत्तर प्रदेश की नई सरकार की तरफ से यह बात भले नहीं हो रही हो, लेकिन सरकार के पैरोकार, खासतौर पर मीडिया के एक वर्ग की तरफ से ये बातें की जा रही हैं कि उत्तर प्रदेश का राजस्व ही साढ़े तीन लाख करोड़ है और कर्ज़ माफ किए गए तो राज्य सरकार के 28,000 करोड़ रुपये अकेले इसी मद पर खर्च में निकल जाएंगे. यानी, मसला यह बनाया जा रहा है कि एक प्रदेश के लिए राजस्व का आठ फीसदी का खर्च किसानों की कर्ज़ माफी पर करना कैसे संभव होगा. उठाई जा रही ऐसी बातों पर सत्तारूढ़ दल या सरकार की तरफ से कोई साफ-सफाई न आना शंकाएं तो पैदा करता ही है.
...तो क्या वादा करते समय नहीं सोचा...?
जो लोग कर्ज़ माफी के वादे में तरह-तरह की अड़चनों की बातें कर रहे हैं, उन्हें याद दिलाया जाना चाहिए कि यह वादा किसी गैर-ज़िम्मेदार ज़ुबान से नहीं किया गया था. खुद प्रधानमंत्री की तरफ से हुआ था. वह पूरे देश के सर्वेसर्वा हैं. उन्हें प्रधानमंत्री पद का तीन साल का अनुभव हो चुका है. तीन साल पहले लोकसभा चुनाव लड़ते हुए जो वादे किए गए थे, उन्हें पूरा करने में क्या अड़चनें आईं, यह उन्हें और पूरे सरकारी अमले को अच्छी तरह पता मालूम था. लिहाज़ा यह नहीं माना जा सकता कि उन्हें पता नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश के किसानों की कर्ज़ माफी के लिए पैसे का प्रबंध कहां से होगा. खैर, इस बारे में फिलहाल और ज्य़ादा बात करना बेकार है. अब यही सोचा जाना है कि अगर यह वादा हो ही गया था, तो वह क्या तरीका है, जिससे किसी तरह यह काम निपट जाए.
आसान नहीं होगा इस वादे से मुकरना...
चुनावों में आजकल जितने भी वादे किए जाते हैं, वे अलग-अलग तबकों को खांचों में बांटकर ही होते हैं. कृषि और उद्योग का खांचा पहले से बना चला आ रहा है. युवकों के लिए रोज़गार पैदा करना तीसरा खांचा है. अकेले कृषि क्षेत्र में खेत का मालिक किसान और खेतिहर मजदूर के अलग-अलग खांचे हैं. इनमें भी ग्रामीण बेरोज़गारों को अलग करके उनसे वादे अलग से होते हैं. उस तरफ उद्योग जगत में तो काम-धंधों के प्रकार के लिहाज से किस्म-किस्म के उद्योगपतियों और व्यापारियों के अनगिनत वर्ग बना दिए गए हैं. उन्हें बैंकों से कर्ज़ दिलाने, उनकी सुरक्षा और उनके लिए आधारभूत ढांचा खड़ा करके देने के वादे होते हैं और सरकारें अन्यान्य कारणों से वाकई उन्हें पूरा भी करती हैं और बड़े चाव से पूरा करती हैं. लेकिन किसान से सरकार को वोट के अलावा ज़्यादा कुछ मिलने की गुंजाइश नहीं होती, सो, उनकी उपेक्षा किया जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि देश में किसानों की आबादी अभी भी 50 फीसदी से ज़्यादा है. यानी, अगर संक्षेप में कहें तो अपने लोकतांत्रिक देश का प्रतिनिधित्व आज भी किसान ही करते हैं. यह और बात है कि भोजन के उत्पादक इस किसान को देश की आर्थिक प्रगति या विकास या वृद्धि का भागीदार मानने से इंकार किया जाने लगा है.
बिल्कुल आज की परिस्थिति देखें, तो...
एकदम आज को देखें तो इस साल सूखा न पड़ने से देश में फसल अच्छी होती दिख रही है. खेती-किसानी में चूंकि सब कुछ निजी ही है, सो, वे अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिए अभिशप्त हैं. इस बार नोटबंदी के भयानक दौर में बीज, खाद, आधुनिक यंत्रों से जुताई-सिंचाई के लिए ज़्यादातर कर्ज़ा लेकर ही काम निपटाया गया, लेकिन इस वस्तुस्थिति में यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि यही किसान पिछले दो साल से बिगड़े मानसून के कारण कर्ज़ों से लदे पड़े थे. पिछले साल औसत किसान को अपने खाने के ही लाले पड़े थे. उत्तर भारत में पिछले तीन साल से गांवों में हालात भयावह हैं. इसी बीच उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए. ज़ाहिर है, किसानों का, यानी प्रदेश की आधी से ज़्यादा आबादी का मुद्दा बाकायदा चुनावी मुद्दा था.
वैसे राहुल गांधी क्या करते...
कर्ज़ माफी के वादे के जनक राहुल गांधी ने जब सबसे पहले किसान यात्रा में यह वादा किया था, तो फौरन ही उनसे पूछा जा सकता था कि यह काम वह करेंगे कैसे...? लेकिन उनसे नहीं पूछा गया. बल्कि दूसरे दलों ने भी यह वादा अपने वादों में शामिल कर लिया, लेकिन उनसे अगर वाकई पूछ ही लिया जाता तो वे केंद्र में सत्तारूढ़ रही अपनी यूपीए सरकार के दौरान किसानों के 75,000 करोड़ रुपये की कर्ज़ माफी की नज़ीर पेश कर रहे होते. कोई अगर यह पूछ रहा होता कि तब तो आप केंद्र में थे और सक्षम थे, सो, आप यह वादा पूरा कर पाए थे, लेकिन उत्तर प्रदेश में यह काम कैसे करेंगे...? संभवतया, उनका जवाब होता कि उत्तर प्रदेश का बजट देश के कुल बजट का छठवां हिस्सा है, लिहाज़ा, प्रदेश के बजट से आठ फीसदी पैसा अपने ही प्रदेश के किसानों के लिए निकालने में कौन-सी अड़चन आएगी. और वैसे भी कांग्रेस ने अपना पूरा ध्यान इस बार किसान और गांव पर ही लगाया था, सो, उसे सिर्फ छोटे किसानों का कर्ज़ ही क्या, बल्कि मंझोले किसानों का कर्ज़ माफ करने में कोई हिचक नहीं होती. भले ही झक्के-मक्के के कुछ काम उसे छोड़ने पड़ते.
बड़ा है वादों की विश्वसनीयता जांचने का सवाल...
काला धन बरामद कर हर-एक के खाते में 15 लाख रुपये डलवाने और हर साल दो करोड़ रोज़गार पैदा कर देने के वादे ने चुनावी वादों की विश्वसनीयता पर सोचने को मजबूर कर दिया था. अब किसानों की कर्ज़ माफी पर टालमटोल ने इस सवाल को और गहरा दिया है. वैसे इस सवाल पर एक शोधपरक आलेख NDTVKhabar.com के इसी स्तंभ में बिहार चुनाव के दौरान लिखा गया था. यह आलेख आज भी प्रासंगिक है... यानी आने वाले समय में मीडिया के लिए एक और काम बढ़ गया है कि वह अपने ग्राहकों यानी मतदाताओं से किए ढेरों चुनावी वादों की संख्या से अवगत कराएं, चुनावी वादों की नापतोल करके बताएं, यह भी बताएं कि ये वादे हासिल होने लायक हैं भी या नहीं...? और इन वादों के पूरा होने की समयबद्धता क्या है...? यानी आगे से यह सब बातें मीडिया को समझानी पड़ा करेंगी. यह काम अगर खुद मीडिया के बस का काम न भी हो तो हर क्षेत्र के विशेषज्ञों के साथ हमारे पास प्रबंधन प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों का एक बड़ा भारी अमला आज उपलब्ध है. ये विद्वान और विशेषज्ञ अगर मतदाताओं को जागरूक करने में अपनी विशेषज्ञ सेवाएं दें, तो उनकी वैसी सेवा को उनकी देशभक्ति का सर्वोत्कृष्ट रूप मानने में कोई ऐतराज़ नहीं होना चाहिए.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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