कुछ महीने पहले की ही तो बात है. फिल्म 'पद्मावत' ने कई महीने तक बखेड़ा खड़ा किए रखा. मसला यह था कि क्या किसी ऐतिहासिक चरित्र को नई कथा में ढाला जा सकता है. खैर, जिन्होंने विवाद खड़ा किया, उन्हें क्या और कितना हासिल हुआ, इसका पता नहीं चला. आखिर मामला सुलटा लिया गया. फिल्म रिलीज़ हुई. लेकिन साहित्य जगत में एक सवाल ज़रूर उठा और उठा ही रह गया कि क्या ऐतिहासिक चरित्रों के साथ उपन्यासबाजी या कहानीबाजी की जा सकती है, या की जानी चाहिए, या नहीं की जानी चाहिए...? कला या अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर क्या किसी ऐतिहासिक चरित्र को वैसा चित्रित किया जा सकता है, जैसा वह न रहा हो...? यह सवाल भी कि क्या कोई कलाकार किसी का चरित्र चित्रण ग्राहक की मांग के आधार पर कर सकता है...?
बहरहाल फिल्म 'पद्मावत' विवाद के दौरान इसी स्तंभ में एक आलेख (फिल्म 'पद्मावत' से बड़ी मुश्किल में चारों राज्य सरकारें...) लिखा गया था. लेकिन उस समय हिस्टोरिक फिक्शन, यानी ऐतिहासिक कथा साहित्य की ही चर्चा हो पाई थी. इधर, इस समय हवा में एक और किस्सागोई या उपन्यासबाजी तैरने को तैयार है. देश में चुनावी माहौल बनाए जाने के बीच 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' नाम की इस रचना को किस श्रेणी में रखा जाएगा, यह अभी तय नहीं किया जा सकता, क्योंकि फिल्म अभी बाज़ार में भेजी नहीं गई. बाज़ार में उतारने से पहले इसके प्रोमो, यानी विज्ञापित करने की प्रकिया शुरू हुई है. विज्ञापन के रूप मे फिल्म का ट्रेलर जारी हुआ है और बाकायदा देश में सत्तारूढ़ पार्टी के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से शेयर हुआ है. यानी कुछ लक्षण दिख रहे हैं कि इस फिल्म का राजनीतिक पहलू एक बखेड़ा खड़ा करेगा. अंदेशा जताया जाने लगा है कि प्रतिद्वंद्वी राजनेताओं के चरित्र चित्रण को लेकर विवाद होगा.
फिल्म की श्रेणी को लेकर गुलगुच्च मचेगी...
बनाने वालों ने इसे राजनीतिक फिल्म कहना शुरू किया है. राजनीतिक फिल्म होती क्या है, इस बारे में ज़्यादा ज्ञान उपलब्ध नहीं है, इसीलिए गुलगुच्च, यानी भ्रमपूर्ण बहस शुरू हो जाती है. हां, राजनेताओं की आत्मकथा या जीवनी के आधार पर बायोपिक ज़रूर बनती हैं, लेकिन आमतौर पर ख्यातिलब्ध व्यक्तियों के जीवन के उजले पहलुओं पर ही बनती हैं. लेकिन किसी राजनेता को कमतर साबित करने के लिए या उसके दोष का प्रचार करने के लिए बनने वाली फिल्मों को क्या कहा जाना चाहिए, अभी इस पर ज़्यादा सोचा नहीं गया. अपने देश में तो इसका ज़्यादा चलन नहीं हुआ, लेकिन विश्व की महाशक्तियों के बीच जब शीतयुद्ध चलता था, तब ज़रूर प्रतिद्वंद्वी देश एकदूसरे के नेताओं की छवि बिगाड़ने के लिए उपन्यास लिखवाने में दिलचस्पी लेते थे. बाकायदा नेताओं के वास्तविक नाम से पात्र हुआ करते थे और काल्पनिक संवादों के ज़रिये कलाकार लेखक अपनी मर्जी से उनका चरित्र चित्रण करता था.
ऐसी रचना को साहित्य जगत में हिस्टोरिक फिक्शन कहा जाता है. यह लेखक की गुणवत्ता पर निर्भर करता है कि ऐतिहासिक कथा साहित्य को किस हद तक इतिहास की तरह या वास्तविक घटना के रूप में रंगित-चित्रित कर पाता है. अगर याद करें, तो रूस के एक लेखक एलेक्ज़ेंडर सोल्झेनित्सिन को तो एक हिस्टोरिक फिक्शन 'गुलाग आर्कीपेलागो' के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था, लेकिन वह उपन्यास एक उत्कृष्ट कथा साहित्य के रूप में प्रसिद्ध हुआ था. विश्व के साहित्य पाठकों ने भी उसे इतिहास की बजाय एक कथा की ही तरह पढ़ा था. अब यह अलग बात है कि उस उपन्यास को भी राजनीतिक तौर पर नुकसानदेह माना गया और लेखक को जीवनपर्यंत देशनिकाले का दंड भोगना पड़ा था. हालांकि यह भी अलग बात है कि 'गुलाग' जैसी रचनाओं का ज़िक्र किसी तात्कालिक लाभ के लिए लिखे गए उपन्यास या किसी राजनीतिक फिल्म की चर्चा के दौरान करना ठीक नहीं. वैसे भी तात्कालिक मूल्य की रचनाओं की उम्र ज़्यादा नहीं होती.
क्या फिक्शनल हिस्ट्री भी श्रेणी बन सकती है...?
यह दुविधा हमेशा से रही है कि इतिहास को कल्पना के आधार पर रचने वाले साहित्य को क्या कहा जाए. आजकल अंग्रेज़ी साहित्य में फिक्शनल हिस्ट्री, यानी कथात्मक इतिहास जैसा शब्द-सायुज्य गाहे-बगाहे सुनने को मिलता है. लेकिन पता नहीं क्यों, इसकी ज़्यादा चर्चा नहीं होती. संजय बारू की किताब 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' ज़्यादा चर्चा में नहीं आ नहीं पाई थी और थोड़ी ही देर में गायब भी हो गई, लेकिन अब जब उस किताब के आधार पर बाकायदा एक फिल्म बनाई या बनवाई गई है, तो हो सकता है, इस बारे में थोड़ी देर तक फिर चर्चा हो जाए. लेकिन अनुभव बताता है कि इस तरह की किताबों या फिल्मों में आम पाठकों या दर्शकों में कोई रुचि होती नहीं है, लिहाज़ा उन्हें विज्ञापन की तरह ही ठेलना पड़ता है.
लगे हाथ राजनीतिक कार्टून फिल्मों की बात भी कर लें...
आमतौर पर टीवी चैनलों पर रोज़ ही कोई न कोई राजनीतिक कार्टून फिल्म ज़रूर दिख जाती है. साहित्य जगत में इसे किस श्रेणी में रखा जाए, यह अभी तय नहीं हुआ है. मिनट-दो मिनट की इन फिल्मो में राजनेताओं को कार्टून बनाकर जिस तरह दिखाया जाता है, वह देखने में वाकई कलात्मक लगता है. लेकिन ये कार्टून फिल्में भी दर्शक समाज में राजनेताओं के प्रति अच्छी-बुरी धारणा बनाती हैं. खासतौर पर किसी राजनेता को हास्यास्पद रूप से चित्रित कर उसकी छवि बिगाड़ने का अंदेशा हमेशा बना ही रहता है. लेकिन कार्टून फिल्में भी एक कलारूप हैं ही, सो, मनोरंजन के नाम पर उन्हें चुपचाप स्वीकारने के अलावा चारा ही क्या है.
और अगर राजनेता मनोरंजन के साधन बनाए जाने लगें, तो...
इस समय तक दुनिया की दसियों राजव्यवस्थाओं के बीच लोकतंत्र को सबसे ज़्यादा निरापद, यानी सबसे कम हानिकारक राजव्यवस्था माना जाता है. दुनियाभर के घोर अलोकतांत्रिक शासक भी खुद को लोकतांत्रिक साबित करने में लगे दिखते हैं. यानी लोकतंत्र की स्वीकार्यता को लेकर कोई शक बचता ही नहीं. लोकतंत्र में सबको बराबरी और सबको अभिव्यक्ति की आज़ादी सुनिश्चित है. कुछ मामलों में अगर सबको यह आजादी न भी सुलभ हो, तो कम से कम पत्रकार, चित्रकार, लेखक, उपन्यासकार यानी कलाकारों को तो यह आजादी होती ही होती है. लेकिन किसी लोकतांत्रिक राजव्यवस्था में अगर राजनेताओं को राजनीतिक मकसद से हास्य या घृणा या मनोरजंन का पात्र बनाया जाने लगे, तो इस पर विद्वानों को अभी से सोचना शुरू कर देना चाहिए.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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