एक ईमेल आया है कि अगर मैं स्कूलों पर जनसुनवाई एक महीना तक करता रहूं तब भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि स्कूल नेताओं और अधिकारियों के होते हैं. अदालतों के आदेश भी नहीं मानते. मैं स्वीकार करता हूं कि उनकी यह बात सही है, लेकिन आज न कल नेताओं को स्कूलों की मनमानी के सवाल पर आना होगा. भले ही उनकी पार्टी के नेताओं के स्कूल चलते हैं और वहां से काले धन की सप्लाई होती है लेकिन जिस तरह से देश भर में अभिभावक संघ सक्रिय हो रहा है, यह बहुत दिन तक चलेगा नहीं. हमारे पास जो ईमेल आ रहे हैं उसमें प्राइवेट स्कूलों को लेकर नए-नए शब्द जुड़ते जा रहे हैं.
हमने कई ईमेल पढ़े हैं. उन्हें अगर कोई नेता पढ़ रहे हैं और स्कूलों की मनमानी की राजनीति शुरू कर दे तो काफी लोकप्रिय हो सकता है. इन ईमेल को पढ़ते हुए पता चल रहा है कि मां-बाप चुप नहीं हैं. वे ज़िलाधिकारी से लेकर मुख्यमंत्री, न्यायाधीशों से लेकर प्रधानमंत्री तक को पत्र लिख रहे हैं. कार्रवाई नहीं हो रही है, वो अलग बात है. आदेश पारित होते हैं मगर लागू नहीं होते लेकिन ऐसा नहीं है कि मां-बाप स्कूलों की इस ग़ुलामी से मुक्त नहीं होना चाहते हैं. ईमेल को पढ़कर लगा कि मां-बाप पर वाकई आर्थिक दबाव है. प्राइवेट जॉब में उनकी सैलरी अब कम रफ्तार से बढ़ रही है मगर स्कूलो में फीस बढ़ने की रफ्तार काफी तेज़ है. इसलिए कई मां बाप समय पर दो बच्चे की फीस नहीं दे पाते तो लेट फीस भरनी पड़ती है. हमें बहुत से ईमेल लेट फीस को लेकर मिले हैं.
पंजाब के नवांशहर, राजस्थान की बूंदी, बिहार के किशनगंज, डुमरियागंज, गया, सासाराम, मुज़फ्फरपुर से पत्र आए हैं. बंगाल के कोलकाता, आसनसोल से भी कई लोगों ने ईमेल किया है. विशाखापट्टनम से भी पत्र आ रहे हैं. ओडिशा के बरहामपुर, बारगढ़ से ईमेल आए हैं. राजस्थान के झुंझनू से भी पत्र आया है. दिल्ली के तकरीबन हर इलाके से ईमेल आया है. यूपी के रेणुकूट, नवाबगंज, पीलीभीत से पत्र आया है. इन पत्रों को पढ़ कर लगा रहा है कि दिल्ली से लेकर झुंझनू और बरहामपुर से लेकर बस्तर तक के स्कूलों की फीस में कोई अंतर नहीं रह गया है, जबकि इन जगहों पर कमाई में अंतर आ जाता है. ज़ाहिर है मां बाप पर दबाव बढ़ेगा ही. सरकारें इनकी समस्या को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती हैं.
बिहार के किशनगंज से गौतम ने लिखा है कि फीस से तंग आकर बच्चे को प्राइवेट स्कूल से हटा ही लिया. कई जगहों पर मां बाप को स्कूल बदलना पड़ा है लेकिन उसमें भी दिक्कत आई है. पूरे तीन महीने की फीस जमा कराई गई है तब जाकर ट्रांसफर सर्टिफिकेट दिये गए हैं. ये सब लोगों के ईमेल में है. एक पत्र आया है कि 2013 में कॉशन मनी के तौर पर 44000 रुपये जमा कराए थे. लेकिन फीस बढ़ने के कारण जब स्कूल बदलने का फैसला किया तब सिर्फ 6000 ही लौटाए गए. 38,000 रुपये एडमिशन फी के नाम पर स्कूल ने काट लिये. एडमिशन के समय कहा गया था कि कॉशन मनी पूरा वापस होगा.
यह सही है कि मां बाप इसकी शिकायत करते हैं मगर सुनवाई नहीं होती। स्कूलों के बाहर प्रदर्शन भी कर आते हैं मगर कोई नहीं सुनता लेकिन लूटे के यो किस्से हैं उसे अच्छे प्राइवेट स्कूल के नाम पर सही नहीं कहा जा सकता है. कुछ नहीं हो सकता तो इन्हें सुना ही जाए. 9वीं और दसवीं के छात्र हमें ईमेल कर रहे हैं, इसलिए मैं नहीं मानता कि कुछ नहीं होगा. कुछ नहीं होगा तो ये समाज की हार होगी, मेरी नहीं. हमने लूट के चंद किस्से आज भी छांटे हैं ईमेल से. बनारस के एक स्कूल ने डायरी के 800 रुपये लिए हैं. सासाराम के एक स्कूल ने ऑनलाइन किताब ख़रीदने पर भी स्कूल की रसीद में किताब की कीमत जोड़ दी. भावनगर का एक स्कूल 25000 कैश लेता है मगर ढाई हज़ार की रसीद देता है. दमोह, मध्य प्रदेश का एक स्कूल साइंस की किताब 595 रुपये में दे रहा है. कोलकाता के एक स्कूल ने बैग के लिए 2000 रुपये लिये हैं. एक स्कूल 80 रुपये का कलर 300 रुपये में लिया जा रहा है.
जयपुर का एक स्कूल जर्नल के नाम पर सभी छात्र से अनिवार्य रूप से 1000 रुपये लेता है. इस जर्नल में प्रेरक कहानियों के नाम पर बकवास भरे होते हैं. एक परिवार का दो बच्चा पढ़ता है तो एक ही जर्नल के लिए 2000 देने पड़ते हैं. सरस्वती पूजा के नाम पर एक स्कूल 500 रुपये प्रति छात्र ले रहा है. नगद फीस लेने की खूब शिकायत है. इसे देखते हुए प्रधानमंत्री को ज़रूर नज़र डालनी चाहिए. उनके एक आदेश से यह संभव हो सकता है कि स्कूलों में कुछ भी लेनदेन कैश न हो, बल्कि स्कूलों में जिनके बच्चे पढ़ रहे हैं वो प्रधानमंत्री के कैशलेश अभियान की हर दिन परीक्षा लेते हैं. इसलिए सरकार को भी इसे लेकर अतिरिक्त रूप से सक्रिय और संवेदनशील होना चाहिए. कई बार अच्छी नीयत से लिया गया फैसला उल्टा भी पड़ जाता है. महाराष्ट्र के औरंगाबाद से आया ईमेल बताता है कि शहर में पब्लिक ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था नहीं है.
कमिश्नर ने तय कर दिया कि आटो में 4 और वैन में 10 से अधिक बच्चे नहीं जाएंगे. चूंकि बस नहीं है तो अब वैन के 500 की जगह 1200 देने पड़ गए क्योंकि वैन वाला ज़्यादा वसूलने लगा. ऐसा चक्र है कि फैसला आता भी है तो फंसा जाता है. अब आप एक सवाल ख़ुद से पूछिये. स्कूल क्यों तय करेगा कि आप किस ब्रांड का जूता पहनेंगे. यूपी से एक ईमेल आया है. उसमें लिखा है कि फुटवियर कंपनी ने कई स्कूल खोल लिये हैं. सारे स्कूल में उसके जूते अनिवार्य रूप से बिकते हैं और ज़्यादा दाम पर. अनुशासन के नाम पर महंगे और विदेशी ब्रांड के जूते क्यों पहनने चाहिए.
क्या सादगी से अनुशासन नहीं आता है, क्या महंगे ब्रांड से ही अनुशासन आता है, काला जूता ही पहनना है तो छात्र अपनी क्षमता से क्यों न खरीदे? स्कूल कौन होता है तय करने वाला कि आप महंगे ब्रांड का जूता 2000 में ख़रीदें. क्या स्कूल में पढ़ने वाले सभी मां बाप की क्षमता एक ही होती है. रायपुर का एक स्कूल महंगे ब्रांड का जूता ख़रीदने पर मजबूर करता है. स्कूल के बच्चों के लिए कोई छूट नहीं होती है. ईमेल में कहा गया है कि बाकी शहरों से उनसे अधिक दाम वसूले गए हैं.
जिसे समझ में आता है वो भी और जिसे समझ नहीं आता है वो भी, एक बात सरल हिन्दी में समझ ले. इसे ग़ुलामी कहते हैं. आप ग़ुलाम हो चुके हैं. स्कूलो ने जूतों की बिक्री के लिए तरह तरह के तिकड़म किये हैं जिन्हें हम बिना दिमाग लगाए स्वीकार कर रहे हैं. हमें पूछना चाहिए कि स्कूल में विदेशी ब्रांड का जूता पहनकर वो कौन सा अनुशासित नागरिक बन रहा है. अनुशासन के नाम पर वो गुलाम नागरिक बन रहा है. यह बात सीरियस है तब भी सीरियस है जब हमारे एक महीने तक जनसुनवाई करने के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा. इससे आपकी गुलामी की हकीकत नहीं बदल जाएगी. कोलकाता से एक ईमेल आया है कि नर्सरी के बच्चे को महंगे ब्रांड का जूता खरीदने के लिए मजबूर किया गया है जिसकी कीमत 2000 रुपये है. हाल ही में गुजरात के शिक्षा मंत्री ने कहा है कि स्कूल इतनी डोनेशन ले रहे हैं कि आप सोच नहीं सकते. स्कूल फैसला कर रहे हैं कि किस ब्रैंड का जूता किस दुकान से खरीदना है. इन ब्रैंड के सेल आउटलेट स्कूलों में खोले जाते हैं और अभिभावकों को मजबूर किया जाता है कि वो यूनिफार्म, बैग, जूते सब वहीं से खरीदें. ये सही चलन नहीं है.
सरकारों तक यह बात पहुंचने लगी है. राजस्थान सरकार ने भी एक अच्छा फैसला किया है. नीयत अच्छी है. कम से कम यहां तक तो बात पहुंची है. नए फैसले के अनुसार प्राइवेट स्कूल स्कूल के भीतर किताब नहीं बेच पाएंगे. नियम पालन नहीं होगा तो मान्यता रद्द होगा. यूनिफार्म और अन्य सामग्री भी अभिभावक बाज़ार से ख़रीद सकेंगे. किसी भी सामग्री पर स्कूल अपना नाम अंकित नहीं कर सकेगा. स्कूल नहीं तय करेगा कि किस दुकान से सामान खरीदनी है. स्कूल सत्र शुरू होन से एक महीने पहले वेबसाइट पर किताबों की सूची जारी करेंगे. इस सूची में किताबों के लेखक, प्रकाशक और मूल्यों की जानकारी होगी. पांच साल तक कोई भी स्कूल यूनिफार्म नहीं बदल सकेगा.
This Article is From Apr 18, 2017
प्राइम टाइम इंट्रो : स्कूलों पर जनसुनवाई - कॉशन मनी नहीं लौटाते स्कूल
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:अप्रैल 18, 2017 21:43 pm IST
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Published On अप्रैल 18, 2017 21:43 pm IST
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Last Updated On अप्रैल 18, 2017 21:43 pm IST
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