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This Article is From Jun 27, 2016

कभी आप भी सोचकर देखिए, महिलाएं 'राइट' हैं या 'लेफ्ट'...?

Sarvapriya Sangwan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 27, 2016 15:27 pm IST
    • Published On जून 27, 2016 15:27 pm IST
    • Last Updated On जून 27, 2016 15:27 pm IST
अपवादों को छोड़ दें तो महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी पर ज़्यादा चर्चा होती नहीं है। कभी सोचा है कि आखिर महिलाओं का राजनीतिक झुकाव क्या है...? क्या वह किसी ख़ास विचारधारा से प्रेरित होता है...?

मुझे कभी-कभी महसूस हुआ कि महिलाओं / लड़कियों के लिए दक्षिणपंथ (राइट-विंग) से खुद को जोड़ना शायद मुश्किल होता है। अगर किसी वक़्त भरोसा कर भी लें, तो ज़्यादा वक़्त समर्थन में रह नहीं पातीं। ऐसा सोचने के पीछे वजहें भी हैं। मसलन, आज की तारीख में अगर हम विश्व के किसी राइट-विंग नेता को देख लें, वह हमेशा महिलाओं के खिलाफ बयानबाज़ी करते नज़र आते हैं, संवेदनशील कम दिखाई देते हैं।

काम के दौरान मुझे नाइजेल फराज को जानने का मौका मिला। ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन से अलग करने के लिए उन्होंने कैम्पेन किया था और नतीजे आने के बाद ऐसे भाषण देने लगे, जैसे सच में डंडे खाकर कोई आज़ादी पाई हो। यह इंग्लैंड की 'यूके इंडिपेंडेंस पार्टी' के नेता हैं, जो राइट-विंग पार्टी है। उन्हें लगता है कि जो मां हैं, वे बिज़नेस सेक्टर के लिए सही कर्मचारी नहीं हैं, पहले वे 'मैटरनिटी लीव' पर चली जाती हैं, फिर बच्चों में ध्यान देने लगती हैं। ऐसा ही उनकी पार्टी के दूसरे नेता स्टुअर्ट व्हीलर ने कहा था कि कितना भी कर लें, महिलाएं पुरुषों से पीछे ही हैं। नाइजेल एक बार कह चुके हैं कि महिलाओं को कोने में जाकर बच्चों को दूध पिलाना चाहिए, ताकि बाकी लोगों को शर्म न आए।

इसी पार्टी के किसी नेता ने राजनीति में आई महिलाओं के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया, क्योंकि वे अपना किचन साफ़ नहीं रख सकतीं। यह पार्टी समलैंगिकों के खिलाफ भी बोलती रही है। ऐसे ही कुछ बयान आप डोनाल्ड ट्रम्प के भी पढ़ सकते हैं, जो रिपब्लिकन पार्टी के हैं। किसी रिपोर्टर को वह 'बिम्बो' कह देते हैं - सुन्दर, लेकिन बेवकूफ लड़की। एक बार वह कह चुके हैं कि मीडिया कुछ भी लिखता रहे, उन्हें परवाह नहीं, जब तक उनके पास उनकी महिला मित्र है, और यकीन मानिए, उन्होंने अपनी महिला मित्र के लिए ऐसी संज्ञा का प्रयोग किया था, जो प्रकाशित करना भी हमारे लिए संभव नहीं। आप गूगल कीजिए, बहुत कुछ मिल जाएगा। भारत में राइट-विंग पार्टियों के कुछ नेता किस तरह की बयानबाज़ी करते हैं, आप जानते हैं। परम्पराओं से बंधी विचारधारा वाले नेता या आम लोग भी समलैंगिकों से चिढ़ते मिलेंगे, महिलाओं के खिलाफ भद्दी टिप्पणी भी आम बात है, दूसरे देश के तो कभी-कभी अपने देश के दूसरे राज्यों के लोगों से घृणा करते दिखेंगे।

आखिर यह लेफ्ट या राइट आया कहां से है...? राजनीति विज्ञान में फ्रांस ने एक अहम रोल अदा किया है। लेफ्ट और राइट की 'टर्म' फ्रांसीसी दरबार की उपज हैं। फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद estate general सभा में जो प्रगतिशील तबका था, वह लेफ्ट (बाएं) में बैठता था, और जो तबका परम्परावादी था, वह राइट (दाएं) में बैठता था।

'The Economist' का एक लेख पढ़ रही थी, और उसमें लिखे कुछ तथ्यों का उल्लेख कर रही हूं।

22 मई को ऑस्ट्रिया के राष्ट्रपति चुनाव हुए। 1918 से पहले वहां महिलाओं को वोटिंग का कानूनी हक़ नहीं मिला था। अगर आज भी ऐसा होता तो शायद राइट-विंग उम्मीदवार नॉर्बर्ट हॉफर जीत जाते, लेकिन जीत ग्रीन पार्टी के उम्मीदवार अलेक्सेंडर बेल्लेन की हुई। एग्जिट पोल में पता चला कि महिलाओं ने ग्रीन पार्टी के उम्मीदवार को सपोर्ट किया था। 60 फीसदी पुरुष वोटर हॉफर का समर्थन कर रहे थे, लेकिन जीत महिलाओं के समर्थन की हुई।

अमेरिका में भी 60 फीसदी महिलाएं ट्रम्प को अच्छे उम्मीदवार के तौर पर नहीं देख रहीं। पिछले चुनावों के दौरान डेमोक्रेट बराक ओबामा को महिलाओं का समर्थन हासिल रहा है।

जर्मनी की एक ओपिनियन पोल में 35 फीसदी महिलाओं ने एंजेला मर्केल की सेंटर-राइट पार्टी को समर्थन दिया, 12 फीसदी महिलाओं ने घोर दक्षिणपंथी AfD पार्टी को समर्थन दिया। हालांकि यहां दोनों ही पार्टियां दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़ी हैं, लेकिन महिलाएं liberal-conservatism को तवज्जो दे रही हैं, जो एंजेला की पार्टी की विचारधारा है।

हमेशा से ऐसा नहीं था। महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा ज़्यादा धार्मिक होती हैं और मानी जाती हैं। यूरोप में कैथोलिक पार्टियों को, क्रिश्चियन डेमोक्रेट पार्टियों को महिलाओं के समर्थन से काफी फायदा होता रहा। 1970 से पहले यही दशा थी, लेकिन जैसे-जैसे महिलाएं शिक्षित होने लगी हैं, काम करने लगी हैं, मेनस्ट्रीम में आ रही हैं, धार्मिक कम होती जा रही हैं। उन्हें समझ भी आने लगा है कि धर्म और परंपरा ने उन्हीं का नुकसान ज़्यादा किया है, इसलिए conservatism से निकलकर वे लेफ्ट की तरफ झुकने लगी हैं, या सेंटर-राइट पार्टियों की तरफ।

भारत में भी मंदिर-मस्जिद, गाय-बकरी के मुद्दे पर औरतें ज़्यादा परेशान नहीं होतीं। हरियाणा में बंसीलाल शराबबंदी के वादे पर चुनकर आए। महिलाओं ने समर्थन दिया था। बिहार में भी इस बार ऐसा देखने को मिला। उससे पिछले चुनावों में भी नीतीश कुमार को महिलाओं का समर्थन हासिल था, जो वोटों में भी बदला। चाहे विश्वविद्यालय के चुनाव हों या राज्य के, महिलाएं जब बात करती हैं, तो सुरक्षा के मुद्दे पर बात करती हैं, धर्म को या परंपरा को बचाने के लिए नहीं। इसलिए मेरी समझ बनी है कि महिलाओं को कोई एक विचारधारा, खासकर दक्षिणपंथ उतना आकर्षित नहीं करता। इस विचार को अलग-अलग पार्टियों में शामिल महिलाओं से जोड़कर न देखें। यह राजनीति के क़ाबिल न समझी जाने वाली महिला वोटरों के बारे में है, जो चुपके से बदलाव का हिस्सा बन रही हैं।

सर्वप्रिया सांगवान NDTV में एडिटोरियल प्रोड्यूसर हैं...

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