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This Article is From Feb 21, 2018

'वरियर' और 'वॉरियर' की कशमकश

Sanjay Kishore
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 21, 2018 12:44 pm IST
    • Published On फ़रवरी 21, 2018 12:39 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 21, 2018 12:44 pm IST
नाम में 'किशोर' जोड़ लेने से कुदरत की अदालत से उम्र पर 'स्टे ऑर्डर' थोड़े ही मिल जाता है... ज़िन्दगी का अर्द्धशतक कुछ ही साल के फासले पर इंतज़ार कर रहा है... 'मिड-लाइफ क्राइसिस' जैसी कोई बात नहीं है, शायद इसलिए, क्योंकि बचपना बचा हुआ है... वैसे भी 'बायोलॉजिकल क्लॉक' की टिक-टिक मन से पहले तन को सुनाई देती है...

सनसनाहट कम करने वाला टूथपेस्ट काम नहीं आया और न ही बाबा रामदेव के 26 बेशकीमती जड़ी-बूटियों वाले आयुर्वेदिक टूथपेस्ट से झनझनाहट दूर हो पाई... आखिरकार डेन्टिस्ट के पास जाना ही पड़ा... डॉक्टर की बातों से ज़्यादा शायद उसकी खूबसूरती ने हमें 'रूट कनाल' के लिए बहला लिया... चश्मा चढ़े भी साल भर होने को आया है, मगर आज भी आदत नहीं बन पाई है, झुंझलाहट होती है... शरीर पर कपड़े को छोड़कर कोई भी चीज़ 'फॉरेंन एलिमेंट' और असहनीय लगती है... भाग्य बदलने के लिए पंडित-ज्योतिषी का बताया पत्थर भी इसलिए कभी नहीं पहना, क्योंकि अंगूठी से असहज महसूस होता था...

अपने नाम में 'किशोर' बरकरार है, लेकिन 'किशोर' की 'अवस्था' इन दिनों बड़े साहबज़ादे संभाल रहे हैं... जूतों के नंबर बराबर हो गए हैं... आगे उन्हें कभी उलझन न हो, इसलिए उनके नाम से 'किशोर' हटा दिया था और अपने दादाजी का टाइटिल जोड़ दिया, ताकि जन्मभूमि से जुड़ी पहचान बनी रहे... बाकी तो सब कर्मभूमि में पीछे छूट ही रहा है... ठेठ खानपान और खानदानी मातृभाषा भोजपुरी का सफर अगली पीढ़ी तक नहीं बढ़ पाया... खैर, विडम्बना देखिए, हमारे पिताजी ने पहचान छिपाने के लिए जाति-सूचक टाइटिल हटा कर 'किशोर' उपनाम चस्पां कर दिया था... गुस्ताख लोग तब सीधे-सीधे पूछने लगे - 'कौन जात हो, बउआ...?' समय के साथ भी सोच ज़्यादा नहीं बदली है... चुनावों में दिखता ही है... फर्क जगह का है... पटना में वह सवाल अब भी पूछ लिया जाता है, दिल्ली में कभी-कभार...

'किशोर' साहबज़ादे 10वीं जमात में पहुंच चुके हैं... मार्च में परीक्षा है... तैयारी चल रही है... इस बार परीक्षा प्रणाली में बदलाव कर बोर्ड को अनिवार्य कर दिया गया है... सात साल के अंतराल के बाद बोर्ड परीक्षा की वापसी हो रही है... कॉन्टिन्यूअस एंड कॉम्प्रेहेंसिव इवेल्यूएशन (सीसीई) खत्म कर दिया गया... शिक्षामंत्री कपिल सिब्बल के काल में सीबीएसई ने छह साल पहले 10वीं में बोर्ड की परीक्षा को वैकल्पिक कर दिया था, और कॉन्टिन्यूअस एंड कॉम्प्रेहेंसिव इवेल्यूएशन (सीसीई) को लाया गया था... इसका यह मतलब था कि सेकंडरी स्कूल में पढ़ने वाले स्‍टूडेंट्स के पास परीक्षा में बैठने या नहीं बैठने का वि‍कल्‍प था... सीसीई पैटर्न समाप्त होने के बाद अब पूरे पाठ्यक्रम के आधार पर पेपर आएंगे... पहले सिर्फ आधे साल के पाठ्यक्रम से सवाल आते थे... इस साल से वस्तुनिष्ठ व मल्टीपल सवालों के अलावा विस्तार से सभी सवालों के जवाब देने होंगे... कपिल सिब्बल के तुगलकी फैसले से लेकर स्मृति ईरानी और अब प्रकाश जावड़ेकर तक के फरमानों के बीच स्कूली शिक्षा पद्धति के साथ जो खेल हुआ है, उसका सबसे बड़ा ख़ामियाज़ा बच्चों को चुकाना पड़ रहा है...

बहरहाल, साहबज़ादे जीवन की पहली बड़ी चुनौती के लिए तैयार हो रहे हैं... बीच में थोड़े बेतकल्लुफ और बेफिक्र हो गए लगे थे... शाम के खेलने के वक्त में कोई कटौती नहीं... मैच पूरा देखना है... मोबाइल पर गेम भी बदस्तूर जारी... माथा ठनका... कहीं वॉट्सऐप पर 'वरियर नहीं, वॉरियर बनो' वाला संदेश तो नहीं देख-सुन लिया... परेशानी पसीना बनकर पेशानी पर बूंदों के रूप में उभर आई...

"क्यों भाई, परीक्षा सिर पर है, लेकिन कोई चिंता ही नहीं... फोन और वॉट्सऐप छूट नहीं रहा है... 'वरियर और वॉरियर' वाले मैसेज के भुलावे में तो नहीं आ गए... 'वॉरियर' बनने के लिए थोड़ा 'वरी' भी करना पड़ेगा... परीक्षा की चिन्ता सिर्फ एक करियर में नहीं होती - राजनीति... न तुम चालाक हो, न तुमसे झूठ बोला जाता है... लड़ाई में तुम जीत सकते नहीं, दबंगई तो दूर की बात है... ऐसा भी नहीं कि तुम्हारे बाप-दादा राजनीति में हों... तुम्हारे बाप को दफ्तर और सोसाइटी के आरडब्ल्यूए की राजनीति की तो समझ है नहीं, फिर तुम कैसे चिंता-फिक्र से मुक्त लग रहे हो...? जीवनभर चिंता से सामना होना है, सो, अभी से फिक्र की थोड़ी आदत डाल लो... चिंता कोई बुरी बात नहीं हैं... गीता में भगवान कृष्ण ने यह नहीं कहा था कि चिंता मत करो - उन्होंने कर्म की चिंता करने की सलाह दी थी या नहीं...?"

"फिक्र होगी, तभी ज़िम्मेवार बनोगे और अपने और अपने परिवार, समाज और देश के लिए कुछ सोचोगे... चिंता नहीं करने वाले, देश के लिए क्या खाक फिक्रमंद होंगे... ठीक है कि यह ज़िन्दगी का आखिरी इम्तिहान नहीं है, पहला है... लेकिन यह बड़ा है और अहम भी... परीक्षा के अंक जीवन में सफलता का इकलौता पैमाना नहीं हैं, लेकिन पैमाना तो हैं ही... हम पहले पड़ाव को ही हल्के में लेंगे, तो आगे मुश्किलें बढ़ सकती हैं... सफलता निरंतर और सतत प्रयासों का नतीजा है... ट्विंकल खन्ना ने अपने कॉलम में क्या लिखा है - बच्चों का इम्तिहान मां-बाप के लिए भी परीक्षा से कम नहीं होता... बताओ, सेलेब्रिटीज़ के लिए भी यह सच है... हमारे लिए अगले दो महीने न उत्सव हैं, न त्योहार और तुम फेस्टिव मूड में नज़र आते हो...!"

"अब, उठ भी जाओ... कितना सोते रहोगे...? दिन-भर छोड़ दिया जाए, तो सोते ही रहेंगे..."

'मन की बात' में व्यक्त विचारों पर आधारित किताब 'एग्जाम वॉरियर्स' पढ़ते-पढ़ते न जाने कब आंख लग गई थी... हड़बड़ाकर उठा... शुक्र है, सपना देख रहा था... दूसरे कमरे में साहबज़ादे पढ़ाई में मगन थे... शायद समझाने की ज़रूरत नहीं है कि 'वॉरियर' बनने के लिए थोड़ा 'वरियर' बनना भी ज़रूरी है...

संजय किशोर NDTV इंडिया के खेल विभाग में डिप्टी एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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