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This Article is From May 04, 2019

रवीश कुमार का ब्लॉग : क्या बोलने की आजादी सीमित हो गई है?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 04, 2019 08:05 am IST
    • Published On मई 04, 2019 03:49 am IST
    • Last Updated On मई 04, 2019 08:05 am IST

2014 के पहले का मीडिया भी गर्त में जा रहा था, जब वह टीआरपी के लिए श्मशान घाट में कैमरे लगा रहा था और स्वर्ग की सीढ़ी खोज रहा था तब उसकी आलोचना हिन्दी सिनेमा के पर्दे पर हो रही थी. शोबिज़, पेज थ्री, नो वन किल्ड जेसिका, गुरु, पीपली लाइव और रण जैसी फिल्में बन रही थीं. 2014 के बाद मीडिया की दुनिया में बहुत कुछ हुआ मगर उसकी प्रतिक्रिया या झलक को लेकर कोई पीपली लाइव नहीं बनी. 2014 से पहले बॉलीवुड के निर्माता निर्देशन जिन बातों को अलग से नोटिस कर रहे थे, 2014 के बाद वही बातें उनकी ज़िंदगी का हिस्सा बन गईं. 2008 में वेंसेडे जैसी फिल्म आतंकवाद को लेकर बन रही थी मगर 2014 के बाद जब पठानकोट पर हमले के बाद आईएसआई के अफसर जांच दल में शामिल हो गए तब किसी बॉलीवुड के राइटर को नहीं लगा कि एक कहानी लिखते हैं. फिल्म वालों ने अपनी कहानियों से सवाल गायब कर, महान बनाने का प्लाट भर लिया. इसके बाद भी 2001 में बनी नायक फिल्म व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में मीम बनकर चलती रही. लोगों ने अनिल कपूर के सामने नेताओं की तस्वीर लगा दी और कल्पना की कि ऐसा इंटरव्यू होना चाहिए मगर हुआ उल्टा. प्रसून जोशी ने फकीरी का सवाल पूछ कर सवालों के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया और अक्षय कुमार ने आम का सवाल पूछ कर कनाडा की नागरिकता के सवाल से भी पीछा छुड़ा लिया. हुआ है यह कि फिल्म में राजनीति और राजनीति में फिल्म काफी घुलमिल गई है. पहले आटे में नमक के बराबर होती थी लेकिन अब आटा ही डिजिटल का होता है, गेहूं का नहीं.

पद्मावत फिल्म तो अब आप भूलने लगे होंगे लेकिन इस फिल्म को लेकर हफ्तों बहस चली टीवी पर. इस बहस के पीछे मकसद एक ही था. अल्पसंख्यकों को खलनायक बनाना और अलाउद्दीन खिलजी के चेहरे को उनके चेहरे पर लगा देना जो सरकार से सवाल कर रहे थे. आईटीसेल ने ऐसे तमाम लोगों के चेहरे पर अलाउद्दीन खिलजी का चेहरा लगा दिया. अब सब पद्मावत को भूल चुके हैं. शुरूआत से लेकर 2014 के पहले तक फिल्मों ने जिस सांप्रदायिकता को जगह नहीं दी वो अब फिल्मों में भी, उनसे जुड़ी हस्तियों के जीवन का आफिशियल हिस्सा हो गई. सांप्रदायिकता को राष्ट्रवाद के नाम पर सम्मान से ओढ़ कर चलने का चलन नया है. 2014 के बाद सिर्फ एक फिल्म आई मुल्क जो सांप्रदायिकता के सवाल को उसी व्हाट्सऐप की भाषा में डील करती है, जिस भाषा में उसे फैलाई जाती है. वैसी फिल्में ज़रूर बनी जो सरकार की तरफदारी करती दिखती हैं. टायलेट एक प्रेम कथा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीवनी भी फिल्म में बनकर तैयार हो गई. उस समाज में जहां मायावती के मूर्ति बनने पर मीडिया ने हंगामा कर दिया लेकिन अब सब ठीक है. प्रधानमंत्री मोदी की फिल्म बन कर तैयार है. ऑटोबायोग्राफी और बायोग्राफी का फर्क मिट गया है. एंटी पाकिस्तान का तेवर तो हमेशा से ही फिल्मों में रहा है लेकिन क्या कोई यश राज साहब वीर ज़ारा जैसी फिल्म बना सकते हैं. राजकपूर होते तो आज हिना बना सकते हैं. रिफ्यूजी बन सकती है. 2016 में उरी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक होती है. उरी फिल्म बन कर आ जाती है. इस फिल्म का डायलॉग सरकार के मंत्रियों और समर्थकों का डायलॉग बन जाता है. हाउ इज़ द जोश प्रधानमंत्री की ज़ुबान पर चढ़ता है और संसद में पहुंच जाता है. बजट सत्र में हाउ इज़ दि जोश का नारा लगता है.

अदालत के आदेश से सिनेमा घरों में राष्ट्रगान अनिवार्य किया गया. उसी सुप्रीम अदालत के आदेश से राष्ट्रगान दिखाने की बाध्यता खत्म कर दी गई तो सरकार को एतराज़ नहीं हुआ. ठीक उसी तरह से जैसे प्रधानमंत्री मोदी के मंच पर जब नीतीश कुमार ने वंदे मातरम और भारत माता की जय नहीं कहा तो प्रधानमंत्री को कोई एतराज़ नहीं हुआ. जबकि वे अपने भाषणों में वंदे मातरम न गाने वालों से सावधान रहने को कहते हैं मगर उनके सामने एक बड़े नेता की वंदे मातरम नहीं गाते हैं तो प्रधानमंत्री नज़र फेर लेते हैं. आमिर खान का प्रसंग कैसे भूला जा सकता है. क्या उस राजनीति का दबाव रहा होगा कि दंगल फिल्म के बीच में राष्ट्रगान बजता है. पब्लिक स्पेस में हमेशा दिखने वाले आमिर खान भी पीछे हट गए. जब राजनीति फिल्मी हो जाए और पता न चले कि नेता फिल्म के सेट पर है या राजनीति के तो मुश्किल है. चुनावी मंच अब फिल्मों के सेट की तरह होते हैं. वहां लगे जिमी जिब कैमरे बगैर किसी मनमोहन देसाई के इशारे के नाच रहे होते हैं.

जब टीवी के कैमरे मतदान के दिन सिनेमा के हर कलाकार को वोट देते हुए फोटो खींच रहे हैं तो उनकी राजनीति के सामने आने को लेकर शर्मिंदा होने की ज़रूरत है. उनकी राजनीति पर बात करने की ज़रूरत है. कैमरों ने मतदान केंद्रों से बाहर आते फिल्म स्टार की तर्जनी को इतनी तो इज्जत बख्शी कि उन्हें उनके चेहरे से कम नहीं समझा वरना वोट तो बाकी मतदाताओं ने भी उसी तर्जनी से दी थी. इसलिए फिल्म से लोग जब राजनीति में आएं तो गंभीरता से लेना चाहिए मगर इस तरह से नहीं कि निशान कमल का है मगर हाथ में हैंडपंप है. सनी देओल की फिल्म तो बॉर्डर भी थी, असली कहानी के आसपास बनी थी मगर सनी देओल गदर के किरदार को लेकर घूम रहे हैं. हेमा जी की यह तस्वीर उस समय चर्चित हो उठती है जब उसी यूपी के किसान अनाज के दाम और सांड की मार से परेशान व्हाट्एस एप पर अपनी व्यथा गा रहे हैं.

एक समय राजीव गांधी भी अमिताभ बच्चन के साथ अपनी दोस्ती को राजनीति में खूब जमाते थे. वही अमिताभ बच्चन राजनीति में न जाने कितनों के दोस्त हुए. अब प्रधानमंत्री मोदी एक से अधिक कालकारों के साथ नज़र आते हैं. साथ आने में दिक्कत नहीं है. दिक्कत है कि उनकी पॉलिटिक्स क्या है. जिस तरह से वे एक ब्रांड को विज्ञापन करते हैं उसी तरह से एक नेता का कर देते हैं. अगर प्रधानमंत्री के साथ हैं तो उनके विरोध में भी हैं. प्रकाश राज ने न सिर्फ अपना चुनाव लड़ा बल्कि कन्हैया का भी प्रचार किया. तमिनलनाडु में कमल हसन अलग पार्टी बनाकर नया विकल्प बना रहे हैं.

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