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This Article is From Feb 09, 2015

मज़बूत नेतृत्व बनाम मज़बूत विपक्ष की आवाज़ का चुनाव

Ravish Kumar, Saad Bin Omer
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  • Updated:
    फ़रवरी 09, 2015 01:31 am IST
    • Published On फ़रवरी 09, 2015 01:07 am IST
    • Last Updated On फ़रवरी 09, 2015 01:31 am IST

सुनकर चुनाव का आंकलन करने का जो फ़न है, वह शायद देखकर या बोलकर नहीं। चौक-चौबारे पर लोग क्या बातें कर रहे हैं, यह सुनने का अगर धीरज है तो आप चुनाव की अलग ही तस्वीर देख पाएंगे। टीवी कैमरा चालू करते ही अब लोग मन की कम, दिखने के लिए ज्यादा बोलते हैं। कोई समर्थक निकल आया तो ज़ोर-ज़ोर से अपनी पार्टी या नेता का ही नाम लेने लगेगा। लेकिन जब वोटर अपने एकांत में होता है, जब वह दो-तीन लोगों के बीच होता है और बातें कर रहा होता है, तब उसकी बातों को सुना जाना चाहिए। इसका सौभाग्य टीवी एंकरों को कम ही मिलता है, फिर भी आप सुनना चाहें तो अनजान बने रहकर सुन सकते हैं। बशर्ते खुद ही बोलने की बीमारी से ग्रस्त न हों।

कुछ दिन पहले लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स की मुकुलिका बनर्जी की किताब 'वाई इंडिया वोट्स?' पढ़ रहा था। मुकुलिका ने इस बात की पड़ताल की है कि लोग क्यों वोट देते हैं। उन तत्वों की पहचान की है जिससे एक मतदाता बनता है। कैसे एक मतदाता अपनी इस पहचान को बाकी अन्य पहचान की तुलना में सबसे ज्यादा कीमती समझता है। वह पहचान पत्र को इस कदर संभाल कर रखता है, जैसे परिवार में ज़ेवर रखा जाता है।

इसी किताब के साये में मैं इस बार दिल्ली की गलियों में घूमते हुए लोगों की बातें सुनने लगा। पूछा कम, सुना ज्यादा। इस चुनाव ने लोकतंत्र को समझने का बेहतरीन मौके दिए हैं। हिन्दुस्तान का मतदाता अपनी सरकारों के बारे में किस तरह से सोचता है, उसका एक और परिपक्व उदाहरण दिल्ली चुनाव के नतीजे से मिलने जा रहा है।

मुझे इस दौरान वोट देने के कई कारण सुनाई दिए, लेकिन सबसे प्रमुख कारण था एक मज़बूत आवाज़ का होना। कई मतदाताओं ने इस एक कमी को सबसे ऊपर रेखांकित किया। इसमें डॉक्टर से लेकर फल बेचने वाला तक शामिल है। हर तबके के लोगों ने कहा कि लोकसभा चुनाव के बाद विपक्ष की आवाज़ खत्म हो गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने कोई आवाज़ नहीं उठाता।

मैंने पूछा भी कि आप तो यही चाहते थे कि मज़बूत और दमदार नेतृत्व हो। लोगों ने जवाब दिया कि हम यही चाहते थे, लेकिन हम यह नहीं चाहते थे कि विपक्ष की आवाज़ न हो। कंपटीशन न हो। यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।

साधारण से साधारण मतदाता के इस विवेक ने मुझे लोकतंत्र में लोक की भूमिका का ऐसा पाठ पढ़ाया, जिसे मैं टीवी स्टुडियो की बहस से नहीं जान पाता। मई 2014 में सरकार बनने के बाद बीजेपी के हर बड़े नेता के भाषण का यह अहम हिस्सा था कि देश में विपक्ष नहीं है। नेता विपक्ष तक नहीं है। दिल्ली चुनावों में भी अमित शाह इस बात को ज़रूर बोलते कि विपक्ष को ऐसी भयंकर सज़ा मिली है। जनता बीजेपी के इन बयानों को अपने तरीके से भांप रही थी। उसे कई मौकों पर लगा कि विपक्ष की आवाज़ का न होना ठीक नहीं है, तो उस कमी को भरने के लिए पार्टियों की तरफ देखने लगी।

कांग्रेस के पास मौका था, मगर वह ढीली पड़ गई। बाकी किसी दल ने यह बीड़ा नहीं उठाया। अखिलेश यादव या नीतीश कुमार ने विपक्ष बनने में वैसी सक्रियता नहीं दिखाई, जिसकी उम्मीद की जा रही थी। मायावती ने रूटीन प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आलोचना तो की मगर सड़क पर कोई विपक्ष नहीं था। एक कारण यह भी था कि इनके पास दिल्ली में विपक्ष बनने की कोई संख्या नहीं थी। कांग्रेस नेता राहुल गांधी चुनाव के आखिरी दिनों में बाहर तो निकले मगर देर कर दी। विपक्ष की भूमिका को रोड शो की औपचारिकता से निपटा दिया।

हर जगह आम लोगों ने कहा कि कंपटीशन नहीं होगा तो एक ही आदमी की मनमानी चलेगी। सब्ज़ी बेचने वाले एक शख्स ने कहा कि आवाज़ तो उठाना चाहिए न। हमें प्रधानमंत्री से कोई शिकायत नहीं है। वह अच्छा काम कर रहे हैं, फिर भी आवाज़ उठाने वाला कोई तो होना चाहिए। जब उससे पूछा क्यों, तो जवाब देता है कि पता कैसे चलेगा कि सरकार जो कह रही है, वही सही है। दूसरा मत तो पता ही नहीं चलेगा।

हमारा मतदाता लोकतंत्र की इस बुनियादी ज़रूरत को ऐसे समझेगा मुझे आभास नहीं था। कोई पढ़ा लिखा प्रोफेसर यह बात कहता तो मैं हैरान नहीं होता, लेकिन होटल के वेटर से लेकर टैक्सी ड्राईवर तक इस चुनाव के ज़रिये विपक्ष की एक आवाज़ ढूंढ़ रहे थे।

शौचालय नहीं होने की शिकायत करने वाली एक महिला ने कहा कि आवाज़ उठाने वाला होता है तो पता चलता है कि सरकार सही कर रही है या गलत कर रही है। यानी पब्लिक सिर्फ सरकार का मत नहीं जानना चाहती। वह सरकार पर विश्वास करने से पहले उसे विपक्ष के मत से मिला लेना चाहती है।

मैं जितने लोगों से मिलता, बातें करता उनके मुंह से यह बात सुनकर सर झुकता चला जाता। उन्हें नरेंद्र मोदी से कोई खास शिकायत नहीं थी, कोई गुस्सा नहीं था, मगर ये लोग दिल्ली चुनाव के ज़रिये एक आवाज़ ढूंढ़ रहे थे, जो देश में विपक्ष की आवाज़ बन सके।

लोगों को लग रहा था कि बीजेपी को कोई रोक नहीं पा रहा है। बीजेपी से कोई पूछ नहीं पा रहा है। बीजेपी को बाद में विचार करने का मौका मिलेगा कि जनता आखिर क्यों ऐसा सोचने लगी। कई लोगों ने यहां तक पूछा कि क्या यह सही बात है कि मीडिया स्वतंत्र नहीं है। एक बूढ़े व्यक्ति ने कहा कि हम तो बीजेपी के वोटर हैं, लेकिन आप सवाल कीजिए। कड़े सवाल कीजिए। देश में आवाज़ क्यों नहीं है।

कई जगहों पर लोगों ने कहा कि दो सरकारों के बीच मुकाबला हो ही जाए। हम देखना चाहते हैं कि कौन अच्छा काम करता है और कौन नहीं। इस बात के बावजूद यह बात भी सुनाई पड़ी कि केंद्र और राज्य में एक पार्टी की सरकार रहेगी तो ज्यादा विकास होगा। यह लाइन भी खूब प्रमुखता से सुनाई पड़ी। लोग बात करते मिले कि दिल्ली में केंद्र की पार्टी की सरकार होगी तो टकराव कम होगा। योजनाएं जल्दी पास होंगी और लागू होंगी। इसी आवाज़ के दम पर दिल्ली चुनाव के कांटेदार होने का भरोसा बनता चला गया। इस चुनाव में दिल्ली का मतदाता दिल्ली के लिए सरकार और उस दिल्ली के लिए आवाज़ खोजने की कश्मकश से गुज़र रहा था, जहां से हिन्दुस्तान की हुकूमत चलती है।

सर्वे और एग्ज़िट पोल के नतीजे जो भी आए, लेकिन दिल्ली के मतदाताओं के मन की बात को सुनने में कई दल चूक कर गए। उनके पास मौका था कि इस ख़ाली जगह को भरने का। आम आदमी पार्टी ने इसका लाभ उठाया। लड़ाई में आकर उसने दावेदारी पेश की कि उसके पास आवाज़ बनने का साहस है। जो जनता साल भर पहले मज़बूत नेतृत्व ढूंढ़ रही थी, वही अब उस नेतृत्व के सामने एक मज़बूत आवाज़ खोजने लगी। लोगों ने दिल्ली के लिए सरकार बनाने का जनादेश कम, विपक्ष की आवाज़ के लिए ज्यादा वोट किया है।

समाजशास्त्री और राजनीतिशास्त्री दिल्ली चुनाव के नतीजों का कई प्रकार से मूल्यांकन करेंगे। मगर इस चुनाव ने मतदाता के एक नए चरित्र को हमारे सामने रखा है। एक साल पहले तक जो मतदाता जी-जान लगाकर मोदी-मोदी कर रहा था, वही अब मोदी से बिना नफरत किए किसी और को पसंद कर रहा था। एक साल पहले के उसके जज्ब़े के हिसाब से आप कह सकते हैं कि यह मोदी के अलावा किसी और के बारे में नहीं सोचेगा। यह मोदी भक्त बन गया है या बीजेपी का वोटर है।

याद कीजिए इसी मतदाता के बारे में कहा गया कि यह अरविंद केजरीवाल और मोदी को पसंद करता है, मगर लोकसभा में मोदी को ही वोट करेगा। ऐसा हुआ भी। लेकिन क्या यह कमाल नहीं है कि वही मतदाता पलट कर अपनी दूसरी निष्ठा की तरफ मुड़ता है, जिसके कारण आज आम आदमी पार्टी को सरकार बनाने की होड़ में आगे बताया जा रहा है।

मतदाता वर्ग की ऐसी दोहरी निष्ठा बहुत कम देखी गई है। वह भी इतने कम अंतराल में। मैं राजनीति का कोई घाघ विद्वान नहीं हूं, मगर एक छात्र के तौर पर देखते-देखते लगा कि ऐसा बहुत दिनों बाद देखने को मिल रहा है। पहले हुआ होगा पर अपनी स्मृति के अनुसार पहली बार हो रहा है। खाता-पीता मध्यमवर्ग का वही मतदाता, जो शादियों में बंद गला पहनकर जाता है और सैमसंग के मोबाइल से सेल्फी खींचता है, कह रहा है कि केंद्र में मोदी को वोट किए थे, राज्य में केजरीवाल को।

इस मतदाता की दोहरी निष्ठा में सांप्रदायिकता के लिए कोई जगह नहीं है। संस्कृति और नैतिक शिक्षा के नाम पर दिए जा रहे अनर्गल उपदेशों को वह सुन तो लेता है, मगर जानता है कि इस तरह की राजनीति से उसका भविष्य सुरक्षित नहीं हो सकता। वह आराम से धार्मिक पहचान धारण करता है, मगर इसके नाम पर सांप्रदायिकता बर्दाश्त नहीं करता। वह अगर सेकुलर राजनीति के ढकोसलेपन से नफरत करता है, तो उसे सांप्रदायिक राजनीति के इरादों से भी चिढ़ है।

यह मतदाता कौन है? यही वह मतदाता है जो सेकुलर है, जिसे समाजवादी पार्टी या कांग्रेस पार्टी की सिकुलर (बीमार) राजनीति से चिढ़ है, मगर यह समझना कि इसीलिए वह सांप्रदायिक है आप ग़लती कर रहे हैं। यह मतदाता वर्ग बीजेपी के कई सांसदों के सांप्रदायिक बयानों को भी मान्यता नहीं देता। यह साफ-साफ समझ रहा है कि धर्म की जगह कहीं और है। राजनीति धर्म के मसले को लेकर चलेगी तो हिन्दू-मुसलमान वाद विवाद प्रतियोगिता बनकर रह जाएगी। इस दोहरी निष्ठा वाले मतदाता की निगाह काम पर है। वह कई दलों के बीच काम को लेकर मुकाबला देखना चाहता है। स्वस्थ्य मुकाबला जिसमें अधिक से अधिक जनता का फायदा हो।

दिल्ली चुनाव का नतीजा किसी के भी हक में आए, मगर एक मजबूत विपक्ष की आवाज़ की चाहत का फैक्टर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। मैंने वही लिखा है जो कुछ हफ्तों के दौरान दिल्ली के लोगों को बात करते सुना है। चुनाव के समय कान लगाया कीजिए। कौन क्या कह रहा है। मुझे तो यही सुनाई दिया कि विपक्ष मज़बूत होना चाहिए और एक आवाज़ तो होनी ही चाहिए।

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