विज्ञापन
This Article is From Jan 11, 2015

रवीश कुमार की कलम से : दिल-विल से बचाओ इस दिल्ली को भाई

Ravish Kumar, Rajeev Mishra
  • Blogs,
  • Updated:
    जनवरी 11, 2015 12:53 pm IST
    • Published On जनवरी 11, 2015 12:43 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 11, 2015 12:53 pm IST

आए दिन इस जुमले को सुनता रहता हूं। कई बार लगता है कि हम किसी जुमले को बिना सोचे समझे स्वीकार कर लेते हैं। ज़माने से दिल्ली और दिल को मिलाकर जुमले सुनते सुनते मैं चट गया हूं। यह दिल्ली दिल से क्या होता है। कौन है जिसे दिल्ली के दिल में इतना भरोसा है। क्या इसलिए कि दिल्ली के नाम पर दिल है। पर दिल्ली दिल से तो बनी नहीं है। देहली से बनी है। देहली किससे बनी है यह एक अलग विषय है। लेकिन नेताओं और स्लोगनबाज़ों ने चुपके से इस दिल्ली में दिल ठेल दिया। ठेल दिया तो ठेल दिया। दिल से किसी को क्या दिक्कत, लेकिन दिल दिल दिल दिलदिलाने से ऊब होनी लगी है।

जब पूरे भारत के लिए हो रहा है तो अलग से दिल्ली के लिए दिल की क्या ज़रूरत है। क्या मध्यप्रदेश या उत्तर प्रदेश या बिहार के लिए दिल की ज़रूरत नहीं है। स्लोगन की भी अपनी एक सीमा होनी चाहिए। सामान बेचने के स्लोगन को आज राजनीति में लाते हैं वो खोखला लगता हैं। हां, इनदिनों ऐसे स्लोगन के सियासी खरीदार भी बहुत हैं और बिक भी जाता है। एफ एम रेडियो से लेकर टीवी और सड़कों पर लगे होर्डिंग में अक्सर दिल और दिल्ली को मिलाकर बनाए जुमले देखता रहता हूं। यह रिश्ता इतना घिस गया है कि कम से कम मुझे तो फर्क नहीं पड़ता है। ये वैसे है जैसे नये साल के ग्रीटिंग कार्ड पर कुछ जुमले लिखे चले आ रहे हैं। हम उन्हें बिना डकार के डकारे जा रहे हैं।

दिल्ली दिल से एक बकवास जुमला है। वैसे ही जैसे आपके लिए नया साल मंगलमय हो या ये मुबारक हो या वो मुबारक हो। हम सबकी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता कुंद हो गई है। क्या मंगलमय हो और क्या नया हो किसी को ठीक से पता नहीं, लेकिन हर कोई एक दूसरे को यह जुमला ठेले जा रहा है। दिल से दिल्ली या दिल्ली दिल से। दोनों में कोई फर्क नहीं है।

इस दिल्ली में भयानक अकेलापन बढ़ता जा रहा है। अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष जटिल होता जा रहा है। आखिर दुनिया के किस शहर से बेहतर बन जाए दिल्ली। क्यों बन जाए। दिल्ली दिल्ली क्यों न रहे। जिसे देखकर दुनिया के शहर दिल्ली जैसे बन जाएं। दुनिया के हर बेहतरीन शहर में गरीबी का वही संकट है जिसकी तरह नेता दिल्ली को बनाने का झूठा सपना दिखा रहे हैं।

बात दिल्ली बनाने के नहीं है। बात है उस सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को बनाने कि जहां हमारी आपकी ज़िंदगी सुरक्षित हो। क्या कोई ऐसी व्यवस्था बना रहा है। ये पूछिये नेता से। शान बन जाए या दिल से हो जाए इस तरह की तुकबंदियों से आज़ाद कीजिए। हिंदुस्तान के शहरों को आप यहां की रवायत के हिसाब से बनाइये। महान और बेहतर दोनों। जब दिल्ली पेरिस जैसी हो जाए और पटना वेनिस जैसा तो वहां से कोई यहां क्यों देखने जाएगा।

सब कुछ टैग लाइन होता जा रहा है। टैग लाइनें रचनात्मकता से पैदा होने वाली कबाड़ है। आप होर्डिंग्स को देखिये। एक होर्डिंग में कई तरह की टैग लाइनें ठूंस दी गईं हैं। कई चेहरे मुंह फुलाये मुस्करा रहे हैं कि आपका नए साल से लेकर लोहड़ी तक के लिए स्वागत है। क्यों है भाई स्वागत। क्या हमने कहा था कि समाजवादियों, भाजपाइयों, कांग्रेसियों आप सब हमारा स्वागत करो। देखो भूल मत जाना। आप स्वागत नहीं करोगे तो भारत के ये तीज त्योहार उजाड़ हो जाएंगे। त्योहारों के नाम पर जो स्लोगन कचरा पैदा हो रहा है वो भयानक है। जैसे ई-कचरा होता है वैसी ही स्लोगन-कचरा होता है।

लाल बत्ती पर ख़्वामख़ाह इन होर्डिंग को देखकर दिमाग भन्नाता रहता है। अब तो गणतंत्र दिवस को लेकर जितना उत्साह होता है उससे कहीं ज्यादा ये डर बैठ जाता है कि अगली बत्ती पर फिर कोई पप्पू गुड्डू गणतंत्र दिवस की बधाइयों दे रहा होगा। बधाई के पोस्टर में अपने दो चार बड़े नेताओं को भी ऊपर कोने में ठेले रहता है। पप्पू यह नहीं बताता कि उसने गणतंत्र के लिए क्या किया है लेकिन चलो भाई बधाई दे रहा है यही क्या कम है।

गणतंत्र दिवस पर इससे अच्छा अहसान क्या हो सकता है कि शहर के चप्पे चप्पे को कचरामय कर दो और बधाई दे दो। कचरा फैलाने की बधाइयां आपने दुनिया के किस शहर में देखी हैं जी। आए दिन निगम वाले ऐसी होर्डिंग हटाते रहते हैं, लेकिन होर्डिंग वाले हैं कि आपकी आंखों में ठेलने के लिए कहीं भी खड़े हो जाते हैं। एक दिन हमारी राजनीति निगम वालों को गणतंत्र विरोधी घोषित कर देगी। दिल्ली के निज़ामुद्दीन पुल से गुज़र के देखिये। समझ में नहीं आता है कि सामने की कार देखें या होर्डिंग।

इसलिए राजनीति में सोचने की क्रिया को प्रोत्साहित कीजिए। पहले मकसद साफ कीजिए कि दिल्ली के लिए दिल से क्या करना है। सड़क बनानी है तो वो बिना दिल के भी किया जा सकता है। कालेज भी आप बिना दिल के कर सकते हैं। बस दिमाग़ और बजट की ज़रूरत है। हां, इन सब कामों में दिल लगा दें तो जनता का भला हो जाएगा। जनता तो वोट दे ही देती है जनाब। लेकिन दिल तो आप लगाते नहीं हैं। दिमाग वहां लगा देते हैं ताकि कोई जान ही न पाए कि इन होर्डिंग विज्ञापन में लगने वाला धन कहां से आया। हज़ारों लाखों लोगों को रैली के लिए ले जाने पहुंचाने के लिए पैसा कहां से आया। किसी को कुछ पता नहीं है कि राजनीति में हो क्या रहा है। बस दिल दे दीजिए। ऐसे कैसे दिल दे दें। पता तो चले कि महबूब हमारे दिल के काबिल भी है या नहीं।

इसलिए इन स्लोगनों से बचिये। आप मुद्दे देखिये। दिल्ली दिल से कोई मुद्दा नहीं है। साबुन और राजनीतिक दल के विज्ञापन में कोई फर्क ही नहीं रहा। राजनीति सत्ता और समाज को बदलने का ज़रिया है। इस पर बहस कीजिए कि इस दिशा में कोई दिल से क्या बात कर रहा है। कोई दिल से क्या कर रहा है। दिल की बात करतें हैं तो ये नहीं होगा कि ये वाला दिल हिन्दू का और वो वाला दिल मुसलमान का। ये पाकिस्तान का वो हिन्दुस्तान का। दिल होता है इंसानियत के लिए। एक ऐसा समाज बनाने के लिए जहां हम दिल की बात कह सकें। दिल का कहा सुन सकें और किसी के दिल को ठेस न पहुंचाएं, लेकिन इसके लिए सिर्फ दिल्ली ही एकमात्र दिलवाली है यह बात बेकार है।

कोई भी शहर दिलवाला हो सकता है। दिल से आप गोवा से लेकर गुजरात और अरुणाचल से लेकर त्रिपुरा तक के लिए काम कर सकते हैं। इसलिए प्लीज़ पोलिटिक्स को इस दिलबाज़ी से दूर रखिये। पूछिये कि क्या हुआ है और क्यों नहीं हो रहा है। क्यों गरीब हाशिये पर जा रहा है, नौकरियां नहीं हैं, फिर इस मंदी में भी राजनीतिक दलों के पास विज्ञापन और महंगी रैलियों के लिए पैसे की कमी नहीं है। ये सब आ कहां से रहा है ये भी तो पूछिये दिल से।

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
रवीश कुमार, दिल्ली भाजपा, दिल्ली में रैली, दिल्ली के स्लोगन, दिल्ली दिल से, Delhi BJP, Rally In Delhi, Delhi Slogan, Dilli Del Se
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com