मायावती से लेकर स्मृति ईरानी और स्वाति सिंह तक, कुछ भी तो नहीं बदला...

मायावती से लेकर स्मृति ईरानी और स्वाति सिंह तक, कुछ भी तो नहीं बदला...

हमारी राजनीति की दो मातृभाषा हैं। प्रेस कॉन्फ्रेंस या कार्यकारिणी की भाषा अर्द्ध-लोकतांत्रिक होती है, और धरना-प्रदर्शनों तक आते-आते उसकी भाषा सामंतवादी होने लगती है। कई बार बड़े-बड़े नेता भी भाषा के लिहाज़ से फ़ेल हुए हैं। अब एक नया चलन आया है। नेता अपने समर्थकों को खास तरह की मर्दवादी, स्त्रीविरोधी, सामंतवादी और सांप्रदायिक भाषा के लिए उकसा रहे हैं। पार्टियां ऐसी भाषा के लिए आईटी सेल के नाम से कारखाना लगा रही हैं। समर्थक और विद्वान तक गुंडागर्दी के इस कारखाने को अपना सक्रिय और मौन समर्थन दे रहे हैं। यह इसलिए हो रहा है, क्योंकि सख्ती और निगरानी के तमाम उपायों के कारण राजनीति में गुंडा होना और रखना असंभव होता जा रहा है, इसलिए भाषा में गुंडे पैदा किए जा रहे हैं। ऐसे गुंडे, जो अपने नेता के लिए गुंडई की ज़ुबान बोलने से ज़्यादा लिखते हैं।

लखनऊ के हज़रतगंज चौराहे पर बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के कार्यकर्ताओं ने जिस भाषा का प्रयोग किया है, वह शर्मनाक है। यह ठीक वही भाषा है, जिसका प्रयोग भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) नेता दयाशंकर सिंह ने किया है। लेकिन अब दयाशंकर सिंह और उनकी बेटी के बारे में सामंतवादी और मर्दवादी शब्दों का इस्तेमाल सही नहीं था। बीएसपी को भी बीजेपी की तरह इस पर कुछ प्रतिक्रिया देनी चाहिए। मुझे मायावती की बात ठीक लगी कि उनके समाज के लोग उन्हें देवी समझते हैं और जिस तरह दूसरे लोग अपनी देवी के खिलाफ अपशब्द इस्तेमाल होने पर गुस्सा जाते हैं, उसी तरह से यह उनका गुस्सा है। लेकिन इसी जवाब में एक समस्या भी है। मायावती जिस गाली का विरोध कर रही थीं, उसी गाली को जायज़ भी ठहराने लगीं। गुस्सा जायज़ हो सकता है, गाली जायज़ नहीं हो सकती।

हज़रतगंज चौराहे पर जो भाषा बोली गई, वह प्रतिरोध की भाषा नहीं है, अंध आक्रोश की है। यह वही भाषा है, जो सामंतवाद की भाषा है। कोई राजनीतिक दल तब तक नया विकल्प नहीं बन सकता, जब तक वह भाषा के मामले में भी विकल्प तैयार न करे। दयाशंकर सिंह ने मायावती को वेश्या बोलकर उस सीमा को छू दिया, जिसके बाद सब्र का बांध टूट जाता है, लेकिन जवाब में उसी भाषा का इस्तेमाल कर बीएसपी कार्यकर्ताओं ने बता दिया कि वे भी गुस्से में कुछ अलग नहीं हैं।

यह घटना बताती है कि भारतीय राजनीति में स्त्री-विरोधी मानसिकता एक पैटर्न है। यह मानसिकता वामपंथ में भी है, दक्षिणपंथ में भी है, उदारवादी धारा में भी है और दलित आंदेलन में भी है। मायावती के लिए लखनऊ की सड़कों पर बीएसपी की महिला कार्यकर्ताओं का हुजूम होता तो शायद वहां दयाशंकर जैसी भाषा प्रतिरोध की भाषा मानी जा सकती थी, मगर पुरुषों के हुजूम ने उसी भाषा संस्कार को हड़प लिया, जिससे दयाशंकर जैसे मर्द आते हैं। वे गाली देते हुए प्रतिकार कम कर रहे थे, अपनी भाषा संस्कार का मुज़ाहिरा ज़्यादा कर रहे थे।

सवर्ण का गाली देना और दलित का गाली देना एक समान नहीं होता। सदियों से सुनते-सुनते दलित जब गाली सुना देता है, तो यह सवर्णों की भाषा में उसका जवाब होता है। हो सकता है, मायावती के समर्थकों का गुस्सा वैसा ही हो। मायावती को गाली देने की संस्कृति मान्य होती जा रही थी। आम बातचीत में बहुत कम नेताओं को उनके बारे में आदर से बोलते सुना है। इन नेताओं में जाति का अहंकार आ ही जाता है। फिर भी लखनऊ में एक पार्टी के बैनर के तहत यह सब हुआ। वहां भाषा से ज़्यादा संख्या बड़ी थी, लेकिन भाषा के गलत इस्तेमाल ने संख्या छोटी कर दी।

अभी तक दलित आंदोलनों की मुख्य रूप से यही पहचान रही है कि उनका तेवर अहिंसक संविधानवादी होता है। हिंसक आंदोलन भी हुए हैं, मगर दलित आंदोलन इस बात को लेकर खासतौर से सचेत रहा है कि हिंसा न हो और अपनी ताकत का इज़हार शालीनता से किया जाए। एक शब्द के इस्तेमाल से बीजेपी के लिए दयाशंकर सिंह की जातिगत उपयोगिता समाप्त हो गई। ऐसे कई शब्दों के लिए बीएसपी को भी अपनी उपयोगिता के बारे में सोचना चाहिए। बीजेपी ने दयाशंकर सिंह को निकालकर ठीक काम किया। बीएसपी को भी कुछ ऐसा ही ठीक काम करना चाहिए। खेद प्रकट करना चाहिए।

संसद में सभी दलों ने मायावती का साथ दिया। बीजेपी ने भी सदन की भावना समझी। हाल के दिनों में गाली-गलौज की भाषा को खूब बढ़ावा दिया गया है। उसकी प्रतिक्रिया में दूसरे लोग भी उसी प्रकार की भाषा बोल रहे हैं। खासकर महिला नेताओं के खिलाफ इस तरह की भाषा लगातार बोली जा रही है। कमज़ोर लोगों के खिलाफ ऐसी भाषा बोली जा रही है। गुजरात के दलित युवकों को कार से बांधकर मारना भी एक किस्म की भाषा है। मीडिया ने मारने का दृश्य ही रिकॉर्ड किया है। मारते-मारते उन जवानों को क्या गाली दी गईं, यह कौन जानता है। एल्यूमिनियम की लाठी से मारते वक्त गोरक्षक गुंडे मंत्र का जाप तो नहीं ही कर रहे होंगे।

बीएसपी समर्थकों ने दयाशंकर सिंह की पत्नी और बेटी को गाली देकर ठीक नहीं किया। इसके प्रतिकार में दयाशंकर सिंह की पत्नी भी वही भाषा बोल रही हैं, जिससे उन्हें ऐतराज़ होना चाहिए। उनकी बारह साल की बेटी की तो यह भाषा नहीं हो सकती, जो 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में छपी है। दयाशंकर सिंह की 12-वर्षीय बेटी के हवाले से कहा गया है, "नसीम अंकल, मुझे बताएं, कहां आना है, आपके पास पेश होने के लिए..." ज़ाहिर है, उनकी बेटी ने यह भाषा घर से हासिल की होगी। शायद घटना की प्रतिक्रिया में घर वालों को बोलते सुना होगा।

स्वाति लखनऊ विश्वविद्यालय में लेक्चरर रही हैं। क्या यह उनकी भाषा है, जिसे बेटी ने हासिल किया... क्या एक पाठक को इसमें कुछ भी असामान्य नहीं लगता। स्वाति ने किसी अज्ञात जगह से अंग्रेज़ी के एक अख़बार को इंटरव्यू दिया हैं। स्वाति को बीएसपी समर्थकों की भाषा से यातना हो रही है, लेकिन अपने पति की भाषा से यातना क्यों नहीं हो रही है। वह जिस तरह बीएसपी नेताओं की अभद्र ज़ुबान के लिए निंदा करती हैं, उसी तरह अपने पति की निंदा नहीं करतीं। वह बीएसपी नेताओं की गाली से सहानुभूति तो पाना चाहती हैं, मगर मायावती को वेश्या कहा गया, इससे उन्हें कोई सहानुभूति नहीं लगती। कम से कम उस एक इंटरव्यू से तो यही लगता है। वह बीएसपी के लोगों के खिलाफ एफआईआर चाहती हैं, लेकिन क्या वह अपने पति के खिलाफ भी एफआईआर करवाएंगी...?

स्त्री-विरोधी भाषा संसार में हमारी स्त्रियां भी फंसी हैं, जैसे सामंतवादी जातिवादी ढांचे में हमारे दलित भी फंसे हैं। स्मृति ईरानी, मायावती, स्वाति और हम सब। कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी, सपा और आरजेडी सब। इस ढांचे से रोज़ तोड़कर थोड़ा-थोड़ा बाहर आना पड़ता है। हमारा गुस्सा हमें क्षण भर में हमारे भीतर बैठे सामंतवाद की छत पर ले आता है और हम वही करने लगते हैं, जिसके खिलाफ हमें गुस्सा आता है।

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