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This Article is From Jan 15, 2015

रवीश कुमार की कलम से : किरण बेदी... क्या भाजपा में...?

Ravish Kumar, Vivek Rastogi
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  • Updated:
    जनवरी 15, 2015 17:04 pm IST
    • Published On जनवरी 15, 2015 13:57 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 15, 2015 17:04 pm IST

फिर से चर्चा होने लगी है कि किरण बेदी भाजपा में आ सकती हैं। पिछले दो चुनावों से पहले दिल्ली में यह चर्चा कहीं से उठती है और हवा में घूमने लगती है। किरण बेदी ने हमेशा की तरह इस बार भी लेख लिखे जाने तक खंडन या सहमति नहीं जताई है। शायद उनकी शख्सियत का असर है कि लगने लगता है कि वह अरविंद केजरीवाल का जवाब हो सकती हैं।

अगर किरण बेदी भाजपा में आती हैं तो यह बीजेपी की रणनीति में एक बड़ा बदलाव होगा। अभी तक वह हर जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकप्रिय चेहरे पर ही चुनाव जीतते जा रही है। महाराष्ट्र हरियाणा, झारखंड की जीत सब जानते हैं। जम्मू-कश्मीर की कामयाबी भी कोई मामूली नहीं है। दिल्ली विधानसभा चुनाव को लेकर भी बीजेपी बार-बार कहती रही है कि यहां भी पार्टी का चेहरा प्रधानमंत्री हैं। दिल्ली में लगे भाजपा के तमाम पोस्टरों पर किसी दिल्ली के नेता का फोटो भी नहीं है। हर स्लोगन और वादे के साथ सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं।

तो क्या बीजेपी यह मान लेगी कि दिल्ली में उसे मोदी के अलावा किसी और चेहरे की भी ज़रूरत है। बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष तो यही कहते रहे हैं कि दिल्ली में भी भाजपा मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के साथ चुनाव में नहीं जाएगी। मोदी से बड़ा चेहरा कोई नहीं है। आम आदमी पार्टी ने इसे कमज़ोरी समझा और बिना घोषणा के ही अपनी तरफ से जगदीश मुखी को उम्मीदवार बना दिया। मुखी को कमज़ोर जान 'आप' ने तमाम तरह के सर्वे दिल्ली के ऑटो पर चिपका डाले।

इसका नतीजा यह हुआ कि पिछली बार की तरह इस बार भी 'आप' ने चुनाव से पहले ही बीजेपी के एक नेता को हाशिये पर धकेल दिया। बीजेपी दिल्ली के इस पुराने और जमे हुए नेता का बचाव नहीं कर सकी। पार्टी को लगा कि जगदीश मुखी केजरीवाल के सामने टिक नहीं पाएंगे, लिहाज़ा वह अपने-आप हाशिये पर चले गए। पहले भी मुख्यधारा में नहीं थे। ऐसा ही आम आदमी पार्टी ने विजय गोयल के साथ किया था।

'आप' की यही रणनीति इस बार भी लगती है। बुधवार को अरविंद केजरीवाल ने बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय को घेर लिया। दोनों तरफ से आरोप-प्रत्यारोपों के दौर चल रहे हैं, लेकिन सतीश उपाध्याय के बैकफुट पर जाते ही क्यों किरण बेदी का नाम फिर से हवा में उछाला जाने लगा है। क्या बीजेपी अभी भी दिल्ली के भीतर एक नेता ढूंढ रही है। क्या यह हो सकता है कि लोकसभा चुनाव की शानदार कामयाबी के बाद भाजपा हर चुनाव मोदी के नाम पर लड़ने का फॉर्मूला बदल देगी।

अगर बीजेपी ने ऐसा किया तो इसकी जीत भी आम आदमी पार्टी के खाते में जाएगी। 'आप' ही बार-बार पूछ रही है कि बताइए, मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है। पार्टी गर्व से मोदी का नाम ले लेती थी और 'आप' के लिए मोदी पर सीधा हमला करने में दिक्कत आती थी, लेकिन किरण बेदी के आते ही मुकाबला बराबरी-सा तो हो ही जाएगा, दिलचस्प और मार-काट वाला भी हो जाएगा।

किरण बेदी राजनीति नहीं करना चाहती। इसी सवाल पर वह आम आदमी पार्टी से किनारा कर गईं थीं, लेकिन ट्विटर पर नरेंद्र मोदी का समर्थन करती रही हैं। जवाब किरण बेदी को देना पड़ेगा कि राजनीति में आने का फैसला किसी बड़े पद के वादे के साथ रुका हुआ था या यह कोई विशेष परिस्थिति है, जिससे बचाने के लिए वह अपना बलिदान दे रही है, लेकिन लोकसभा चुनावों के दौर में जब भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कांग्रेस के साथ किरण बेदी का नाम उछलता था तो वह आसानी से चुनाव लड़ने से मना कर देती थीं। लोकपाल और पुलिस सुधारों को लेकर किरण बेदी काफी मुखर रही हैं, लेकिन इन दोनों ही मसलों पर वह पिछले कुछ महीनों से शांत हैं। इन दोनों ही मसलों पर उनका कोई संघर्षनुमा बयान नहीं दिखा है।

यह सवाल पूछा जाएगा कि राजनीति ही करनी थी तो तब अरविंद से किनारा क्यों किया। क्या पार्टी में चंदे के सवाल पर जिस पारदर्शिता की मांग किरण बेदी और केजरीवाल करते रहे हैं, क्या उसका जवाब बेदी को बीजेपी में मिल गया है। आमतौर पर किरण बेदी ने भी केजरीवाल को लेकर अभी तक संयम का परिचय दिया है। अलग होकर भी वह गरिमापूर्ण तरीके से आलोचनाओं और हमले से दूर रही हैं, लेकिन मैदान में उतरने पर तो सीधा अरविंद केजरीवाल को निशाने पर लेना होगा।

ईमानदार शख्सियतों के बीच मुकाबला ज़ोरदार होगा। बस फर्क यह होगा कि एक राजनीति के मैदान में दो साल से है। दिल्ली की गलियों में घूम रहा है। केजरीवाल के सामने किरण बेदी को कम समय में विश्वसनीयता बनानी होगी। शायद बीजेपी का संगठन और केंद्र में उसकी सरकार इस कमी को प्रचार माध्यमों से दूर कर दे, लेकिन लड़ाई होगी दिलचस्प।

ये सब अटकलें हैं। चुनाव के समय ऐसा होता है। अटकलें लेखन-विश्लेषण का हिस्सा बन जाया करती हैं, पर नज़र लगाए रखिए। किरण बेदी अगर बीजेपी में आईं तो सिर्फ एक उम्मीदवार के तौर पर नहीं देखी जाएंगी। बीजेपी भले घोषणा न करे, लेकिन मान ही लिया जाएगा कि बीजेपी की तरफ से मुख्यमंत्री की उम्मीदवार वही हैं। क्या बीजेपी आम आदमी पार्टी के पूर्व नेताओं के सहारे ही चुनाव लड़ेगी। शाज़िया इल्मी भी बीजेपी के लिए प्रचार करने की बात कर रही हैं। बिन्नी से लेकर उपाध्याय भी बीजेपी में आ चुके हैं, तो क्या मुकाबला लोकपाल आंदोलन से निकली दो टीमों के बीच होगा। फिर यह जीत बीजेपी की होगी या किरण बेदी इल्मी या केजरीवाल की। राजनीति विश्लेषण और अटकलें लगाने के कितने दिलचस्प मौके देती है। यलगार हो।

(यह लेख किरण बेदी के भाजपा में शामिल होने से कुछ घंटे पहले लिखा गया है)

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