PM to inaugurate golden jubilee celebrations of Poet Ramdhari Singh Dinkar's works 'Sanskriti ke Chaar Adhyaye' & 'Parshuram ki Pratiksha'
— Doordarshan News (@DDNewsLive) May 22, 2015
नई दिल्ली : जिस किताब की प्रस्तावना पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखी हो और जिसके साठ साल होने के जलसे में आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शिरकत कर रहे हों, वो किताब सिर्फ किताब नहीं, बल्कि एक घटना भी है। दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की रचना 'संस्कृति के चार अध्याय' की यात्रा निरंतर जारी है। यह किताब आज की भी किताब है। 'संस्कृति के चार अध्याय' के दूसरे संस्करण में दिनकर ने काफी बदलाव किए हैं। दूसरे संस्करण की भूमिका में दिनकर ने लिखा है, "पहले संस्करण के बाद जो विवाद हुआ उससे पता चलता है कि इस किताब से सबको तकलीफ़ पहुंची होगी। इस किताब के बारे में मंचों से जो भाषण दिए हए, उनसे यह पता चलता है कि मेरी स्थापनाओं से सनातनी भी दुखी हैं और आर्यसमाजी तथा ब्रह्मसमाजी भी। उग्र हिन्दुत्व के समर्थक तो इस ग्रन्थ से काफी नाराज़ हैं। मेरा विश्वास है कि मेरी कुछ मान्यताएं ग़लत साबित हो सकती हैं, लेकिन इस ग्रन्थ को उपयोगी माननेवाले लोग दिनोंदिन अधिक होते जाएंगे। यह ग्रन्थ भारतीय एकता का सैनिक है। सारे विरोधों के बीच वह अपना काम करता जाएगा।"
दिनकर ने लिखा है कि उनका यह महल साहित्य और दर्शन का है। इतिहास की हैसियत यहां किरायेदार की है। व्यापक शोध और नए नज़रिये के विकास से आप 'संस्कृति के चार अध्याय' की बातों के समानांतर कई बातें पेश कर सकते हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि यह किताब समन्वय से बन रही हमारी धार्मिकता और भारतीयता का मार्ग तलाश करती है। उन जड़ों पर सीधे हमला करती है जहां से सांप्रदायिकता की शाखाएं फूटती हैं। दिनकर हिन्दू और मुस्लिम सांप्रदायिक सोच पर गहरे चोट करते हैं। दिनकर के आर्य बाहर से आए हैं, जबकि आज के हिन्दुत्ववादी कथाकारों के आर्य स्थानीय हैं। दिनकर का इरादा बाहरी या भीतरी बताकर किसी धार्मिक हताशा या गौरव को उभारना नहीं है, बल्कि बिना भावनात्मक हुए इतिहास को आलोचनात्मक निगाह से देखना है। इस पुस्तक को पढ़ते हुए जैसे हिन्दुत्ववादी या आर्यसमाजी, वहाबी नाराज़ हो सकते हैं, वैसे ये अपने हिसाब से इस्तेमाल भी कर सकते हैं।
दिनकर लिखते हैं, "धार्मिकता की अति ने देश का विनाश किया, इस अनुमान से भागा नहीं जा सकता है और यह धार्मिकता भी ग़लत किस्म की धार्मिकता थी।" अगर आज के हिन्दुत्ववादी इसे पढ़ते हुए इस पंक्ति पर पहुंचे तो भड़क जाएंगे। दिनकर लिखते हैं, "जो वस्तुएं परिश्रम और पुरुषार्थ से प्राप्त होती हैं, उनकी याचना के लिए भी देवी-देवताओं से प्रार्थना करने का अभ्यास हिन्दुओं में बहुत प्राचीन था। अब जो पुराणों का प्रचार हुए तो वे देश रक्षा, जाति रक्षा और धर्म रक्षा का भार भी देवताओं पर छोड़ने लगे।"
ब्राह्मणों और बौद्ध के बीच कटु रिश्ते के बारे में दिनकर ने लिखा है कि उनके बीच सांप और नेवले का संबंध था। ब्राह्मणों ने कहावत चला दी थी कि जो व्यक्ति मरते हुए बौद्ध के मुख में पानी देता है, वह नरक में पड़ता है। अंग, बंग, कलिंग, सौराष्ट्र और मगध में जैन और बौद्ध कुछ अधिक थे, अतएव ब्राह्मणों ने इन प्रान्तों में जाने की धार्मिक तौर पर मनाही कर दी थी। "इस प्रकार हिन्दुओं ने जात-पात और धर्म की रक्षा की कोशिश में जाति और देश को बर्बाद कर दिया। भारतवर्ष में राष्ट्रीयता की अनुभूति में जो अनेक गाथाएं थीं, उनमें सर्वप्रमुख बाधा यही जातिवाद था। जात अगर ठीक है तो सब कुछ ठीक है। धर्म अगर बचता है तो सब कुछ बचता है। इस भावना के फेर में हिन्दू इस तरह पड़े कि देश तो उनका गया ही जात और धर्म की भी केवल ठठरी ही उनके पास रही।"
मैं जब यह किताब पढ़ रहा हूं तो उन्हीं संदर्भों को चुन रहा हूं, जिनसे सांप्रदायिकता और धार्मिकता की पहचान को कुछ आलोचनात्मक नज़र से देखा जा सकता है। लेकिन यह किताब पढ़ते हुए आप भले कई बातों से सहमत न हों, भारतीय संस्कृति के समन्वयी रूप से परिचित तो होते ही हैं। दिनकर भारतीयता के निर्माण को हिन्दू पराजय या मुस्लिम विजय के चश्मे से नहीं देखते। वे उन धार्मिक पहचानों और कुरीतियों पर हमला करते हैं, जिनसे हमारी सोच जड़ हो जाती है।
"यदि खुसरो को हिन्दुस्तान ने अपने आदर्श मुसलमान के रूप में उछाला होता तो हिन्दुस्तान की कठिनाइयां कुछ न कुछ कम हो जाती हैं। आज भी मौका है कि हम खुसरो को आदर्श भारतीय मुसलमान के रूप में जनता के सामने पेश करें।" दिनकर संस्कृति की इस यात्रा में सांप्रदायिकता के सवालों से काफी जूझ रहे हैं। वो हल का रास्ता खोज रहे हैं। लिखते हैं कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के हमारे देश में तीन बड़े नेता कबीर, अकबर और महात्मा गांधी हुए हैं। एक जगह लिखते हैं कि वह हिन्दू अन्य हिन्दुओं से श्रेष्ठ है, जो अपने धर्म के सिवा इस्लाम पर भी श्रद्धा रखता है और वह मुसलमान भी अन्य मुसलमानों से श्रेष्ठ है, जो अपने मज़हब के सिवा हिन्दू धर्म का भी सम्मान करता है।
कबीरदास विद्रोह के अवतार थे। वेद, वर्णाश्रम-धर्म और जात-पात का विरोध उन्होंने उसी निर्भीकता से किया जो निर्भीकता बुद्ध में दिखाई पड़ी। इस्लाम के अनुष्ठानों की आलोचना उन्होंने उसी बहादुरी से से की, जिस बहादुरी के कारण पहले मनसर और, बाद में सन्त सरमद को शहीद होना पड़ा था। हिन्दू-मुस्लिम समस्या का समाधान उन्हें ठीक दिखाई पड़ा था। कबीर को गुज़रे पांच सौ साल हो गए हैं और आज भी हम यही सोचते हैं कि जब तक भारतीय समाज, पूर्णरूपेण, वेदान्त को अपना आधार नहीं बनाता, हिन्दू-मुस्लिम समस्या का भारत को कोई समाधान नहीं मिलेगा।
आप सोच सकते हैं कि संघ परिवार इन पंक्तियों को पढ़ते हुए कितनी करवटें बदलेगा। दिनकर वेदान्त को अलग नज़रिये से देखते हैं। कहते हैं, "वेदान्त हिन्दू-दर्शन ज़रूर है, लेकिन वह हिन्दुत्व नहीं है। सच्चा वेदान्ती न हिन्दू होता है, न मुसलमान, न बौद्ध या क्रिस्तान( ईसाई), वह केवल अच्छा आदमी होता है। धर्म के आनुष्ठानिक रूप यदि महत्व पाते रहे तो विश्व के धर्मों में कभी एकता नहीं हो सकेगी। मुसलमान कहता रहेगा कि हिन्दू यदि बाजे बजाएंगे तो मेरी नमाज़ में बाधा पड़ेगी और हिन्दू चीखता रहेगा कि मुसलमान यदि गोहत्या करेंगे तो मैं अपनी जान दे दूंगा। तब भी हर बुद्धिमान जानता है कि धर्म की समाधि सड़क पर होने वाले शोर से नहीं टूटती और एक व्यक्ति मांस-भक्षण करता है तो उसके पाप की जिम्मेवारी किसी दूसरे मनुष्य के मत्थे नहीं मढ़ी जाएगी। इसी बुद्धि को मन में बसा लेना और उसके अनुसार आचण करना वेदान्त है।"
दिनकर हिन्दुत्व और इस्लामी कट्टरता पर बराबरी से प्रहार करते हैं। लिखते हैं कि इस्लाम प्रभावित होने से डरता है, क्योंकि संशोधित, प्रभावित या सुधरा हुआ इस्लाम, इस्लाम नहीं है। उधर हिन्दुत्व हमेशा इस बात का अभिमानी रहा है कि हिन्दू हिन्दुत्व के भीतर चाहे पतित ही समझा जाए, किन्तु जन्मना वह सभी से श्रेष्ठ है। इस्लाम की वह कट्टरता कि हमारा वही रूप ठीक है जिसे नबी ने परिवर्तित किया था और हिन्दुत्व का यह आग्रह कि धर्म के मामले में हमें किसी से कुछ सीखना नहीं है, ये दोनों बातें दीवार बनकर इस्लाम और हिन्दुत्व के बीच खड़ी हैं।
इसलिए दिनकर अमीर खुसरो और कबीर का सहारा लेते हैं। 'संस्कृति के चार अध्याय' का पाठ करना चाहिए। इस किताब से आप काफी कुछ सीखते हैं। कम से कम सांप्रदायिकता और धार्मिक पहचान की राजनीति के ख़तरे को आप संतुलित नज़रिये से देख पाते हैं। आज सरकार बदलते ही इतिहास लेखन को माक्सवादी विरोध के नाम पर एकतरफा किया जा रहा है। उसमें एक धर्म या चंद जातियों के गौरव का गान हो रहा है उन्हें 'संस्कृति के चार अध्याय' पढ़ना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही अपने सांसदों या संघ परिवार के चंद नेताओं के सांप्रदायिक बयानों पर चुप्पी साध जाते हों, लेकिन 'संस्कृति के चार अध्याय' के साठ होने के जलसे में शिरकत कर रहे हैं, यह भी एक बड़ी बात है। इसके लिए उन्हें बधाई। जो बात आप ख़ुद नहीं बोल सकते, वो 'संस्कृति के चार अध्याय' बोल देगी।