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This Article is From Jun 24, 2016

क्या ब्रिटेन और यूरोपियन यूनियन के बहाने असली मुद्दे पर बात होगी...?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 24, 2016 09:59 am IST
    • Published On जून 24, 2016 09:59 am IST
    • Last Updated On जून 24, 2016 09:59 am IST
ब्रिटेन यूरोपियन यूनियन से बाहर जाता दिख रहा है। जनमत संग्रह के नतीजों में बाहर निकलने वालों का प्रतिशत बढ़त बनाए हुए है। दुनियाभर में इन नतीजों के दूरगामी और तात्कालिक प्रभावों का अध्ययन और अनुमान लगाया जा रहा है। यह फैसला ब्रिटेन को लंबे समय के लिए बदल देगा। ब्रिटेन की राजनीति भी अब कुतर्कों का बंडल बन जाएगी, जैसे भारत की राजनीति हो गई है। यूरोप और अमेरिका तक की राजनीति में कुतर्की दक्षिणपंथी उभार हो ही रहा है।

जानकार इसे दक्षिणपंथ और धुर दक्षिणपंथ के विस्तार के रूप में देखेंगे, लेकिन दक्षिणपंथ के पास क्या इस संकट का समाधान है...? ज़ाहिर है, नहीं है। नेता गुस्से का चाहे जितना लाभ उठा लें और स्वर्णयुग लाने का वादा कर लें, मगर मौजूदा आर्थिक नीतियों के संकट में कोई नहीं झांक रहा है। दक्षिणपंथी पार्टियां पहचान और सामुदायिक नफरत की भावना फैलाकर तरह-तरह के ईवेंट रच रही हैं। क्रोध और नफरत का मेला लगाया जा रहा है। बड़े-बड़े आयोजनों की रूपरेखा के पीछे मंशा यही है कि दक्षिणपंथ की तरफ मुड़ी जनता का मोहभंग इतनी जल्दी न हो जाए। किसी भी मुल्क में दक्षिणपंथी पार्टियों ने अर्थसंकट का स्थायी समाधान नहीं किया है। समाधान के नाम पर तरह-तरह के ग्लोबल और लोकल ईवेंट हैं।

ब्रिटेन का फैसला बता रहा है कि जिन लोगों को नौकरियां नहीं मिली हैं, वे ख़ुद को इस ग्लोबल नवउदारवादी दौर में ठगा महसूस कर रहे हैं। जिन्हें नौकरियां मिली हैं, उनका भी बड़ा तबका ठगा महसूस कर रहा है। फ्रांस में चल रही मज़दूरों की हड़ताल देखिए। भले ही वह सारे फ्रांस की हकीकत न हो, मगर मार्च से लेकर अब तक जारी है। ब्राज़ील भयानक मंदी की चपेट में है। हिलेरी क्लिंटन कह रही हैं कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था अस्तव्यस्त हो गई है। दो साल पहले भारत में जो दलील दी जा रही थी, ठीक वही हिलेरी कह रही हैं। उनका कहना है कि वाशिंगटन डीसी की नौकरशाही बेलगाम और बेपरवाह हो गई है। भारत में इसे policy paralysis के नाम से प्रचारित किया गया था। अब अमेरिका में तो सबसे ताक़तवर बराक ओबामा थे। क्या वहां भी मनमोहन सिंह थे...?

मूल सवाल यह है कि हम इस संकट का सही अपराधी नहीं खोजना चाहते। कभी नौकरशाही, कभी कमज़ोर नेता का शिगूफ़ा ले आते हैं। क्या अमेरिका, फ्रांस, ब्राज़ील और ब्रिटेन की सत्ता शिखर पर भी कमज़ोर नेता हैं। आर्थिक नीतियों का संबंध नेताओं की शारीरिक चुस्ती और राजनीतिक बहुमत से नहीं है। ट्रेडमिल पर आर्थिक नीतियां नहीं बनती हैं। इस वक्त जो भी अर्थव्यवस्था हमारे सामने हैं, दुनिया के किसी भी हिस्से में सबको अवसर देने में नाकाम हैं। सारी संस्थाओं का निजीकरण कर बाज़ार के हवाले कर दिया गया, लेकिन लोगों को उस बाज़ार से कुछ नहीं मिला। स्कूल-कॉलेज-अस्पताल सब कुछ महंगा है। सब एक अधूरे सपने के पीछे भाग रहे हैं। सारे मज़बूत नेता दुनिया को टहला रहे हैं। 2008 की मंदी से निपटने का सपना दिखाते रहे। इसके नाम पर कॉरपोरेट को जनता के लाखों करोड़ सौंप दिये गए, फिर भी मंदी नहीं गई। अरबों-ख़रबों हवा हो गए। अब खुद कह रहे हैं कि मंदी चल रही है। आठ साल से मंदी चल रही है।

नवउदारवाद के आर्थिक विचार अब दरकने लगे हैं। अवसरों को ग्लोबल रूप देने का अभियान ध्वस्त हो रहा है। मेरे यहां की नौकरी उनके यहां क्यों जाए, अब इसकी राजनीति ज़ोर पकड़ रही है। इमिग्रेशन और नौकरियों को लेकर हो रही राजनीति बता रही है कि एक बड़े तबके का धीरज समाप्त हो गया है। विकल्प के रूप में किसी के पास नया आर्थिक आइडिया नहीं है। जो भी है, वह पहले फेल हो चुका है।

ग्लोबल स्तर पर मुल्कों के नए-नए समूह बन रहे हैं। कहीं ब्रिक्स है, कहीं एससीओ है, कहीं कुछ और है। पचासों प्रकार के ये कूटनीतिक संगठन बताते हैं कि नवउदारवाद दुनिया के समाज को ग्लोबल नागरिकों के समाज में नहीं बदल सका। इसका असर और भयानक होने वाला है। कुतर्की दक्षिणपंथी नेता राष्ट्रवादी जुमलों से फटीचर किस्म के स्वाभिमान की राजनीति तो रच देंगे, मगर समाधान उनके पास भी नहीं है।

ब्रिटेन के नागरिकों का गुस्सा सिर्फ ब्रिटेन में नहीं है, सिर्फ ट्रंप के समर्थकों में नहीं है। हिलेरी भी कई तरीके से ट्रंप की ही बात कह रही हैं। भारत में भी मुंबई में है, बिहार में है, गुजरात में है। हर जगह अवसरों के विस्तार को लेकर संघर्ष है। बिज़नेस बढ़ाकर अवसर पैदा करने के अभियानों के पास अनंत आकाश नहीं है। अब यह दिख रहा है। दिख तब भी रहा था। नवउदारवाद को लेकर तमाम आशंकाएं सही साबित हो रही हैं। अफ़सोस यह है कि किसी के पास कोई उम्मीद नहीं है। किसी के पास कोई नया आइडिया नहीं है। कोई किसी का असफल आइडिया चुरा रहा है, कोई किसी का सफल आइडिया।

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