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झूला झुलाए पापा, सोये राधिका

मेधा
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 11, 2025 20:24 pm IST
    • Published On जुलाई 11, 2025 19:51 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 11, 2025 20:24 pm IST
झूला झुलाए पापा, सोये राधिका

निंदिया है सपना है

चंदन का पलना है

झूला झुलाए पापा

सोये राधिका

हो सकता है राधिका के बचपन में उसके पिता ने यह लोरी उसे नहीं सुनाई होगी, लेकिन लोरी का भाव तो जरूर ही रहा करता होगा, उनके मन में. कभी उसे कंधे पर बिठाया होगा. पुचकारा होगा. ना जाने कितनी बार उसके बालहठ को पूरा किया होगा. उसके लिए इंद्रधनुषी सपने सजाए होंगे. बिना भावनात्मक लगाव के कोई पिता भला कैसे अपनी बेटी को अंतरराष्ट्रीय स्तर का टेनिस खिलाड़ी बना सकता है. पुलिस का कहना है कि आज सुबह गुड़गांव में हुई पच्चीस साल की राधिका यादव की हत्या में उनके पिता दीपक यादव का हाथ है.

राधिका की हत्या उसके घर के भीतर उसके पिता के लाइसेंसी रिवाल्वर से हुई है. वो कई सालों से गुड़गांव में टेनिस एकेडमी चला रही थी. राधिका के पिता का कहना है कि उनके बीच टेनिस एकेडमी चलाने को लेकर मतभेद थे. इतना तो सहज ही समझा जा सकता है कि इतनी सी बात पर कोई पिता अपनी बेटी की हत्या के बारे में नहीं सोच सकता. हो न हो बात कहीं आन-बान और शान की होगी. ऐसी ही एक घटना जनवरी के महीने में पाकिस्तान के बलूचिस्‍तान इलाके में हुई, जहां पच्चीस साल अमेरिका में रहकर आए एक परिवार के पिता ही अपनी 17 साल की बेटी का अस्तित्व दुनिया से मिटाने का कारण बन गए. पिता का कहना था कि उनकी बेटी बार-बार कहने पर भी टिक टॉक अकांउट बंद नहीं कर रही थीं. उन्हें अपनी बेटी से शिकायत थी कि वो टिक टॉक पर अश्लील सामग्री डालती थी.

ये दोनों घटनाएं तो उदाहरण मात्र हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार भारत में स्त्रियों के प्रति हिंसा की घटना चिंताजनक ढंग से बहुत तेज रफ्तार से बढ़ रही है. इसमें हरियाणा अव्वल दर्जे पर है. दुनिया के बाकी हिस्सों में भी खबर कोई बहुत अच्छी नहीं है. ऊपर बताई गई दोनों ही घटनाएं ऑनर किलिंग की जान पड़ती हैं. हो सकता हो यह सच हो भी और सच नहीं भी हो. जब तक तहकीकात पूरी नहीं हो जाती और फैसला नहीं आ जाता, तब तक पूरी तरह से ऐसा कहना सही नहीं होगा, लेकिन इस सच से तो कोई इनकार नहीं कर सकता है कि हत्या तो हुई और दो मासूम बेटियों की अपने ही घरों में हुई है. आखिर उस समाज के मानस में हिंसा किस कदर घर करके बैठी है, जहां न तो मां के गर्भ में और न ही अपने घर में बेटी सुरक्षित है.

हत्‍या के पीछे दो पीढ़ियों के बीच टकराव!

इन दोनों ही हत्याकांडों में दो पीढ़ियों के बीच टकराव का संदर्भ भी देखा जा सकता है, लेकिन पिताओं का यह टकराव तो बेटों के साथ भी होता ही है. हालांकि वहां अक्सर बात हिंसा के चरमोत्कर्ष यानी हत्या तक नहीं पहुंचती है. जाहिर है कि यहां बात केवल दो पीढ़ियों के टकराव भर की नहीं है. उससे कहीं ज्यादा है. पितृसत्ता की संरचनात्मक हिंसा इसकी एक बड़ी वजह तो है ही. स्त्री को कुल की मर्यादा से जोड़कर देखा जाना भी ऑनर किलिंग की वजह होती है. लेकिन अति उपभोगतावादी इस साइबर युग में जहां हर ओर हिंसा और यौनिक स्वच्छंदता के व्यवहार की बाढ़ आई है, वहां तो परिवार और व्यक्ति सभी तरह की मर्यादाओं से बाहर होते नजर आ रहे हैं.

तथ्यों को देखें तो परिवार के टूटने का आंकड़ा पिछले पांच सालों में बहुत तेजी से बढ़ा है. वहां भला हम कैसे ऐसे व्यक्ति का निर्माण कर सकेंगे चाहे वो पिता हो या पुत्री जो अहिंसा और अन्य नैतिक मूल्यों को जीवन में उतार सकें. परिवार और समाज की पुरानी संरचना तो ढहती जा रही है, लेकिन नई संरचना पर काम नहीं हो रहा.

समाज में कैसे बंद होंगी ऐसी घटनाएं?

तो सवाल यह है कि आखिर समाज में इस तरह की घटनाएं कैसे बंद होंगीं? क्या इन मामलों में केवल कानून कारगर हो सकते हैं? स्त्रियों पर हिंसा की एक वजह तो यह भी है कि तमाम बौद्धिक और आर्थिक सफलताओं के बाद भी स्त्री को पुरुष अपने से कमजोर मानता है और अपना मातहत समझता है. अपने से कमजोर पर अत्याचार किसी स्वस्थ समाज की निशानी नहीं हो सकती. मनोवैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि बहुधा हिंसा वही लोग करते हैं, जो भीतर से घायल होते हैं. लोग जब अपने भीतर के जख्म को संभाल नहीं पाते हैं तो दूसरों पर हिंसा करते हैं, लेकिन यहां मेरा मकसद हिंसा के पक्ष में कोई दलील देना नहीं है. एक बीमार समाज के लक्षणों और कारणों की पड़ताल करना है. इन परिस्थितियों में तत्कालिक तौर पर इस तरह की हिंसा को रोकने के लिए एक सख्त और कारगर कानून की जरूरत तो है ही. साथ ही हमें परिवार, परवरिश, शिक्षा, मनोरंजन, समाज की संरचनाओं पर गंभीर चिंतन कर उनमें आमूलचूल परिवर्तन करने की भी जरूरत है.

जरा सोचें कि जब मनोरंजन के नाम पर बिना सेंसर बोर्ड के दखल के हिंसा के वीभत्स तरीकों को बड़े ही प्रशंसा के भाव में दिखाया जा रहा हो. हर तरह की अनैतिकता और अश्लीलता को जीवन जीने का सहज ढंग बताया जा रहा हो, यौन- स्वच्छंदता को मनुष्य की आत्यांतिक आजादी से जोड़ कर देखा जा रहा हो, वैसे समाजों में एक बेटी के किसी स्वतंत्र फैसले पर पिता उसकी हत्या कर दे तो आश्चर्य क्या. एक बेटी अश्लील वीडियो बनाते समय मनुष्य होने की गरिमा के बारे में न सोचे तो क्या आश्चर्य और पिता उसकी हत्या कर दे तो भी क्‍या आश्‍चर्य. इस कटु व्यंग्यात्मक वाक्य को लिखते हुए भी हृदय छलनी- छलनी हो रहा है.

इस तरह की वीभत्स घटनाओं के पीछे ओटीटी और अन्य साइबर मंचों की महती भूमिका से हम इनकार नहीं कर सकते हैं. अमेरिकी समाज पर टीवी के नकारात्मक प्रभाव के प्रति अपना गहरा सरोकार दिखाते हुए अमेरिकी सार्वजनिक टीवी प्रसारण के महानतम प्रस्तोताओं में से एक फ्रेड रोजर्स ने एक मई 1969 को अमरीकी सीनेट के सामने दिए अपने भाषण में कहा था- मुझे लगता है कि यदि आप टीवी पर कुछ ज्यादा नाटकीय ही दिखाना चाहते हैं तो यह दिखाइये कि कैसे दो व्यक्ति जो एक-दूसरे पर बहुत गुस्सा हैं, वे आपस में मिलकर अपनी नाराजगी को सुलझा सकते हैं. टीवी पर बंदूक और गोलीबारी दिखाते रहने के मुकाबले यह दिखाना बहुत ज्यादा नाटकीय है.

साथ ही उन्‍होंने कहा, “मैं लगातार इस बात को लेकर चिंतित रहता हूं कि हमारे बच्चे टीवी पर क्या देख रहे हैं और पिछले पंद्रह वर्षों से मैंने इस देश में और कनाडा में भी टीवी पर वही दिखाने की कोशिश की है जिसके बारे में मुझे लगता है कि वह एक मनुष्य की दूसरे मनुष्य के प्रति चिंताओं की सार्थक अभिव्यक्ति हो सकती है''.

मनोरंजन उद्योग को रूपांतरित करना होगा

कहना न होगा कि एक हिंसामुक्त और प्रेमिल, समरस, भयमुक्त व्यक्ति, परिवार और समाज के लिए हमें मनोरंजन उद्योग को पूरी तरह से रूपांतरित करना होगा. अंधाधुंध लाभ के बदले पारस्परिकता, ईमानदारी, नैतिकता और करुणा को अपने कारोबार का मूल्य बनाना होगा. भय की जगह प्रेम को अपने जीवन- संचालन का आधार बनाना होगा. अपनी अंधी महत्वाकांक्षाओं और बेतुकी कामनाओं पर लगाम लगा कर बच्चों के परवरिश पर ध्यान देना होगा. बच्चों को पैसा और गैजेट्स नहीं, समय देना होगा. उनके साथ प्रेमिल संवाद का रिश्ता बनाना होगा. शिक्षा में प्रतियोगिता, तुलना और प्रतिद्वंद्विता को छोड़ कर सबकी विलक्षणता को स्वीकार करते हुए समता और समानता को मूल्यांकन का आधार बनाना होगा. और इसकी जिम्मेदारी केवल सरकार और संस्थाओं को ही नहीं, हर व्यक्ति को लेनी होगी क्योंकि व्यक्ति से ही परिवार, समाज, संस्था और सरकार बनती है.

(लेखिका मेधा दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में पढ़ाती हैं. उनकी दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.)

अस्‍वीकरण: इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के निजी हैं और उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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