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This Article is From Jan 24, 2020

शाहीन बाग को बचाना भारत को बचाना है

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 24, 2020 16:23 pm IST
    • Published On जनवरी 24, 2020 16:23 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 24, 2020 16:23 pm IST

शाहीन बाग में करीब 40 दिन से आंदोलन चल रहा है- बल्कि वह लोकतांत्रिक विरोध-प्रदर्शन को एक नई गरिमा, नई कलात्मकता, नई ऊंचाई और नई जनतांत्रिकता दे रहा है. कविता, संगीत, चित्रकला, नाटक, संस्थापन कला- सब इस आंदोलन की जान हैं. दूर-दूर से लोग यहां बस यह देखने आ रहे हैं कि विरोध प्रदर्शन कितना खूबसूरत हो सकता है. दूर-दराज के इलाक़ों में शाहीन बाग बनाने की कोशिश हो रही है.

लेकिन प्रतिरोध की यह संस्कृति सरकारों को रास नहीं आ रही. महीने भर से ऊपर चला यह धरना तुड़वाने के लिए अदालत की मदद ली जा रही है, जनता की मुश्किलों का हवाला दिया जा रहा है, पुलिस से बल-प्रयोग की उम्मीद की जा रही है, लेकिन जो सबसे ज़रूरी है, वह राजनीतिक पहल ज़रा भी नहीं हो रही है. केंद्र सरकार के बड़े-बड़े मंत्री देश भर में जा-जा कर नागरिकता क़ानून के समर्थन में रैली कर रहे हैं, राहुल-अखिलेश-माया और ममता पर जनता को भरमाने का आरोप लगा रहे हैं, लेकिन शाहीन बाग़ की जो 'भरमाई हुई' जनता है, उससे संवाद करने नहीं जा रहे. जम्मू-कश्मीर में सरकार के दो दर्जन मंत्री लोगों को समझाने के लिए पहुंच गए, लेकिन दो मंत्रियों को भी सरकार ने शाहीन बाग़ नहीं भेजा. उल्टे प्रधानमंत्री ने इशारा किया कि इन लोगों पर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है.

क्या बस इसलिए कि ये लोग सरकार और संसद द्वारा बनाए गए एक क़ानून का विरोध कर रहे हैं? या इसकी कोई और वजह भी है? क्या यह शक बिल्कुल बेजा है कि सरकार शाहीन बाग में इकट्ठा जन समुदाय से एक तरह का 'परायापन' महसूस करती है, उसे बस एक धार्मिक चश्मे से देखने की कोशिश करती है और इस बात पर कुछ और झुंझलाती है कि ये पराए लोग तिरंगा भी लहराते हैं. राष्ट्रगान भी गाते हैं, भारत माता की जय भी बोलते हैं और भारत को सारे जहां से अच्छा भी बताते हैं? यह झुंझलाहट शायद इस बात से कुछ और बढ़ जाती है कि ऐसे गांधीवादी तौर-तरीक़ों से प्रदर्शन कर रहे लोगों पर लाठी बरसाना, उन्हें खदेड़ देना आसान नहीं है.

लेकिन जिन्हें धरना स्थल से जबरन उठाया नहीं जा सकता, उन्हें अविश्वसनीय बनाने की कोशिश तो की जा सकती है. शाहीन बाग अगर केंद्र सरकार की उपेक्षा का उदाहरण है तो लखनऊ में चल रहा धरना राज्य सरकार की बदनीयती का. योगी आदित्यनाथ चेतावनी दे रहे हैं कि कोई वहां कश्मीर जैसे नारे न लगाए- वरना यह देशद्रोह होगा. कोई उनसे पूछे कि क्या कहीं ऐसा नारा लगा है? अगर नहीं तो ऐसी चेतावनी का क्या मतलब है? उन्हें अचानक सरकारी संपत्ति के नुक़सान की फ़िक्र हो आई है और वे बता रहे हैं कि इसका वे ऐसा हरजाना वसूल करेंगे कि पीढ़ियां याद रखेंगी. लेकिन उन्हीं के राज्य में एक भीड़ ने गोरक्षा के नाम पर सरकारी संपत्ति को ही नुकसान नहीं पहुंचाया, पुलिस जीप तक जला दी और एक पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या कर दी. इस केस के आरोपियों का उन्हीं ताकतों ने सार्वजनिक सम्मान किया जो उनके साथ खड़ी हैं. सुबोध कुमार की पत्नी और उनके बेटे को अब भी इंसाफ़ का इंतज़ार है.

जाहिर है, नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में प्रदर्शन करने वालों को सरकार जैसे अपना दुश्मन माने बैठी है. अचानक इस देश के कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों से देश के दुश्मनों की तरह सलूक हो रहा है.

हालत ये है कि रामदेव जैसे लोग अब समझा रहे हैं कि आंदोलनों से देश बदनाम होता है. वे साथ में यह झूठ फैला रहे हैं कि आंदोलनकारी जिन्ना जैसी आज़ादी मांग रहे हैं. सच तो यह है कि आज़ादी के जो भी नारे लगे हैं, उनमें भगत सिंह और बिस्मिल वाली आज़ादी की तो बात है, जिन्ना का किसी ने दूर-दूर तक ज़िक्र नहीं किया. क्या दिलचस्प है कि रामदेव के कुछ देर बाद ठीक यही बात दिल्ली में अब बीजेपी से जुड़ गए और उसके टिकट पर चुनाव लड़ रहे कपिल मिश्रा ने कही. ये वही कपिल मिश्र हैं जिन्होंने 8 फरवरी के दिल्ली के चुनाव को भारत और पाकिस्तान के बीच का चुनाव करार दिया है.

तो शाहीन बाग़ के आंदोलन से लेकर दिल्ली के चुनाव तक यह पाकिस्तान कहां से चला आ रहा है? उन लोगों की ओर से, जो सिर्फ़ अपने-आप को भारतीय मानते हैं. उनकी इस मान्यता का आधार उनके मुताबिक उनका हिंदुत्व है जो इस बात का लाइसेंस है कि वे अकेले देशभक्त और भारतीय हो सकते हैं और वही दूसरों को भारतीय होने का सर्टिफिकेट दे सकते हैं.

दरअसल ऐसी दुराग्रही भारतीयता यह नहीं समझती कि एक बहुत बड़ा देश बहुत सारी परंपराओं के पानी से बनता है- भारत भी ऐसे ही बना है. उनका दुराग्रह इस वास्तविक भारत को कमज़ोर करता है.

इस देश का एक तबका देश के अलग-अलग शहरों में बसे मुस्लिम मोहल्लों को पाकिस्तान बोलने का शौकीन रहा है. अब वे मोहल्ले बता रहे हैं कि वे पाकिस्तान नहीं असली हिंदुस्तान हैं और उनके लिए भी तिरंगा, राष्ट्रगान और ऐसे ही दूसरे सारे प्रतीक एक बड़ा संबल बनाते हैं. दूसरी तरफ़ पाकिस्तान को कोसते-कोसते हमने देश में कई हिंदू पाकिस्तान बना डाले हैं. इस हिंदू पाकिस्तान में फ़ैज़ को उसी नफ़रत से देखा जाता है जैसा जिया उल हक़ के पाकिस्तान में देखा जाता था, कविताओं और गीतों के साथ वही सलूक होता है जो पाकिस्तान में होता है और उदारता और सहिष्णुता को वैसे ही प्रश्नांकित किया जाता है जैसे पाकिस्तान में किया जाता है.

लेकिन जनता ऐसा पाकिस्तान नहीं बनातीं- अमूमन सरकारें ही बनाती हैं. पाकिस्तान के हुक्मरानों ने अरसे तक ज़हर घोल-घोल कर अपने अवाम को ऐसी कट्टरता की खुराक पिलाई है कि अब वह उनकी मुसीबत बन चुकी है. हालांकि इसके बावजूद वहां ऐसे सिरफिरे और अमनपसंद लोग बचे हुए हैं जो अब भी एक उदार पाकिस्तान का ख़्वाब देखते हैं.

भारत में उदारता और सहिष्णुता की परंपरा पाकिस्तान से कहीं ज्यादा मज़बूत है. हमारे यहां लोकतंत्र की जड़ें कहीं ज़्यादा गहरी हैं. इसलिए हम यह भरोसा कर सकते हैं कि अंततः लोकतंत्र की इस लड़ाई में बहुलता और उदारता के साथ खड़े शाहीन बाग ही जीतेंगे. लेकिन जो हालात हैं, उनमें लग रहा है- यह लड़ाई लंबी चलेगी.

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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