उत्तर प्रदेश में मौसम बदलने के साथ ही चुनावी बादल छाने लगे हैं और आने वाले कुछ हफ़्तों में चुनाव की घोषणा होने से पहले प्रदेश में नए चित्र आकार लेने लगे हैं. सत्ता में बने रहने के लिए आतुर समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पिछले दो महीनों के घटनाक्रम को भुला देने के लिए अलग राह पकड़ ली है, जिससे पार्टी के संगठन में हलचल है. सवाल वही है जो महीनों पहले था – क्या यह पार्टी और परिवार में कथित तौर पर मचे अंतर्द्वंद्व के पीछे पहले से कोई तैयार पटकथा है?
जिस अचरज के साथ प्रदेश के लोगों और ख़ास तौर पर मीडिया ने समाजवादी पार्टी में परिवार के सदस्यों के बीच उठे कोहराम को राष्ट्रीय आपदा के तौर पर लिया और पेश किया था, उसी अचरज में एक और अध्याय जोड़ते हुए अब पार्टी के सभी छोटे से बड़े नेता कहते घूम रहे हैं कि कोई समस्या कभी थी ही नहीं – वो तो परिवार के लोगों के बीच कुछ 'विरोध' थे जो चुनाव की चुनौती के आगे ख़त्म हो चुके हैं.
जहां एक ओर यह आशंका जताई जा रही थी कि पार्टी में टूट हो सकती है, वहीं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पार्टी और संगठन की हरी झंडी दिखाए बिना अपना प्रचार अभियान छेड़ दिया है, भले ही औपचारिक तौर पर उसकी शुरुआत 3 या 5 नवम्बर से हो. दिवाली के दो दिन पहले, जब आम तौर पर सरकारी प्रचार तंत्र के पास नेताओं के दिवाली संदेश प्रेषित करने के अलावा कोई काम नहीं होता है, तभी अखिलेश यादव ने पूरे इंतजाम के साथ और मीडिया की उपस्थिति में लखनऊ से इटावा जिले में स्थित अपने पैतृक गाँव सैफई जाने का निर्णय किया. इसमें कुछ भी नया नहीं था, सिवाय इसके कि यह यात्रा उन्होंने निर्माणाधीन लखनऊ-आगरा एक्सप्रेसवे पर करने का निश्चय किया.
इसमें कोई शक नहीं कि यह निर्णय – भले ही इसके पीछे किसी का भी दिमाग रहा हो – मीडिया और पाठकों/दर्शकों के लिए बड़े ‘इवेंट’ के तौर पर लाया गया और लगभग 300 किमी की दूरी पूरा करने में बीते समय का इससे अच्छा उपयोग हो नहीं सकता था. मुख्यमंत्री ने इस सड़क के निर्माण में लगे कर्मियों से मिलकर उन्हें बधाई दी कि उनकी मेहनत से प्रदेश में रिकॉर्ड समय में ऐसी सड़क बन रही है. सैफई पहुंच कर अखिलेश ने जो सबसे महत्त्वपूर्ण बैठक की वह अपने चाचा और पार्टी के बर्खास्त महासचिव राम गोपाल यादव के साथ थी. रामगोपाल को पार्टी से निकाले जाने के बाद दोनों के बीच यह पहली मुलाकात थी और ऐसा कहा जा सकता है कि दोनों ने आने वाले चुनाव की तैयारियों के बारे में बात की.
इस बीच अखिलेश को एक दूरदर्शी, मृदुभाषी और कर्मठ नेता के रूप में स्थापित करने के उद्देश्य से बनाये गए एक वीडियो के सोशल मीडिया पर जारी होने से हलचल मच गई, क्योंकि इस वीडियो में न तो समाजवादी पार्टी का नाम या चिन्ह है, और न ही पार्टी के स्थापित रंगों (लाल व हरा) का प्रयोग किया गया है. यही नहीं, इन्हीं दिनों इटावा और आसपास लगाये गए होर्डिंग में अखिलेश को दोबारा मुख्यमंत्री बनाये जाने का आह्वान किया गया, लेकिन इस होर्डिंग की पृष्ठभूमि भी पूरी तरह से सफ़ेद थी – न पार्टी का नाम, न चुनाव चिन्ह और न ही लाल-हरे रंग कहीं नजर आए.
लखनऊ में भी ऐसे होर्डिंग देखे गए जिनमें कुछ युवा नेताओं द्वारा अखिलेश को फिर से मुख्यमंत्री बनाये जाने का संकल्प लिया गया, लेकिन न तो उनमे पार्टी के नाम का उल्लेख है और न ही किसी चिन्ह का.
ऐसा लगता है कि यह अंदाज लेने की कोशिश की जा रही है कि पार्टी और संगठन के समर्थन के बिना अखिलेश किस हद तक अपने को एक ब्रांड के तौर पर कहां तक ले जा सकते हैं. यदि आने वाले दिनों में ऐसे ही और उदाहरण दिखे तो यह धारणा और मजबूत हो सकती है. यह भी ध्यान देने वाली बात है कि अखिलेश ने अभी तक पार्टी से बर्खास्त किये गए मंत्री पवन पाण्डे को अपने मंत्रिमंडल से निकाला नहीं है और ये मंत्री भी बे-हिचक कह रहे हैं कि उनकी निष्ठा मुख्यमंत्री के प्रति है.
अगर आगे ऐसे ही कुछ और घटनाएं देखने को मिलीं तो निश्चित तौर पर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव की शक्तियों में और कमी का संदेश साफ़ तौर पर पार्टी के नीचे के स्तर पर मजबूती से जायेगा. शिवपाल वैसे भी मंत्रिमंडल से निकाले ही जा चुके हैं, और यदि यह संदेश गया कि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर उनके निर्णयों का कोई मतलब नहीं है, तो अखिलेश के अपने दम पर, अपने तरीके से चुनाव प्रचार करने और अंतत: अपने पसंद के प्रत्याशी खड़े करने में किसी तरह की रुकावट का भी कोई मतलब नहीं रह जायेगा.
यदि पिछले घटनाक्रम को इस नतीजे से जोड़ कर देखा जाये तो साफ़ हो जाता है कि यही तो अखिलेश चाहते थे, और शिवपाल की नाराजगी के पीछे भी यही प्रमुख कारण बताये जाते थे. और अब जबकि ऐसा होता दिख रहा है, तो पार्टी के प्रमुख और परिवार के पुरोधा मुलायम सिंह यादव, बजाए अखिलेश की आलोचना करने और उन्हें नसीहत देने के, अन्य राज्यों (बिहार, बंगाल, ओडिशा, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि) की उन पार्टियों के साथ गठबंधन करने की जुगत में हैं, जिनका उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कोई ख़ास अर्थ नहीं है. अचानक, समाजवादी पार्टी के नेताओं और परिवार के सदस्यों के बीच हुए घमासान का कहीं कोई निशान ही नहीं दिख रहा. यही वह राजनीतिक दांव है, जिसे धोबी पाट के अलावा कई नामों से जाना जाता है.
रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...
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This Article is From Oct 31, 2016
यूपी चुनाव : सियासी पैतरों और यात्राओं का एक नया दौर...
Ratan Mani Lal
- ब्लॉग,
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Updated:नवंबर 01, 2016 17:21 pm IST
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Published On अक्टूबर 31, 2016 19:54 pm IST
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Last Updated On नवंबर 01, 2016 17:21 pm IST
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