एक अदद सही गोलाई की रोटी की शिद्दत से तलाश...

एक अदद सही गोलाई की रोटी की शिद्दत से तलाश...

प्रतीकात्मक फोटो

यह करारा जवाब था... मेरे पास मां है। इस संवाद का उत्तर दूसरे पात्र पर नहीं था। रेल की लंबी सीटी उस अंतराल को भर जाती है। दीवार का यह दृश्य ममता के द्वन्द का प्रतिमान है। मां किसके साथ रहेगी? वह कहां जाए? ममता तो तरल है। हर ओर बहती है। मां उसूल पसंद बेटे के साथ रहना पसंद करती है। मां को समृद्धि से जीता भी कैसे जाए? वह बेटों की 'दीवार' से ऊँची है। वह एक चयन करती है। मुक्त नहीं हो पाती। वह रहने के लिए एक बेटे का घर चुनती है। अपनी पोटली के साथ नापसंद बेटे को आखों में लिए आती है।

मां का आंखों वाला घर भी कितना बड़ा है! उसमें कितनी जगह है। मैंने उसकी आंखों में सुई-डोरी देखी है। लंबी सुई डोरी जो उसे बिल्कुल नहीं चुभती। उसकी आंखें दरअसल दो चूल्हे हैं। सीली हुई लकड़ियां गहरे तक धंस गई हैं। घर धुंआ धुंआ हो गया है। लेकिन रोटी बराबर गोल है। यह सुनते ही मेरी धरम-पत्नी जी चिढ़ जाती हैं। मुझे अब भी क्यों लगता है कि मां गणित के ज्ञान के बिना भी गोलाई को कितना बेहतर जानती है! मां के बिना अब मेरी रोटी की परिधि,व्यास और त्रिज्या तीनों कितने असंगत हो गए हैं! अब रोटी पर घी ज्यादा है, मां के चूल्हे का धुंआ कम। सारे कोण गड़बड़ा गए हैं। रोटी जल गई है। तवे से बिना चिमटे के रोटी उठा पाने का हुनर मुझे आज भी कहां आ सका है? मैं मां की गोल कटी हुई रोटी को मानक समझकर आज भी अपने लिए एक अदद सही गोलाई की रोटी को शिद्दत से तलाश रहा हूं। मुझे नहीं मिली है। आपको भी शायद नहीं मिली होगी।

मां का रोटी से एक अजीब रिश्ता है। जब रोटी कम पड़ती है, जो कि अक्सर पड़ती है, मां मुखर हो उठती है। जब चूल्हे अकाल और सूखे में भरभराकर निष्प्राण होने लगते हैं, मां दिन में रोटी ढूंढती है और रात में रोटी के उपमान। चांद रोटी तो नहीं हो सकता। बच्चा भी कब तक नहीं जानेगा। मां उसे समझाती है। अली सरदार जाफ़री मां के पेशकार बनकर वही बात कलमबंद कर देते हैं।
    "चांद से दूध नहीं बहता है
     तारे चावल हैं न गेंहू न ज्वार
     वरना मैं तेरे लिए चाँद सितारे लाती
     मेरे नन्हे, मिरे मासूम
     आ,कि मां अपने कलेजे से लगा ले तुझको
     अपनी आगोश-ए-मुहब्बत में सुला ले तुझको
     ....नींद में आएंगी हंसती हुईं परियां तिरे पास
        बोतलें दूध की, शरबत के कटोरे लेकर
     ..नींद सी आने लगी बच्चे को
      मुट्ठियां खोल दीं और मूंद लीं आंखें अपनीं
      यूं ढलकने लगा मनका जैसे
      शाम के गार में सूरज गिर जाए
       ....अब न आंसू थे,न सिसकी थी, न लोरी न कलाम
      एक सन्नाटा था
     एक सन्नाटा था तारीको-तवील ।"


 मां और रोटी गहरे से अन्तर्गुम्फित हैं। एक अकेली मेरी ही मां तो नहीं जो चिंतित हो! प्रकृति की सारी माएं रोटी जुटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
  "चीटियां अण्डे उठाकर जा रही हैं,
   और चिड़ियां नीड़ को चारा दबाए,
   थान पर बछड़ा रंभाने लग गया है
   टकटकी सूने विजन पथ पर लगाये
   थाम  आँचल,थका बालक रो उठा है,
   है खड़ी मां शीश का गठ्ठर गिराये
   बांह दो चुमकारती-सी बढ़ रही हैं,
   सांझ से कह दो बुझे दीपक जलाए ।"

                (सर्वेश्वरदयाल सक्सेना)

रोटी माँ की मुख्य चिंता है। प्रकृति की सारी माएं। पंचतंत्र की सारी माएं। कोई अपनी चोंच में दाना लिए है। कोई अपने दांत में शावक का भोजन। मां और रोटी लड़ रहे हैं। रोटी हारती रही है। यही मां के हाथों रोटी के सटीक गोलाई में बदल जाने का रहस्य है।

स्वेटर से पूछो? उसे कौन गरम रखता है? ठंड को सूरज से नहीं, मां की उंगलियों से छुई हुई ऊन से डर रहता था। अब हर जाड़े में सर्दी खाता हूं। बाजार को सिर से लेकर पैर तक पहन लिया है लेकिन  फिर भी एक असुखद नग्नता का अहसास होता रहता है। एक अशोभनीय, अश्लील नग्नता। उसे ढंकने  के लिए बाजार में कपड़ा ढूंढ रहा हूं। बिग बाजार सामान से भरा हुआ है। बिग बाजार में 'कुछ' नहीं मिला है। खाली हाथ लौट आया हूं।
मेले के लिए मां का दिया हुआ आठ आना गुम गया है। पागलों की तरह ढूंढ रहा हूं।

धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...

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