लोकसभा चुनाव को अब बस 90 दिन बचे हैं. 6 जनवरी को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने बयान दिया है कि आने वाले 10-15 दिन में INDIA गठबंधन की जो बैठक होगी, वह गठबंधन के बड़े पदों पर फैसला लेगी, यानी जब चुनावों को महज़ 80 दिन बचेंगे, तब विपक्षी गठबंधन तय कर रहा होगा कि उसके पोस्टर ब्वॉय कौन होंगे. INDIA गठबंधन का कन्वेनर कौन होगा, इस पर ही इतना सस्पेंस है कि लग रहा है कि इसे लेकर कोई दिलचस्पी ही नहीं बची है. तो क्या यह लेट-लतीफ़ी सोची-समझी है...?
नरेंद्र मोदी सरकार अगर जल्द चुनाव कराती, तो भी यह समझा जा सकता था कि विपक्ष तो तैयार ही नहीं था और चुनाव में उन्हें मौका नहीं मिला. अब तो मौका भी था और वक्त की कोई कमी नहीं थी, फिर भी विपक्षी गठबंधन मोदी सरकार को वॉकओवर देने के मूड में आ गया है. सवाल तो यह भी है कि INDIA गठबंधन इतनी देर से क्यों बना...? ऐसा तो है नहीं कि लोकसभा चुनाव का वक्त इन्हें पता नहीं था. जो गठबंधन अभी बना है, वह वक्त पर बनता, तो ईमानदारी और प्रयास पूरे दिखते. लगता कि लड़ाई भले ही बराबरी की नहीं, लेकिन तैयारी तो पूरी की गई है. यहां तो तैयारी भी अधूरी है. विपक्ष को खुद का काम करने से भला कौन रोक रहा था या कौन रोक सकता है...?
BJP के लगातार चुनाव में रहने की रणनीति को विपक्ष कोस रहा है, लेकिन उसने अब तक यह नहीं बताया है कि उसके पास तो सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी भी नहीं है, फिर भी उसे लगातार चुनावी रणनीति में रहने से कौन रोक रहा है. किसी भी प्रतिस्पर्धा में अक्सर होता है कि सामने वाले की रणनीति देखकर टीम अपने प्रयास और हथियार दोनों बदलती है. फिर विपक्ष को किसने रोका है कि वह BJP से कुछ सीखे...? मोदी ने चुनावों के पूरे आयाम को बदला है, इसमें कोई शक नहीं है, तो फिर विपक्ष उन आयामों को क्यों नहीं देख पा रहा है...? तो क्या हम यह मान लें कि मोदी और उनकी टीम के सामने विपक्ष के पास ऐसा कुछ नहीं है, जो वे पेश कर सकें...?
एक ज़िम्मेदार विपक्ष के नाते हमें तो अब तक यह भी नहीं बताया गया है कि कौन सा फ़ेविकॉल का जोड़ है, जो इस कुनबे को एक करके रखेगा...? 90 दिन पहले हमें यह नहीं पता है कि यह गठबंधन सुविधा का गठबंधन है या फिर रणनीतिक तौर पर चुनौती देने वाला...? 'कौन-सी सीट पर कौन लड़ेगा' से बड़ा सवाल यह है कि गठबंधन कौन-कौन-से संसाधन आपस में साझा करेगा...? यह सवाल इसलिए बेहद लाज़िमी है, क्योंकि विपक्ष लगातार जनता के बीच जाकर कह रहा है कि लड़ाई शक्तिशाली संसाधन वाली BJP से है. संसाधन के सवाल को कुछ देर के लिए छोड़ भी दें, तो विपक्ष यह क्यों नहीं समझा रहा है कि उसका कॉमन नैरेटिव क्या है...?
ऐसा नहीं हो सकता कि मुख्य विपक्षी दल सिर्फ यह कहे कि वह तो महंगाई और तानाशाही के खिलाफ लड़ेगी और दूसरे विपक्षी दल इससे इत्तफाक ही न रखें. पूरे विपक्ष की एक बोली नहीं है, यह बात तो तब और भी छोटी लगने लगती है, जब कांग्रेस के अंदर ही रणनीति पर एक राय नहीं लगती. पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से पहले INDIA गठबंधन ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर कहा था कि वह फ़लां-फ़लां एंकर का बहिष्कार करेंगे. सही या गलत के पैमाने से बाहर निकल भी जाएं, तो कोई यह बताने वाला नहीं है कि उस फ़ैसले का क्या हुआ...? चुनाव में कांग्रेस के नेता ही उन एंकर को लंबे इंटरव्यू दे रहे थे, जिनके बहिष्कार का ऐलान हुआ था. तो सवाल यही है कि ऐसे में विपक्ष अपनी बात पर कैसे टिका रहेगा, इसका भरोसा वह कैसे दिलाएगा...?
विपक्ष को एक बड़े सवाल का जवाब अब भी देना बाकी है. जनता अगर यह मान भी ले कि वह अपनी बात को लेकर गंभीर है, तो कई राज्यों के चुनावों में वे रणनीतिक तौर खुद को एक क्यों नहीं कर पाए...? पांच विधानसभा चुनाव में कई ऐसे इलाके थे, जहां बूथ पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं की टेबल तक नहीं थीं. क्या यह इतना बड़ा काम था, जो चुनाव में दम लगाने वाले लोग नहीं कर सकते...? अगर कांग्रेस के पास लोग कम थे, तो संयुक्त विपक्ष ने एक-दूसरे से क्या सहयोग किया...? बड़ी-बड़ी रणनीतियों और नारों को गढ़ने से पहले विपक्ष को यह भी तय करना होगा कि हर बूथ पर उसका नाम लेने वाले कुछ लोग हों.
अभिषेक शर्मा NDTV इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं... वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.