पिछले साल बिहार की जनता ने विधानसभा चुनाव में अपना फैसला सुनाकर देश भर में यह संदेश दिया कि दुनिया किसी भी दिशा में क्यों न जाए, लेकिन बिहार और बिहारी अपना रास्ता खुद तय करते हैं। राष्ट्र पटल पर बिहार की चर्चा ज़ोरों पर रही और इस बीच यहां के लोगों का मिज़ाज समझने के लिए कुछ किताबें भी पाठकों तक पहुंची जिसमें से एक है शशिकांत मिश्र की नॉन रेज़िडेंट बिहारी। जैसा की नाम से ज़ाहिर है यह कहानी एक ऐसे बिहारी की कहानी है जो अपना घर-गांव छोड़कर बाहर की दुनिया में अपनी किस्मत आज़माने जाता है।
एक मीडिया हाउस में काम करने वाले लेखक शशिकांत मिश्र की इस किताब का मुख्य किरदार राहुल है जो एक संपन्न परिवार से है लेकिन बाकी बिहारियों की तरह उसे भी यूपीएससी की अग्नि परीक्षा से होकर गुज़रना है जिसकी तैयारी के लिए वह दिल्ली का रुख़ करता है। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती, दरअसल राहुल की एक प्रेमिका भी है जिसे लेकर वह उतना ही गंभीर है जितना यूपीएससी की परीक्षा को लेकर, या यूं कहें कि शायद उससे भी ज्यादा।
ख़ैर, दिल्ली आकर अपने दोस्तों का साथ पाकर आईएसएस बनने की होड़ में लगकर क्या राहुल अपने घरवालों का यूपीएससी का सपना पूरा कर पाएगा या फिर इस चक्कर में वह अपनी करीबी दोस्त शालू का भी साथ खो देगा। लेखक ने एक प्रेम कहानी की आढ़ में एक नॉन रेज़िडेंट बिहारी की कश्मकश को दिखाने की कोशिश की है। हालांकि बोलचाल और यूपीएससी को अलग हटा दिया जाए तो यह कहानी किसी बिहारी की जगह किसी पंजाबी, मराठी या किसी भी ऐसे युवा की हो सकती है जिसका दिल कहीं और दिमाग कहीं और रहता है।
कहानी को गुदगुदाते हुए अंदाज़ में लिखा गया है और रोहित शेट्टी की फिल्म की तरह इसमें भी एक्शन, रोमांस, सस्पेंस के तत्वों की बारिश की गई है लेकिन इसमें लेखक कितना सफल हो पाया है इसके लिए किताब पढ़ना ज़रूरी है। कहानी की शुरूआत एक ज़ोरदार पंच के साथ होती है जिसका एक अंश कुछ इस तरह है -
"दो मिनट लगेगा मैम। कहीं कोई खतरा नहीं। मैं लेबर रूम के अंदर पैर भी नहीं रखूँगा। बस दरवाजे के बाहर से दो शब्द कहूँगा। सब ठीक हो जायेगा।"
"क्या बकवास कर रहे हो ? कौन सा मंत्र पढोगे जो सब ठीक हो जायेगा ?"
"अब ये नहीं बता सकता मैम। बस आप चलिए। कहीं देर न हो जाए। पहले ही काफी लेट हो चुका है।"
दोनों लेबर रूम के दरवाजे पर आये।अंदर से माँ की दिल दहलाने वाली आवाज़ आ रही थी। किसी का भी कलेजा मुँह को आ जाए।
कम्पाउण्डर ने दरवाजे पर मुँह लगाया और कसकर चिल्लाया- "आज यूपीएससी के फॉर्म भरने का आखिरी दिन है, बेटे ! चूक गए तो फिर एक साल तक इंतजार करना पड़ेगा।"
यह क्या ! उधर से तुरन्त छोटे बच्चे के रोने की तेज आवाज़ आई। कुहुँ......कुहुँ......। माँ की दर्दभरी आवाज़ धीरे-धीरे शांत होने लगी। एक नन्हा एनआरबी (नॉन रेजीडेन्ट बिहारी) धरती पर आ चुका था, फ्यूचर में लालबत्ती का ख्वाब लिए।
राधाकृष्ण प्रकाशन की इस किताब की अच्छी बात यह है कि किसी गैर बिहारी को भी अच्छी लग सकती है, वह भी इससे जुड़ाव महसूस कर सकता है क्योंकि मूलत: तो यह एक प्रेम कहानी है जिसकी पृष्ठभूमि बस बिहार है। लेकिन दूसरी तरफ शायद कुछ पाठकों के लिए इसका प्रेम कहानी भर रह जाना ही इसकी कमज़ोरी साबित हो सकती है। सिर्फ सत्तू प्रेम, दोस्तों के बीच ठेठ बिहारी अंदाज़ में हंसी मज़ाक के अलावा अगर आप व्यंग्य की आढ़ में कुछ गंभीर या गहरा ढूंढ रहे हैं तो इसके लिए आपको कहीं और जाना होगा।
फिलहाल इतना कहा जा सकता है कि अपने निराले नाम, भड़कीले पीले रंग के कवर और बोलचाल वाली भाषा के साथ एक लव स्टोरी कहने वाली यह किताब उन पाठकों को ज़रूर अपनी तरफ खींचने का काम करेगी जिन्हें भारी भरकम पुस्तकों को दूर से देखकर ही घबराहट होने लगती है। स्मार्टफोन और व्हाट्सएप में अतिव्यस्त रहने वाले युवाओं की किताबों से दोस्ती करवाने का श्रेय नॉन रेज़िडेंट बिहारी जैसी कहानियों को ज़रूर जाना चाहिए...बाकी तो (जैसा कि बिहार में कहते हैं) जो है वो हैये है...
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This Article is From Jan 04, 2016
किताब मिली - 'नॉन रेज़िडेंट बिहारी'...जो किसी गुजराती या पंजाबी की प्रेम कहानी भी हो सकती है
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