मुझे नहीं पता कि प्रणब मुखर्जी के बेटे का ऐसा क्यों मानना है कि उन्हें अपने पिता के संस्मरण को प्रकाशन से पहले जांचने-परखने का अधिकार है? एक माना जा रहै है कि बतौर कांग्रेसी, वह चिंतित हैं कि पुस्तक के कुछ हिस्से सोनिया गांधी को अपमानित कर सकते हैं और पार्टी के भीतर उनकी संभावनाएं प्रभावित हो सकती हैं.
दूसरी तरफ, उनकी बहन शर्मिष्ठा, जो खुद कांग्रेसी हैं, ने भाई के अनुरोध का यह कहकर विरोध किया है कि यह पुस्तक उनके पिता की रचना है और उसमें जो भी विचार प्रकट किए गए हैं, वह उनके अपने रहे हैं और उसे कोई सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए प्रकाशित होने से नहीं रोक सकता है.
भगवान ही जानते हैं कि ट्विटर पर बेटे-बेटी का झगड़ा और तमाशा देखकर प्रणब मुखर्जी को कैसा लगा होगा? ज्यादा अधिक संभावना इस बात की है कि यह एक भाई-बहन का विवाद है जिसका कांग्रेस की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है.
लेकिन यह देखना भी रुचिकर है कि आखिर इस पुस्तक ने कुछ कांग्रेसियों को चिंतित क्यों कर दिया है? प्रकाशक द्वारा पिछले सप्ताह जारी किए गए पुस्तक के कुछ अंश के अनुसार, संस्मरण में सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह, दोनों की आलोचना की गई है. 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस की हार के लिए दोनों नेताओं को आंशिक रूप से जिम्मेदार ठहराया गया है.
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मुखर्जी विनम्रता से लिखते हैं, ''कांग्रेस के कुछ सदस्यों का यह मानना रहा है कि अगर 2004 में मैं प्रधानमंत्री बन गया होता तो संभवत: 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की भारी पराजय नहीं होती.'' मुखर्जी ने आगे लिखा है, "हालांकि मैं इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हूं, लेकिन मुझे विश्वास है कि राष्ट्रपति के रूप में मेरे पदभार ग्रहण करने के बाद पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने अपना फोकस खो दिया."
इन शब्दों के पीछे कुछ हद तक झूठ और कड़वाहट है लेकिन कुछ सच्चाई भी है.
यह समझना कठिन है कि प्रणब ने आखिर क्यों माना कि उन्हें 2004 में प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए था, जब कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए ने पहली बार सत्ता संभाली थी. वह कभी भी सोनिया गांधी के करीबी नहीं थे, जिन्होंने मनमोहन सिंह को उस पद पर बैठाने का मन बना लिया था. वास्तव में, इस बात के सबूत बहुत कम हैं कि सोनिया गांधी ने प्रणब पर बहुत भरोसा किया हो क्योंकि उन्हें उन दोनों पदों (वित्त मंत्री और गृह मंत्री) से वंचित कर दिया, जिनकी वह यथोचित अपेक्षा कर सकते थे. इसके बजाय, उन्हें रक्षा मंत्रालय भेज दिया गया था.
दूसरी तरफ, यह भी सच है कि 2008-09 तक, प्रणब मुखर्जी ने सरकार संचालन की प्रक्रिया में अपनी महारत के दम पर और अहमद पटेल के साथ घनिष्ठ साझेदारी के बल पर सोनिया का विश्वास जीत लिया था, जो उस समय उनके राजनीतिक सचिव और सबसे भरोसेमंद थे.
तब वो प्रधानमंत्री बनने के काफी करीब आ गए थे. यह कोई रहस्य नहीं है कि कांग्रेस में ज्यादातर लोग भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के व्यापक समर्थक थे, लेकिन किसी ने भी मनमोहन सिंह के उत्साह को साझा नहीं किया. जब इस समझौते ने न्यूक्लियर डील में भेदभाव समाप्त कर दिया और भारत को लाभान्वित किया, तब मनमोहन सिंह ने इसके प्रभाव के बारे में असाधारण और अवास्तविक दावे किए. सिंह ने भविष्यवाणी की थी कि अमेरिकी निवेश से अरबों डॉलर का प्रवाह होगा और भारतीय अर्थव्यवस्था का कायांतरण हो जाएगा. सरकार ने आगामी पीढ़ी को देखते हुए सौदे पर हस्ताक्षर किए थे.
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भले ही कांग्रेस नेतृत्व का मानना था कि सिंह सौदे के दीर्घकालिक प्रभाव के बारे में अवगत थे, लेकिन ज्यादातर कांग्रेसी नेता इस बात से सहमत थे कि यह भारत के लिए अच्छा है. लेकिन तब समस्या यह थी कि यूपीए के पास संसद में जो बहुमत था, वह लेफ्ट पार्टियों के समर्थन से था. तब वामपंथियों ने गैरवाजिब लाइन ले ली कि परमाणु सौदा हमें अमेरिका के बहुत करीब ले जाएगा. कुछ हद तक मुश्किल से लेफ्ट आश्वस्त हुआ जब मनमोहन सिंह ने अरबों डॉलर के अमेरिकी धन प्रवाह के बारे में असाधारण दावे किए लेकिन अंतत: वामदलों ने घोषणा की कि अगर डील के लिए सरकार आगे बढ़ती है तो यूपीए से समर्थन वापस ले लेंगे.
वामदलों के इस रुख के बाद पार्टी के भीतर एक बड़ा पुनर्मूल्यांकन हुआ और सर्वसम्मति (मुखर्जी द्वारा समर्थित और मुखर) यह थी कि सौदा जितना अच्छा था, सरकार का अस्तित्व उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण था. सबसे पहले, मनमोहन सिंह इस बात को स्वीकार करते हुए दिखाई दिए, लेकिन बाद में उन्होंने अपना विचार बदल दिया और सोनिया गांधी से कहा कि यदि वह सौदा आगे नहीं बढ़ाते हैं तो वह प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे. हालांकि, वह जानते थे कि वामपंथी समर्थन वापस ले लेंगे और सरकार अपना बहुमत खो देगी. फिर भी उन्होंने कहा था कि यह, उनकी समस्या नहीं थी.
सोनिया गांधी ने आखिरकार रणनीति बनाई. डील हो गया. लेफ्ट पार्टियों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. लोकसभा में बहुमत साबित करने के लिए सरकार को अन्य मतों की तलाश करनी पड़ी और अंत में नए सहयोगियों को खोजकर निकाल लिया गया, हालांकि, इस प्रक्रिया में वोट खरीदने के कई आरोप लगे थे.
तब यह समझा जा रहा था कि भले ही सरकार ने डील के बाद लोकसभा में बहुमत साबित कर लिया लेकिन अगले चुनाव तक सीट बरकरार रखने और आगामी चुनाव में जीत के लिए फिर से वाम दलों के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया जाय. कांग्रेस में एक धड़े का मानना था कि अगर कांग्रेस स्थिर सरकार का नेतृत्व करना चाहती है तो वामपंथियों के पास वापस जाना चाहिए लेकिन वामदल मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली सरकार को समर्थन देने को राजी नहीं थे. इसलिए, प्रणब मुखर्जी, जो लेफ्ट पार्टियों की पसंद थे, का प्रधानमंत्री बनना लगभग तय हो चुका था.
इस फॉर्मूले को सोनिया गांधी का समर्थन माना जा रहा था. इस बीच, तभी 2009 के चुनाव कांग्रेस को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उसने वास्तव में पहले की तुलना में अधिक सीटें जीती थीं और उसे अब वामपंथियों की जरूरत नहीं थी. इसलिए मनमोहन सिंह दोबारा प्रधानमंत्री बनकर लौटे और प्रणब मुखर्जी हाथ मलते रह गए.
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प्रणब के पास आलोचना के कई कारण थे. यूपीए-2 सरकार बहुत जल्द ही अन्ना हजारे का आंदोलन और घोटालों की एक श्रृंखला से अपंग हो गया, मनमोहन सिंह एक गहरी चुप्पी के साथ पीछे हट गए, लोगों से मिलने या महत्वपूर्ण निर्णय लेने से भी उन्होंने इनकार कर दिया था. यूपीए-2 के अधिकांश समय में सोनिया गांधी अस्वस्थ रहने लगी थीं. जैसा कि प्रणब लिखते हैं, "जबकि सोनिया गांधी पार्टी के मामलों को संभाल नहीं पा रही थीं, डॉ. सिंह की लंबे समय तक सदन से अनुपस्थिति ने अन्य सांसदों के साथ किसी भी व्यक्तिगत संपर्क का अंत कर दिया था."
तो, क्या प्रणब मुखर्जी प्रधान मंत्री बने होते तो यूपीए-2 ने बेहतर प्रदर्शन किया होता? बेशक: हाँ. लेकिन उन घटनाओं ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया और जैसा कि मनमोहन सिंह ने कहा था, कांग्रेस कुछ भी नहीं कर पाई, पार्टी में गिरावट आज भी जारी है.
यह एक ऐसी कहानी है जिसे बताने की जरूरत है. और शायद प्रणब का संस्मरण इस पर थोड़ा प्रकाश डालेगा, चाहे उनके बच्चे कितने भी किचकिच क्यों न कर रहे हों.
(वीर सांघवी पत्रकार तथा TV एंकर हैं.)
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