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This Article is From May 12, 2014

चुनाव डायरी : चुनाव प्रक्रिया पर उठते सवाल

Akhilesh Sharma, Rajeev Mishra
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  • Updated:
    नवंबर 20, 2014 13:05 pm IST
    • Published On मई 12, 2014 13:02 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 20, 2014 13:05 pm IST

बनारस के अर्दली बाज़ार के मतदान केंद्र पर ऊषा जी से मुलाक़ात हो गई। हाथ में मतदाता पहचान पत्र लिए मत देने के लिए भटक रही थीं। साथ में उनके पति थे जिन्होंने वोट डाल दिया था। ऊषा वोट नहीं डाल पाईं क्योंकि उनका नाम मतदाता सूची में विलोपित श्रेणी में रख दिया गया। फ़ार्म 7 के ज़रिये घोषणा कर वोट डलवाया जा सकता था, मगर उन्हें वो फ़ार्म भी नहीं मिल सका।

ऊषा उन हज़ारों-लाखों मतदाताओं में से एक हैं जो चिलचिलाती धूप में लोकतंत्र को मज़बूत करने वोट डालने के लिए घर से निकलते हैं। मगर ये कई अड़चनों के चलते वोट नहीं डाल पाते और इधर-उधर धक्के खाते हैं। मुंबई और पुणे में लाखों लोगों के नाम मतदाता सूची से नदारद थे। चुनाव आयोग ने इसके लिए माफ़ी मांग कर ख़ुद को ज़िम्मेदारी से बरी कर लिया। सैंकड़ों बूथों पर भारी गड़बड़ियों की शिकायतें आती हैं मगर इक्का-दुक्का केंद्रों पर दोबारा मतदान कर आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का अपना लक्ष्य हासिल करने की कोशिश करता है।

दरअसल, दशकों से चुनाव कराते रहने के बावजूद हमारी निर्वाचन प्रणाली न तो नौकरशाही के शिकंजे से निकल सकी है और न ही पीपुल फ्रेंडली हो सकी है। ये प्रक्रिया इतनी जटिल है कि अधिकांश लोग वोट डालने को अब भी झंझट और सिरदर्द ही मानते हैं। ऊपर से चुनाव आयोग चुनाव कार्यक्रमों को लंबा करके इस पूरी प्रक्रिया को अधिक थकाऊ, उबाऊ और खर्चीला बनाता जा रहा है।

जबकि इसका ठीक उल्टा होना चाहिए था। तकनीक का इस्तेमाल आज जिस बड़े पैमाने पर चुनाव कराने में इस्तेमाल हो रहा है वैसी पहले लोक सभा चुनाव के वक़्त कल्पना भी नहीं हो सकती थी। ईवीएम के इस्तेमाल से काग़ज़ का उपयोग तो कम हुआ ही, मतगणना में भी अधिक पारदर्शिता आई है। मतदान केंद्रों पर सीसीटीवी कैमरों और कंप्यूटरों के इस्तेमाल से रियल टाइम डेटा मिल रहा है। केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती से बूथ कैप्चरिंग और अन्य धाँधलियों को कम करने में मदद मिल रही है।

फिर भी ऊषा जी जैसे लोग वोट डालने के अपने लोकतांत्रिक अधिकार का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं। इसकी वजह निचले स्तर पर चुनाव अधिकारियों का रवैया है। मतदाता सूची तैयार करने में तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ावा नहीं है। न ही वोट डालने में।

मांग उठने लगी है कि लोगों को घर बैठे ही इंटरनेट के ज़रिये वोट डालने की सुविधा मुहैया कराने पर विचार किया जाए। पोस्टल बैलेट की प्रक्रिया को सरल बनाया जाए। मतदान केंद्रों की संख्या बढ़ाई जाए। चुनाव कार्यक्रम को कम जटिल और छोटा बनाया जाए। पूरा मतदान खत्म होने के साथ ही मतगणना शुरू कराई जाए और इस काम में तीन-चार दिनों की देरी रोकी जाए।

चुनाव आयोग ने सुरक्षा बलों के मूवमेंट में कठिनाई के नाम पर कई चरणों में चुनाव कराने की जो परंपरा शुरू की अब वो आम हो गई है। लोक सभा छोड़िए, कई राज्यों में तो विधानसभा चुनाव भी कई चरणों में दो-दो महीनों तक चलते रहते हैं। सारे चुनाव एक साथ करा पाना शायद अभी मुमकिन न हो पाए, मगर आयोग को उस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। ऐसा करके वो शायद ऊषा जी जैसे हज़ारों-लाखों मतदाताओं के लोकतंत्र में विश्वास को मज़बूत ही करेगा और उन्हें ख़ाली हाथ घर लौटने से रोक सकेगा।

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