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This Article is From Feb 15, 2016

'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' और 'लव आजकल' के पीछे क्या है

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 15, 2016 15:34 pm IST
    • Published On फ़रवरी 15, 2016 10:57 am IST
    • Last Updated On फ़रवरी 15, 2016 15:34 pm IST
पिछले से पिछले साल ऋतिक रोशन का अपनी पत्नी सुज़ैन से तलाक हुआ था। इसी तरह की घटना ने पिछले वर्ष एक्ट्रेस कल्कि के माध्यम से खुद को दोहराया, जब उनका अनुराग कश्यप से अलगाव हुआ। अब बारी आई लगती है फरहान अख्तर की, जो अपनी पत्नी अधुना से अलग होने की प्रक्रिया में हैं।

पति-पत्नियों में टकराव और तलाक तो होते रहे हैं, लेकिन प्रेमी-प्रमिका में...? सन् 2009 में एक फिल्म आई थी - 'लव आज कल' - जिसमें प्रेमी-प्रेमिका के बीच संबंधों के समाप्त होने पर जश्न मनाया जाता है, और उसे कहा गया - 'ब्रेक-अप पार्टी'... असल ज़िन्दगी में कैटरीना कैफ का रणबीर कपूर से ब्रेक-अप हो चुका है, और अभय देयोल का प्रीति देसाई से। वैसे, इस लिस्ट को काफी लंबा किया जा सकता है, लेकिन फिलहाल एक विशेष कारण से इसे यहीं रोका जा रहा है।

सन् 2011 में एक फिल्म आई थी 'ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा'... मेरी रिक्वेस्ट है कि आप एक बार इस फिल्म के सितारों को याद करने की कोशिश करें। आप चौंक जाएंगे कि ऊपर जिन पति-पत्नियों और प्रेमी-प्रमिकाओं के एक-दूसरे से अलग होने की बात कही गई है, उन जोड़ों में पहला नाम उन्हीं का है, जिन्होंने इस फिल्म में काम किया। ग़ज़ब की बात यह कि इस घटना से इस फिल्म का कोई भी सितारा खुद को बचा नहीं सका।

...तो क्या इसका उत्तर यह माना जाए कि इन सभी कलाकारों ने फिल्म के नाम को ही ज़िन्दगी जीने का 'आदर्श वाक्य' बना लिया - सो, इसे जियो, जमके जियो, जैसे जीना चाहो, जियो। किसी की दखलअंदाज़ी बर्दाश्त मत करो, चाहे वह पत्नी हो या प्रेमिका... वैसे, बाद में आई 'ये जवानी है दीवानी' और 'तमाशा' जैसी फिल्में भी कुछ इसी तरह का संदेश लेकर आईं।

यह कलाकारों के जीवन का सच है, जो हम सबके जीवन के सच से बहुत अलग और रोमानी नहीं है। लेकिन ये कलाकार अपनी कला द्वारा सिनेमा के पर्दे पर जीवन के जिस रूप को पेश करते हैं, खासकर प्रेम के रूप को, क्या इसका कोई भी सरोकार यथार्थ जीवन के प्रेम से होता है...? एक प्रश्न यह भी है कि कलाकार प्रेम के जिस उदात्त भाव का अनुभव करके उसे पर्दे पर उतारता है, क्या उसका एक छोटा-सा भी टुकड़ा वह अपने दिल में उतार पाता है...? यानी, हम जो करते हैं, इसका कितना संबंध उससे होता है, जो हम वास्तव में जीते हैं...?

दरअसल, यह सवाल मन में बार-बार इसलिए कौंध रहा है, क्योंकि फिल्मों और उसके सितारों का बहुत ही गहरा असर समाज की सामूहिक चेतना पर पड़ता है। व्यक्ति फिल्मों में दिखाए गए प्रेम के उस रोमानीपन को अपनी ज़िन्दगी में पाना चाहता है, जो वास्तव में होता ही नहीं। यहीं उसे लगता है कि 'मेरे साथ कुछ गलत हो रहा है...' और फिर वह सचमुच गलती कर बैठता है - जो है, उसे छोड़कर किसी ऐसी चीज़ की खोज में भटकने की गलती, जो है ही नहीं... वह आवाज़ लगाता ही रह जाता है - 'रंग दे तू मोहे गेरुआ...' एक अतृप्त, खीझ से भरी, दरके हुए भावों वाली आधी-अधूरी ज़िन्दगी; जहां अकेले रहना भी मुश्किल है, और साथ रहना और भी मुश्किल...

क्या यही वह कारण था कि यूनान के महान दार्शनिक प्लेटो को ढाई हजार साल पहले यह कहना पड़ा था कि कलाकारों को राज्य से निष्कासित कर देना चाहिए, क्योंकि वे ईश्वर की रचना को अपनी कला द्वारा विकृत कर देते हैं। प्लेटो की इस बात से तो सहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन इस कथन को आधार बनाकर कलाकारों से एक गहरे सामाजिक दायित्व की अपेक्षा तो की ही जा सकती है, क्योंकि वे एक रोल मॉडल का काम करते हैं।

जो किसी भी तरह की सामाजिक भूमिका में आ जाते हैं, उन्हें अपनी निजता का त्याग करना ही पड़ता है। यह भी तो ज़िन्दगी जीने का एक ऐसा अंदाज़ हो सकता है कि सिर उठाकर कहा जा सके 'ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा...'

जियो, लेकिन सिर्फ अपने लिए नहीं... मरो, तो ऐसे कि दूसरों की स्मृतियों में ज़िन्दा रह सको...

(इसी कड़ी में शुक्रवार को पढ़िए रिश्तों की ज़िंदगी बचाने की तरकीब..)

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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