बहुत पुरानी नहीं, यही मुश्किल से करीब पचास साल पहले की बात है, जब मेरी दादी अपने पैर छूने वाली अपनी हर जवान बहू को एक यही आशीर्वाद देती थी ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो।’ करीब तीस साल पहले मेरी मां, जिन्हें खुद मेरी दादी का हर बार उक्त ही आशीर्वाद मिला था, अपनी बहुओं से कहने लगीं, ‘सदा सुहागिन रहो।’ और ‘सदा सुहागिन रहो’ का आशीर्वाद प्राप्त मेरी पत्नी के जब आज की बहुयें पैर पड़ती हैं, तो वह कहती हैं, ‘खुश रहो।’ यह है चार शब्दों वाले आशीर्वचन की क्रमश: दो शब्दों वाले आशीर्वचन में सिमट जाने की एक चिंतनीय यात्रा।
आशीर्वचन में आया तीन पीढ़ियों का यह बदलाव सामान्य बदलाव नहीं है, बल्कि आंखें खोल देने वाला बदलाव है। दरअसल, पन्द्रह-पन्द्रह सालों के ये तीनों अलग-अलग टुकड़े नारी के एक ही रूप, जो मूलतः का रूप है, में होने वाले सामाजिक एवं चेतनागत बदलाव के जीवंत उदाहरण हैं। मेरी दादी अपनी बहू को विराट एवं अनन्त जीवन का केन्द्र मानती थीं। मेरी मां ने उसे विराट से काटकर परिवार में (पत्नी रूप में) समेट दिया। और मेरी पत्नी ने उसे उसी तक (तुम) सीमित कर दिया।
लेकिन क्या ‘मां’ के इस विशाल कद का छोटा होना यहीं पर आकर रुक गया?
मेरे एक मित्र हैं, गजब के इंटेलिजेंट। उन्होंने विवाह तो किया है, लेकिन इस सहमति के साथ कि ‘बच्चा नहीं करना है।’ इससे भी आगे की बात तो यह है कि जब मेरी पत्नी ने अपनी सबसे प्रिय सहेली की सत्ताईस साल की लड़की की शादी के बारे में पूछा, तो उन्हें सुनने को मिला कि ‘उसने शादी करने से साफ-साफ इंकार कर दिया है।’ ‘तो फिर वह करेगी क्या?’ उत्तर मिला ‘नौकरी।’ यानी कि नौकरी और शादी, ये दोनों एक साथ नहीं चल सकते। और यदि इन दोनों में से किसी एक को चुनना पड़े, तो निःसंदेह रूप से यह चयन नौकरी के पक्ष में होगा।
यह किसी एक आधुनिक लड़की की इच्छा नहीं है, बल्कि शायद हर उस लड़की की इच्छा है, जो नारी सशक्तीकरण के साथ खड़ी है। तभी तो ‘बागी’ फिल्म के फिलहाल बहुचर्चित हीरो टाइगर श्रॉफ ने जब यह कह दिया कि ‘मुझे हाउसवाइफ’ पसन्द है, तो बहुत सी कामकाजी महिला ने इसे अपना अपमान मान लिया।
जाहिर है कि भले ही ‘मैरीकॉम’ फिल्म का कोच विश्व बॉक्सिंग चैम्पियन मैरिकॉम से कहता हो कि ‘मां बनने के बाद औरत अधिक शक्तिशाली हो जाती है’, लेकिन समाज की सचाई तो इसके ठीक विपरीत दिखाई देती है।
तो स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंधों के इन सारे द्वंद्वों, टकरावों, तनावों और दबावों के बीच समय ने एक नया रास्ता निकाला, जिसे हम ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के नाम से जानते हैं। इस रिलेशनशिप में भी जैसे ही नारी मां बनेगी, वैसे ही उसे कानूनन पत्नी का दर्जा मिल जाएगा। मजेदार बात यहां यह कि यह नई व्यवस्था तैयार की इसलिए गई है, ताकि दोनों साथ-साथ रह भी लें, और दोनों के साथ के इस संबंध को रिश्ते का कोई औपचारिक नाम भी न मिले। इसके केन्द्र में है कि दोनों की स्वतंत्रता बनी रहे। लेकिन जैसे ही एक नारी मां बनती है, दोनों की स्वतंत्रताओं का अपहरण हो जाता है। यानी कि फिर से वही-ढाक के तीन पात।
वस्तुतः आज संकट केवल इस बात का ही नहीं है कि उन लड़कियों को जन्म लेने नहीं दिया जाता, जिन्हें आगे चलकर मां बनना है, बल्कि तब भी है, जब वे मां बन जाती हैं। इस समय उसके एक ओर होती है ममता और दूसरी ओर होती है- माया। धीरे-धीरे माया ही ममता को प्रमाणित करने लगी है। आज की मां इन दोनों के बीच में फंसी हुई पिस रही है। उसे इस द्वन्द्व से उबारने की ईमानदार कोशिश ही उसको सच्चा मान देना होगा। ‘मदर्स डे’ पर उसके लिए इससे बड़ा शायद ही कोई दूसरा गिफ्ट हो।
मां तुझे सलाम।
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From May 08, 2016
ममता और माया के बीच फंसी आज की मां
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:मई 08, 2016 11:41 am IST
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Published On मई 08, 2016 11:37 am IST
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Last Updated On मई 08, 2016 11:41 am IST
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