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This Article is From Jul 20, 2016

क्यों एक ब्राह्मण के बेटे ने गाय की खाल उतारने का लिया बगावती फैसला...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 20, 2016 21:50 pm IST
    • Published On जुलाई 20, 2016 21:13 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 20, 2016 21:50 pm IST
'मैं बीस साल से मृत गाय और जानवरों की खाल उतारता हूं। इस काम की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। 50 किलो की खाल पीठ पर लादकर लाता हूं। मेरे हाथ का कोई पानी भी नहीं पीता है। मुझे कोई अफसोस नहीं। नहीं पीना है तो मत पीओ।'

59 साल के विजय दीवान कहते हैं कि उनकी कोई जाति नहीं है। कोई धर्म नहीं है। मगर मेरे बहुत ज़िद करने पर बताया कि माता-पिता ब्राह्मण थे। एक ब्राह्रण परिवार के लड़के ने 1982 में जब यह काम करने का फैसला किया होगा तो उसके भीतर भारत की जाति व्यवस्था के इस दंश को मिटा देने की कितनी ज़िद होगी। यह सोच कर लगा कि गौ रक्षा के वहशी विवादों के बीच आप पाठकों का परिचय विजय दीवान से कराना चाहिए। मुंबई में पले बढ़े विजय दीवान ने जब अपना फैसला परिवार को बताया तो खास विरोध नहीं हुआ। वे जवानी में ही गांधीवादी और सर्वोदयी हो गए थे। महानगर से 100 किमी दूर गगोड़ा गांव चले आए जहां विनोबा भावे का जन्म हुआ था। तब से विजय दीवान वहीं रहते हैं और खाल उतारने का काम करते हैं।

विजय दीवान का कहना है कि डॉक्टर अंबेडकर ने कहा है कि इस काम के कारण दलितों पर छुआछूत लादा गया, इसलिए उन्हें यह काम छोड़ देना चाहिए। गांधी भी मानते थे और विनोबा भावे भी, लेकिन किसी न किसी को तो पहल करनी थी। मैंने कर दी। दो टुक बात करने वाले विजय दीवान को सुनना समाजशास्त्र की एक मोटी किताब को पढ़ने से कहीं ज्यादा बेहतर लगा। कहने लगे कि चमड़े के काम में कोई प्रतिष्ठा नहीं है। पैसा आप करोड़ों कमा सकते हैं लेकिन जिस काम में प्रतिष्ठा नहीं है, वो दलित क्यों करें। सवर्ण को लगेगा तो वह यह काम करेगा। मगर दलित हर हाल में नहीं करेगा।
 

विजय दीवान कहते हैं कि चमड़ा गांवों की नैसर्गिक संपत्ति है। गांधी तो कहते थे कि गौ शाला के बगल में ही चर्मालय होना चाहिए। हर साल एक गांव में दस से बारह गायों की मौत होती है। इनकी खाल ग्रामीण अर्थव्यवस्था का हिस्सा है। कच्चा चमड़ा सात सौ रुपये में बिकता है। चूने में पकाने के बाद उसकी कीमत 2000 रुपये की हो जाती है। महाराष्ट्र में 40,000 गांव हैं। लिहाज़ा इससे 40 करोड़ का कारोबार गांव में ही पैदा होता है। गांव में ही जूते बन जाते थे और भी कई चीज़ें बनती हैं वो कमाई अलग से जोड़ लीजिएगा।

विजय दीवान कहते हैं कि वे जीव दया वाले नहीं हैं। वे कहते हैं कि महाराष्ट्र में ज़्यादातर ब्राह्मण मांसाहार करते हैं। फिर वो मांस काटने से लेकर बेचने का काम क्यों नहीं करते हैं। जो करते हैं उन पर जाति व्यवस्था की क्रूरतम सज़ा क्यों थोपी गई। उस काम से प्रतिष्ठा क्यों ली गई। लोग मछली खाते हैं। मछली कौन लाता है। कोली समाज के लोग पकड़ कर लाते हैं। तो कोली समाज के साथ सवर्ण सामाजिक रिश्ता क्यों नहीं करता है। बहुत से लोग फांसी की सज़ा की मांग करते हैं। आपको पता है फांसी कौन देता है। क्या कोई सवर्ण फांसी देता है, आप पता तो कीजिए। मतंग समाज के लोग फांसी पर लटकाते हैं। फांसी की सज़ा की मांग करने वाले मतंग परिवार में शादी करेंगे?

59 साल की उम्र में विजय दीवान जिन अनुभवों से तप कर बोल रहे हैं वो दुर्लभ है। कहते हैं कि गाय की खाल का सवाल धर्म का नहीं है। हिन्दुत्ववादी राजनीति दलितों पर अत्याचार का बहाना ढूंढ रही है। यह बंद होना चाहिए। दलितों को चमड़े का काम तुरंत बंद कर बाकी समाज पर छोड़ देना चाहिए। पहले तो इस काम के कारण हर चीज़ से वंचित किया गया और अब उसे मारा जा रहा है। आज़ाद भारत में यह बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।

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