1327 ईस्वी के आस-पास मध्य यूरोप के एक प्रमुख ईसाई मठ में एक सुबह पुस्तकालय की पाण्डुलिपियों को खूबसूरत चित्रों से सजाने में माहिर एक संन्यासी अडेल्मो ऑव ओटरेण्टो का मर्डर हो जाता है. उसके बाद ऐसी ही तकरीबन आधा दर्जन रहस्यमयी हत्याओं के ताने-बाने से रची औपन्यासिक कृति ''ख़ाली नाम गुलाब का (द नेम ऑफ़ द रोज़)'' प्रसिद्ध इतालवी लेखक अम्बर्तो इको की क्लासिक रचना आई जोकि रोमांचकारी घटनाओं का अद्भुत वृतांत है. लेखक ने नैरेटर एड्सो ऑव मेल्क के माध्यम से इस कहानी को अनोखे अंदाज में पेश किया है.
औपन्यासिक धरातल के इतर यह उस दौर के सर्वशक्तिमान पोप यानी चर्च के साम्राज्य की विसंगतियों और विद्रूपताओं, चौंदहवीं सदी के ईसाई जगत के आस्था के नाम पर उन्मादी धर्मयुद्धों, धार्मिक परीक्षणों और अपने युग को रुपायित करने वाले दौर का दस्तावेज सरीखी रचना है. साथ ही एक-दूसरे फलक पर इन विरोधाभासों से उपजती आवाजों, बौद्धिक चिंतन और विमर्श से भविष्य के लिए रोशनी भी मिलती है जोकि यूरोपीय पुर्नजागरण का जयघोष भी करती प्रतीत होती हैं. उसकी परिणति आधुनिक दौर में इस दुनिया के बीच चर्च और विज्ञान की लगातार हो रही टकराहटों में गुंजित होती रहती हैं.
इस उपन्यास के अनुभवों से गुजरते वक़त ज़हनी तौर पर तुर्की के प्रसिद्ध लेखक ओरहान पामुक के 'माई नेम इज रेड' की तस्वीर भी उभरती है. ऐसा इसलिए क्योंकि वह भी 12सदी के अंतिम वर्षों में पूरब और पश्चिम के अंतर्विरोधों और विरोधाभास की पृष्ठभूमि में पेशेवर रंजिश को पेश करता एक खूबसूरत किस्सा है. यह विशेष रूप से इसलिए याद आता है क्योंकि दोनों ही रचनाकारों ने एक ऐसे दौर को चुना है जो बहुत पहले बीत चुका है और उनकी किस्सागोई का कलेवर अद्भुत रूप से एक साम्यता प्रकट करता है. पामुक का उपन्यास भी अतीत में पूरब और पश्चिम के बीच उभरे तनावों को अब ईसाई और मुस्लिमों के बीच सतही तौर पर दिख रहे विरोधों की पृष्ठभूमि के रूप में गढ़ा हुआ सा है.
सुदूर अतीत के उस दौर को चुनने को लेकर अम्बर्तो इको का स्पष्ट आग्रह रहा है. उन्होंने भूमिका में ही स्पष्ट कर दिया है कि दुनिया को बदलने के लिए अपने युग से प्रतिबद्ध लेखन के दबाव या सामयिकता की उन्होंने परवाह नहीं की है. इसलिए उन्होंने शुद्ध रूप से किस्सागोई के आनंद की खातिर इस कहानी को मुक्त भाव से कहा है. लिहाजा मौजूं दौर की प्रासंगिकता से दूर यह एक ऐसा क्लासिक है जो हम बिना किसी पूर्वानुमान अथवा पूर्वाग्रह से सुखद अनुभूति के रूप में पाते हैं.
शायद इसीलिए उस गुजरे ज़माने की झलक पाने के लिए बारंबार इस तरह के क्लासिक की तरफ लौटना चाहते हैं जिसका इतिहास के रूप में हमसे नाता है. इस क्लासिक कृति का हिंदी में मदन सोनी द्वारा दुर्लभ बोधगम्य, यथासंभव सहज अनुवाद इसके आनंद को बढ़ाता है. वास्तव में इसका अनुवाद उनके लिए बेहद परिश्रम भरा कार्य रहा होगा लेकिन यह विश्वास से कहा जा सकता है कि उन्होंने निराश नहीं किया है. उन्होंने उस भाव का जीवित रखा है जोकि मूल रचना का प्राण है.
संक्षेप में अम्बर्तो इको के शब्दों में यदि कहा जाए तो इसको पढ़ते हुए हम महान नक्काल केम्पिस के साथ इन शब्दों को दोहरा सकते हैं: '' मैंने हर चीज़ में शांति की तलाश की, लेकिन वह एक कोने में एक पुस्तक के साथ होने के क्षणों के अलावा मुझे कहीं नहीं मिली.'' इसलिए किस्सागोई के आनंद की खातिर इसको पढ़ने के मोह से बचा नहीं जा सकता...
(किताब का नाम : ख़ाली नाम गुलाब का, लेखक : अम्बर्तो इको, अनुवादक : मदन सोनी, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, कीमत : 395 रुपए)
(अतुल चतुर्वेदी एनडीटीवी खबर में कार्यरत हैं)
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