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This Article is From Jul 30, 2016

बारिश में दिल्ली के ड्राइवर बौरा क्यों जाते हैं?

Kranti Sambhav
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 01, 2016 13:20 pm IST
    • Published On जुलाई 30, 2016 11:12 am IST
    • Last Updated On अगस्त 01, 2016 13:20 pm IST
क्या आप दिल्ली में रहते हैं? या रहे हैं? या फिर कभी आते-जाते रहे हैं? या टीवी न्यूज़ देखते हैं? इनमें से कोई भी एक सवाल का जवाब सही है तो फिर आपने भी वो देखा होगा जिस पर इस ब्लॉग का शीर्षक आधारित है। कहने का मतलब ये कि बारिश में दिल्लीवालों को क्या हो जाता है ये समझने के लिए हमें मॉनसून के वक़्त दिल्ली के रिंग रोड पर घूमने की ज़रूरत नहीं है। बारिश में दिल्लीवाले ड्राइवरों और राइडरों की हालत 'वर्ल्ड फ़ेमस इन इंडिया' है। मैं दिल्ली में ढाई दशक से रह रहा हूं और हर बरसात में वही नज़ारा देखता रहा हूं, हां मैं उस बेमतलब के गुड-ओल्ड-डेज़ के सिंड्रोम में भी नहीं जाऊंगा कि पहले बहुत अच्छे ड्राइवर हुआ करते थे, अब ख़राब। नहीं, बारिश की एक बूंद किसी भी आम दिल्ली वाले ड्राइवर को बौराने के लिए काफ़ी होती है। आदि काल से ये परंपरा चली आ रही है। तो इस पर आपने भी अचरज किया ही होगा, मैंने भी किया। और सोचा कि आख़िर क्यों होता है ऐसा ? तो बहुत ही छिछली स्टडी के बाद कुछ बहुत ही गहरी थ्योरी निकाले हैं मैंने कि आख़िर इसके पीछे वजहें क्या हैं ? जिसमें सबसे बड़ी वजह है भरोसा या कॉन्फ़िडेंस या कहें कि उनकी कमी।

कॉन्फिडेंस सड़कों पर...
सबसे पहले तो हमें सड़कों पर भरोसा नहीं होता है। मतलब कंस्ट्रक्शन क्वालिटी के हिसाब से बोल रहा हूं। ये खटका लगा रहता है कि कहां सड़क में छेद हो, कहां टूटी हुई हो। कहीं पीडब्लूडी पर भरोसा कर लिया और निकल गए सीधे तो क्या पता गाड़ी का टायर टेढ़ा होगा या हमारी कमर, या मेनहोल में ही पहिया चला जाए। इनमें से दो घटनाओं का तो मेरा निजी अनुभव है दिल्ली में। तो जहां भी दिल्लीवाले ड्राइवर को ज़रा सा भी पानी सड़क पर दिखता है वो अपनी स्टीयरिंग पकड़ कर सड़क पर नागिन डांस करने लगता है, दाएं-बाएं से निकाल-निकाल कर ट्रैफ़िक को डंसने लगता है।  

कॉन्फ़िडेंस लाइसेंसों पर...
फिर जो समस्या है पूरे देश की है लेकिन दिल्ली में ज़्यादा मुखर है, वह है लाइसेंसिंग की समस्या। अब सोचिए कि आम ट्रैफ़िक में तो ठीक है लोग कैसे भी गाड़ी भगा दें। लेकिन मुश्किल हालात में तो इंसान वैसे ही पाशविक प्रवृत्ति का हो जाता है। हर चीज़ पर उसे अविश्वास हो जाता है। ऐसे में उस ड्राइवर पर उसे कैसे भरोसा होगा जिसने आरटीओ में पैसे खिला कर लाइसेंस लिया होगा। और ये भरोसा इसलिए अटूट होता है क्योंकि आधे से ज़्यादा ने ख़ुद वैसे ही किसी तरीके से लाइसेंस पाया होता है। ऐसे में तो डर लगेगा ना कि भाई ये संभाल पाएगा कि नहीं? और ये अटकेगा तो मैं भी अटकूंगा, तो ऐसी हर आशंका का समाधान ऐसी हर कार को ओवरटेक करके ही हो सकता है।

कॉन्फिडेंस अपनी गाड़ी पर..
आमतौर पर दिल्ली की सड़कों पर जाम की शुरुआत किसी ना किसी गाड़ी के ख़राब होने से हो होती रही है। गाड़ियों के मेंटेनेंस को अगर जल्द नीति निर्धारक सिद्धांतों में शामिल नहीं किया गया तो फिर जल्द देश भर की सड़कों पर गाड़ी पार्क होगी और इंसान पैदल होंगे। दिल्ली में या कहें कि उत्तरी भारत और मैदानी इलाक़ों में लोगों ने ख़ासतौर पर ये समस्या देखी है। दुर्गति करके रखते हैं अपनी गाड़ी की, आलस है या अल्हड़पन पता नहीं। तो अगर आप डरे रहेंगे कि घर पहुंचेंगे कि नहीं, रास्ते में टैं तो नहीं बोल जाएगी आपकी गाड़ी तो आप तो बौराएंगे ही ना? वैसे  बारिश से पहले तक आधे से ज़्यादा लोगों की गाड़ियों के तो ढंग से वाइपर नहीं चल रहे होते हैं।

कॉन्फ़िडेंस ट्रैफ़िक पुलिस और लाइट्स पर...
ये दिल्ली में तो दिखता है पता नहीं बाक़ी शहरों में पता नहीं क्या होता है। दिल्ली में अगर बारिश की एक बूंद भी पड़े तो संविधान का राज ख़त्म हो जाता है, पुलिस और चालान की सत्ता चली जाती है, पुलिस और रेडलाइट की सत्ता को निरस्त करके सभी ड्राइवर आपस में बांट लेते हैं, और सब अपनी अपनी विकास यात्रा पर निकल जाते हैं भले ही वो यात्रा साढ़े तीन इंच से आगे ना खिसके। ये वाकई समझ में नहीं आता कि बारिश की एक बूंद दिल्लीवालों के धीरज की दही को रायता में कैसे तब्दील कर देती है।

कॉन्फिडेंस मौसम विभाग पर...
ये वो मुद्दा है जिस पर पिछले साल चुटकुले बन रहे थे कि मौसम विभाग की भविष्यवाणी सटीक होती जा रही है, क्या इंटरनेट से जानकारी कॉपी पेस्ट की है क्या? लेकिन चुटकुलों से जुदा ये सच्चाई है कि भविष्यवाणियों पर पूरा भरोसा ना होने की वजह से लोग छाता रेनकोट लेकर नहीं निकलते। कार वाले ना निकलें तो कोई बात नहीं लेकिन मोटरसाइकिल-स्कूटर सवार अगर लेकर ना निकलें तो क्या हो? वही, जो दिखता है। बारिश होते ही टू-व्हीलर वाले बेचारे छाया ढूंढ कर रुक जाते हैं, अपनी सवारी सड़क पर लगा कर...। और जब रुकने वालों की संख्या बढ़ जाती है, बाइक्स की भीड़ लग जाती है तो सड़कें अटक जाती हैं। वैसे रेनकोट पहन कर वो बारिश से तो बच सकते हैं लेकिन फिर बाक़ी ड्राइवरों का क्या, उनसे कौन बचाएगा ? (इस संदर्भ के लिए प्वाइंट नंबर दो देखें)

मेरा अगला शोध दिल्ली वालों की उस कुंठा पर होने वाला है जो इस वजह से पनप रही है क्योंकि वे इंद्र से नहीं कह पाते - तू जानता नहीं मेरा बाप कौन है?

क्रांति संभव एनडीटीवी इंडिया में एसोसिएट एडिटर और ऐंकर हैं.

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