चुनाव में भाग लेने के साथ-साथ उसे समझने की प्रक्रिया भी चलती रहनी चाहिए. हमारा सारा ध्यान सरकार बदलने और बनवाने पर रहता है लेकिन थोड़ा सा ध्यान हमें उन कारणों पर भी देना चाहिए जो राजनीति को तय करते हैं. जिनके कारण राजनीतिक बदलाव असंभव सा हो गया है. अशोका यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर जिल्स वर्नियर ने इंडिया टुडे की वेबसाइट पर एक रिसर्चनुमा लंबा सा लेख लिखा है. यह लेख हमें समझने में मदद करता है कि ज़मीन पर एक राजनीतिक कुलीन वर्ग पैदा हो गया है. वर्नियर अपने लेख में इन्हें पारंपरिक कुलीन कहते हैं.
अब हमें समझना है कि पारंपरिक कुलीन बनते कैसे हैं. ज़ाहिर है सवर्ण जातियों से. दूसरा ज़िलों और कस्बों में योजनाओं की ठेकेदारी, व्यापार, प्राइवेट स्कूल कॉलेज, अस्पताल, मार्केट और ज़मीन के धंधे से अमीर होने में पहली बाज़ी मारने से. इस तरह आज़ादी के बाद भी संसाधनों पर नियंत्रण की प्रक्रिया में ये आगे रहे. स्थानीय स्तर पर आप देखेंगे कि यही वो कुलीन वर्ग है जो इस दल से उस दल में जाकर कुछ समय के लिए अपना ठिकाना बनाता है. पहले वह कांग्रेस में था. अब उसने बीजेपी में सुरक्षित ठिकाना बना लिया है. इनके कई तरह के अवैध-वैध हित होते हैं. इनके पास पैसा इतना होता है कि स्थानीय स्तर पर सामाजिक कार्यों के दिखावे से अपना नाम बनाए रखते हैं. यही लोग टिकट पाते हैं.
कांग्रेस और बीजेपी इन पारंपरिक कुलीनों का इस्तमाल करती है. ये उनके टिकट पर चुनाव जीत कर उसे सत्ता देते हैं और सत्ता जीत कर कांग्रेस और बीजेपी इन्हें अपने वैध-अवैध हितों को पूरा करने की छूट देती है. इसलिए आप देखेंगे कि सांसदों को हरा देने या जीता देने से हालात में कोई फर्क नहीं पड़ता है. क्योंकि इनके हित जनता से नहीं जुड़े होते हैं. एक और चीज़ पर ग़ौर करना चाहिए. अगर आप और करीब से देखेंगे तो पता चलेगा कि हर दल में रहने के कारण आज उम्मीदवारों की अहमियत समाप्त हो गई है. जनता भी कहने लगी है कि हमें उम्मीदवार से मतलब नहीं है. मोदी के चेहरे से मतलब है. हर जगह मोदी का चेहरा है. उम्मीदवार का नहीं. इस तरह चुनावी जीत में भले ही उम्मीदवार गौण हो गया है मगर संसाधनों पर नियंत्रण और उनके विस्तार की प्रक्रिया में वह अभी भी महत्वपूर्ण है. वह चुनाव मोदी के नाम पर जीत रहा है मगर काम अपना कर रहा है.
वर्नियर ने अपने शोध में बताया है कि बीजेपी के उभार से 2017 में सवर्णों का प्रतिनिधित्व 32.4 प्रतिशत से बढ़कर 42.7 प्रतिशत हो गया है. हरियाणा विधानसभा में जाट और सवर्णों का प्रतिनिधित्व 52 प्रतिशत से बढ़कर 62 प्रतिशत हो गया है. असम विधानसभा में 47 प्रतिशत विधायक सवर्ण हैं. दो में से एक विधायक सवर्ण है. यहां तक कि जिन राज्यों में बीजेपी ने अच्छा नहीं किया है वहां भी पारंपरिक कुलीन ने विधानसभाओं में अपनी बढ़त बनाए रखी है. बिहार में बीजेपी के 54 फीसदी विधायक सवर्ण हैं. जबकि पूरी विधानसभा में सवर्णों का प्रतिनिधित्व 21 प्रतिशत है. राजस्थान में 57.6 प्रतिशत विधायक प्रभुत्व रखने वाली जातियों के हैं. मध्य प्रदेश में इनका प्रतिशत 53 प्रतिशत है.
जहां सवर्ण पारंपरिक कुलीन हैं वहां इनका वर्चस्व है, जहां ओबीसी और अन्य जातियां पारंपरिक कुलीन हैं वहां बीजेपी ने उन्हें प्रभुत्व दिया है. प्रतिनिधित्व दिया है. गुजरात में 51 प्रतिशत बीजेपी विधायक पाटिदार हैं. कांग्रेस में मात्र 34.6 प्रतिशत. एक तरह से देखिए तो दोनों दलों में इन्हीं का वर्चस्व है. बीजेपी भले कहती है कि वह उन जातियों को प्रतिनिधित्व देती है जिन्हें सपा बसपा या अन्य दलों में प्रतिनिधित्व नहीं मिला मगर आंकड़े कुछ और कहते हैं. उसकी समावेशी या सबको साथ लेकर चलने की राजनीति उसी पारंपरिक कुलीन को लेकर चलने की है जो यथास्थिति का निर्माण करता है. यही कारण है कि इन तबकों में बीजेपी को लेकर या मोदी मोदी का शोर ज़्यादा सुनाई देता है.
2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने टिकटों के बंटवारे में 48.2 प्रतिशत टिकट सवर्णों को दिया. ओबीसी और जाट उम्मीदवारों को 31.2 प्रतिशत. इस 31.2 प्रतिशत में से दो तिहाई जाट, यादव, कुर्मी और गुर्जर को दिया. बाकी हिस्से में निषाद, राजभर, कुशवाहा, लोध जैसी जातियों को टिकट मिला. कांग्रेस ने 35 प्रतिशत टिकट सवर्णों को दिया था.
वर्नियर ने बीजेपी के भीतर पारंपरिक कुलीन वर्गों की बढ़ती हिस्सेदारी को विधानसभा में ही नहीं देखा है. अपने रिसर्च में बताते हैं कि प्रशासन और निकायों में योगी आदित्यनाथ ने ठाकुर समाज को काफी महत्व दिया है. हिन्दी प्रदेशों में बीजेपी के 8 मुख्यमंत्रियों में से पांच ठाकुर रहे हैं. कांग्रेस में भी इसी तरह का ट्रेंड दिखेगा. कहीं ब्राह्मण छाया हुआ है तो कहीं ठाकुर.
क्या सिर्फ बीजेपी ऐसा करती है? नहीं. पूरे भारत में यही ट्रेंड है. जहां का स्थानीय और पारंपरिक कुलीन है राजनीति में उसका वर्चस्व है. यह कुलीन जाति से बनता है. उस जाति से जिसका संसाधनों पर पहला अधिकार होता है. बीजेपी और कांग्रेस दोनों यही फार्मूला अपनाते हैं. ओबीसी और दलित राजनीति के उभार से सवर्णों का प्रभुत्व घटा था. मगर बीजेपी के इस फार्मूले से उनकी वापसी हुई है. पिछड़ी जाति के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री मोदी के उभार का लाभ इस पारंपरिक कुलीन को मिला है जो हिन्दी भाषी राज्यों में प्रमुख रूप से सवर्ण है. लाभ जाति को मिला है मगर गुणगान धर्म और राष्ट्रवाद का करते हैं ताकि इसी की आड़ में सवर्ण अपनी वापसी कर चुके हैं.
इसका नुकसान यह होता है कि बीजेपी और कांग्रेस में दूसरी जातियां झोला लेकर ढोती रह जाती हैं उन्हें प्रभुत्व नहीं मिलता है. यही पारंपरिक कुलीन राष्ट्रवाद के नाम पर अपने लिए वोट हड़प लेगा लेकिन इसके नाम पर अपना वोट या संसाधन उसी पार्टी के टिकट से कम प्रभुत्व वाली जाति के मगर सबसे योग्य उम्मीदवार को नहीं देगा ताकि वह जीत सके. कई दशक बाद पारंपरिक कुलीनों की राजनीति में वापसी हुई है. यही कारण है कि आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार के फेल होने के बाद भी यह कुलीन अपने हाथ आए मौके को जाने नहीं देना चाहता. वह पूरी तरह से मोदी से जुड़ा हुआ है. क्योंकि उसे पता है कि मोदी नहीं आए तो वह बिखर जाएगा. पहले उसे अन्य जातियों के प्रति नफ़रत ज़ाहिर करने में संकोच नहीं होता था, अब उसे ज़रूरत महसूस नहीं होती. राष्ट्रवाद या सांप्रदायिक मुद्दों के नाम पर बहला फुसला कर उसने अपना वर्चस्व कायम कर लिया है.
वर्नियर ने बताया है कि इस पूरी प्रक्रिया में कम संख्या वाली जातियों का प्रतिनिधित्व कम ही होता गया है. इनकी मदद से लंबे समय तक यादव या जाटव समाज का वर्चस्व रहा. अब इनकी मदद से फिर से पारंपरिक कुलीन यानी सवर्णों का वर्चस्व होने लगा है.
समर्थकों का राजनीतिक दल के भीतर कोई दखल नहीं होता है. कार्यकर्ता की कोई भूमिका नहीं होती है. यही कारण है कि राजनीति में नया नेतृत्व नहीं आ रहा है. पारंपरिक कुलीन इतने मज़बूत हो गए हैं कि बिना इनके गठजोड़ के आप जीत नहीं सकते और इनके बाहर का कोई उम्मीदवार नहीं हो सकता है. वर्नियर का कहना है कि दल कोई भी है, उम्मीदवार उठाने का जो समूह है वह सीमित है और वह एक समान है. एक परिवार का सदस्य बीजेपी में है और एक कांग्रेस में. आप बीजेपी या कांग्रेस को हराते हैं लेकिन आप पारंपरिक कुलीन को नहीं हरा पाते. वह आपको हरा देता है. आपको उल्लू बना देता है.
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