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This Article is From Sep 27, 2016

क्या है फासीवाद, और क्या हमें उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए...?

Apoorvanand
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 27, 2016 14:54 pm IST
    • Published On सितंबर 27, 2016 14:54 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 27, 2016 14:54 pm IST
तानाशाही और फासीवाद के बीच क्या रिश्ता है, यह चर्चा पिछले कुछ समय से चल रही है. प्रकाश करात का खयाल है कि भारत के आज के दौर में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को फासिस्ट कहना उचित नहीं. सीपीएम चुनाव कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर लड़े या नहीं, इसे लेकर सीपीएम के भीतर जो बहस चल रही है, करात उसमें हस्तक्षेप कर रहे हैं, और वह ऐसे किसी गठबंधन के खिलाफ हैं.

कुछ ने इसे शुद्धतावाद कहा है. इस मत के अनुसार सीपीएम का क्षरण इसी शुद्धतावाद के कारण हुआ है. यह बहस अलग है. अभी हम सिर्फ फासीवाद के बारे में विचार करेंगे. करात जैसे लोगों के अनुसार फासीवाद की क्लासिक परिभाषा अंतिम है, जिसमें फासीवाद को पूंजीवाद के उस दौर से जोड़कर देखा जाता है, जिसे वित्तीय पूंजी का दौर कहते हैं. इस समय पूंजीवाद अपने गहरे संकट से साधारण उपायों से उबरने में सफल नहीं हो सकता और उसे ऐसी सरकार चाहिए, जो खुले तौर पर दहशतगर्द हो और निरंकुश ढंग से शासन करे. इस समय सामान्य जनतांत्रिक गतिविधियां असंभव हो जाती हैं, दूसरे राजनीतिक दल और संगठन काम नहीं कर सकते.

भारत में तो अभी चुनाव हो रहे हैं, प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, संसद सामान्य तरीके से चल रही है, इसलिए इस दौर को फासीवादी कहना हड़बड़ी है. लेकिन इसी तर्क से भारतीय जनता पार्टी को अधिनायकवादी कहना भी मुनासिब न होगा. उसमें नियमित आंतरिक चुनाव होते हैं, किसी एक व्यक्ति का कब्ज़ा पूरे पार्टी तंत्र पर हो गया है, यह कहने का आधार हमारे पास नहीं.

विचार का यह तरीका ही दोषपूर्ण है. हम अपनी समझ यूरोप के एक खास दौर से हासिल कर रहे हैं, हमारे सोचने का तरीका यूरो-केंद्रित है. इससे अलग हम फासीवाद जैसी परिघटना के केंद्रीय अर्थ को समझने का प्रयास करें, तो बेहतर होगा.

बेंजामिन ज़कारिया ने भारतीय फासीवाद के अपने अध्ययन में कहा है कि फासीवाद को एक वर्णनात्मक शब्द की तरह देखना उचित होगा. अक्सर इसे भर्त्सना के लिए इस्तेमाल किया जाता है. ज़कारिया की तरह जैरस बानाजी भी कहते हैं कि ठीक है कि इसकी पैदाइश यूरोप की है, लेकिन यह प्रवृत्ति सार्वभौमिक है. हां! प्रकट यह अलग-अलग रूप में हो सकती है.

फासीवाद शब्द के साथ हिटलर का ही खयाल आता है. लेकिन इसका जनक वह न था, इसका श्रेय मुसोलिनी को मिलना चाहिए. क्या हिटलर मुसोलिनी से भी अधिक प्रामाणिक फासिस्ट था...? असल बात है इसकी पहचान, आखिर वह क्या मूल तत्त्व है, जो किसी राजनीतिक प्रवृत्ति को फासीवादी बनाता है.

अधिनायकवादी रुझान जनता को एक विशेष जीवन और विचार पद्धति में अनुशासित करने की प्रबल प्रवृत्ति के साथ जब मिले और सारी समस्याओं का निराकरण करने के लिए जब एक मसीहा का आश्वासन अनिवार्य लगने लगे, उसके साथ ही आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के लिए जब एक सामाजिक या धार्मिक समूह को चिह्नित कर लिया जाए, तो फासीवाद के उदय के स्थिति पैदा हो जाती है.

फासीवाद का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने सावधान किया है कि अगर आप इसके सारे तत्त्वों के एक साथ जमा होने की प्रतीक्षा करेंगे तो शायद बहुत देर हो चुकी होगी और इसका मुकाबला करने के साधन नष्ट किए जा चुके होंगे.

फासीवाद सिर्फ एक आर्थिक संकट के चलते पैदा नहीं होता, न यह स्वतः उत्पन्न हो जाता है. आर्थिक से कहीं ज़्यादा यह एक सांस्कृतिक परिघटना है. इसे बाकायदा संगठित किया जाता है, इस विचार का प्रचार-प्रसार सुनियोजित, संगठित तरीके से किया जाता है, तभी यह समाज में जड़ पकड़ता है.

बेंजामिन ज़कारिया ने बताया है कि भारत में फासीवाद के प्रति आकर्षण काफी पहले से मौजूद रहा है. विनायक दामोदर सावरकर, गुरु गोलवलकर, हेडगेवार के अलावा सुभाष चंद्र बोस में भी इसकी स्वीकृति पाई जाती है. उनका विचार था कि भारत में फासीवाद और कम्युनिस्ट मिलकर साम्यवाद नामक एक राजनीतिक प्रणाली का गठन कर सकते हैं. मुसोलिनी के प्रति सम्भ्रम गांधी तक में था. वह उसे अपने लिए पहेली कहते हुए किसानों के प्रति उसके रुख की तारीफ करते हैं.

दिलचस्प यह है कि मुसोलिनी की हिंसा को गांधी यूरोपीय सभ्यता में हिंसा की अनिवार्यता से जोड़कर देखते हैं. यह कहते हुए सचेत रहना आवश्यक है कि गांधी ने कभी फासीवाद को स्वीकार्य नहीं माना. उनके शिष्य जवाहरलाल नेहरू पक्के और सुसंगत फासीवाद विरोधी थे और उसके साथ किसी भी प्रकार के प्रयोग के लिए वह तैयार न थे.

फासीवाद के दो मूल तत्व यदि खोजने हों, तो वे होंगे किसी एक समुदाय के प्रति घृणा और हिंसा की पूजा. ऐसा नहीं कि यह प्रवृत्ति हर धार्मिक या सांस्कृतिक समुदाय में होगी, लेकिन यह कारगर और मारक सिर्फ बहुसंख्यक समुदाय में हो सकती है.

भारत में यह घृणा मुस्लिम और ईसाई समाज के खिलाफ है. आशिस नंदी जैसे विद्वान इसे अनिवार्य रूप से आधुनिक मानते हैं, लेकिन यह घृणा पारंपरिक पूर्वाग्रहों के सहारे ही पलती-बढ़ती है. कहा जाता है कि पारंपरिक समाजों या जीवनपद्धति में आधुनिकता के हस्तक्षेप के कारण यह हिंसात्मक घृणा पैदा होती है. इसमें कोई शक नहीं कि फासीवाद आधुनिक परिघटना है और इसके आरम्भिक संस्करण यूरोप में दिखाई पड़े, लेकिन अगर हम फासीवाद को मात्र अनुकरणात्मक ढांचे में रखकर देखेंगे तो फिर कहीं भी वह अपने 'असली' रूप में दोहराया नहीं जाएगा - न हमें गैस चैम्बर देखने को मिलेंगे, न राज्यसंचालित सामूहिक जनसंहार, और न आखिरी निबटारे जैसा कोई ऐलान.

फिर क्या फासीवाद की प्रतीक्षा की जाए...? या, क्या हम हिंसा और समुदायकेंद्रित घृणा के मेल के आरंभिक रूपों के प्रकट होते ही सावधान हो जाएं...?

प्रकाश करात के लेख में वामदलों के बारे में पूर्व धारणा है कि वे फासीवाद के प्राकृतिक विरोधी हैं और अगुवा भी. सच यह है कि भारत की आज की परिस्थिति में वे अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं, इसलिए उनके फासीवाद विरोध का नेतृत्व करने का तो सवाल ही नहीं उठता. उन्हें पहले खुद को भारतीय राजनीति में प्रासंगिक साबित करना है. फिर फासीवाद के उभरने के पहले ही उसे रोकने की ज़िम्मेदारी सामान्य तौर पर जनतांत्रिक राजनीतिक दलों की हो जाती है. यह बुद्धिमत्ता फ्रांस के राजनीतिक दलों ने ले पेन के नेशनल फ्रंट के उभार के समय अपने मतभेद पीछे रखकर उस फ्रंट को सत्ता से दूर रखने में दिखाई. उसी तरह अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के प्रभावी होने पर डेमोक्रैटिक पार्टी के सारे धड़ों ने साथ आकर यह समझदारी दिखाई है.

भारत में इस समझ पर सहमति होना बाकी है कि वह कौन-सी राजनीति है, जो जनतंत्र के लिए अस्वीकार्य है. प्राथमिक रूप से मुसलमानों, ईसाइयों के प्रति नफरत पर आधारित राजनीति के साथ जनतंत्र के नाम पर तालमेल करना चाहिए या नहीं...? इस प्रश्न पर हमने आखिरी बहस नहीं की है. जो राजनीति एक समुदाय को देश के लिए गैरज़रूरी या खतरनाक बताती रही है, वह जनतांत्रिक कैसे हो सकती है...? क्यों मुसलमानों से कहा जाए कि वे उनसे नफरत करने वालों को अपने शासक के रूप में स्वीकार करें...?

भारत में क्या मुसलमानों के आखिरी सफाये के हौलनाक मंज़र के सामने न दिखाई पड़ने से हमें यह मानना चाहिए कि भारतीय हिटलर अभी पैदा नहीं हुआ और हमें बदहवास होने की ज़रूरत नहीं.

हम इस बदहवासी को सरल तरीके से समझें. वे कौन हैं, जो अभी अपनी पसंद का खाना लेकर ट्रेन में सफर करते घबराते हैं...? वे कौन हैं, जिनके घरों में कोई भी घुसकर उनकी रसोई की जांच-पड़ताल कर सकता है...? ऐसा करने वाले किस राजनीति के बल पर ऐसा करने की हिम्मत पाते हैं...?

मुसलमानों और ईसाइयों के लिए इस राजनीति की सत्ता में एक-एक दिन रहने का मतलब जीने-मरने का सवाल है. उनकी इज़्ज़त की ज़िंदगी तो दूर की बात है. इस राजनीति को फासीवाद कहें या नहीं, इस पर अकादमिक विवाद होता रह सकता है, लेकिन भारत के मुसलमान और ईसाई उस विवाद के कहीं पहुंचने का इंतज़ार नहीं कर सकते. क्या यह सोचने का बहुत संकीर्ण तरीका है...?

अपूर्वानंद दिल्‍ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और टिप्‍पणीकार हैं...

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