मोदी सरकार में मंत्री रहे अनिल दवे का पिछले साल मई में निधन हो गया था.
नई दिल्ली:
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी को इन दिनों अपने वरिष्ठ नेता अनिल दवे की कमी खूब महसूस हो रही है. भाजपा के रणनीतिकार अनिल दवे का दुनिया से जाने का भाजपा की प्रदेश की राजनीति पर असर साफ नजर आ रहा है. 18 मई 2017 को निधन के डेढ़ साल बाद भी बीजेपी उनका विकल्प मध्य प्रदेश में नहीं ढूंढ पाई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में पर्यावरण मंत्रालय जैसे अहम् मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालने वाले अनिल दवे बीते तीन चुनाव में पर्दे के पीछे रहते हुए संगठन और सत्ता के बीच समन्वय का काम करते रहे हैं. उनका बीते वर्ष निधन हो जाने से पार्टी के भीतर की जमावट गड़बड़ा गई है.
इस चुनाव में अनिल दवे नहीं हैं और उनकी गैरहाजिरी के चलते भाजपा को ऐसा कोई विकल्प नहीं मिल पाया है जो पर्दे के पीछे से संगठन की लगाम संभाले रह सके.दवे का आवास जिसे 'नदी के घर' के नाम से जाना और पहचाना जाता है, वहां चुनाव के छह माह पहले से बढ़ने वाली गतिविधियां भाजपा की तैयारियों का खुलासा कर दिया करती थी. दवे के कई नजदीकी लोग उम्मीदवारों के चयन से लेकर वर्तमान विधायकों की पररफॉर्मेस रिपोर्ट तैयार कर पार्टी हाईकमान तक भेज देते थे. इतना ही नहीं, बगावत को भी संभालने मे सफल होते थे.
यह भी पढ़ें- पूर्व केंद्रीय मंत्री अनिल दवे की मौत संदिग्ध! याचिका में उठाए गए कई सवाल
भाजपा में दवे जिस जिम्मेदारी को संभालते थे, उसे संभालने के लिए केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, धर्मेद्र प्रधान, भाजपा के प्रवक्ता डॉ. संबित पात्रा सहित कई प्रमुख नेताओं को दिल्ली से भोपाल लाकर बिठाना पड़ा है, उसके बाद भी पार्टी में न तो सामंजस्य बन पा रहा है और न ही बगावत को थामा जा सका है.दवे की काबिलियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें विश्व हिंदी सम्मेलन, सिंहस्थ में विशेष आयोजन से लेकर पार्टी के प्रमुख कार्यक्रमों की कमान सौंपी जाती थी. वे जन अभियान परिषद के जरिए राज्य में भाजपा की जड़े मजबूत करने में भी सफल हुए थे. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शिव अनुराग पटैरिया का कहना है, अनिल दवे सफल रणनीतिकार थे, वर्ष 2003 में 'मिस्टर बंटाढार' जैसी पंच लाइन भी उन्हीं ने दी थी। वर्ष 2008 के चुनाव में भी उन्होंने अहम भूमिका निभाई, मगर उनके भीतर बाद में मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा जागने के चलते शिवराज ने किनारे कर दिया. संगठन और संघ में उनकी पैठ थी, जिसके चलते वे केंद्रीय राजनीति में सक्रिय हुए.
भाजपा में टिकट वितरण से उपजे असंतोष के चलते 10 से ज्यादा विधायक और 20 से ज्यादा प्रभावशाली नेता पार्टी से बगावत कर गए हैं और चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की स्थिति में है. पार्टी के लिए वर्तमान हालात चुनौती भरे हो गए हैं.दवे को करीब से जानने वाले एक संघ के पदाधिकारी का कहना है कि भाजपा की चुनावी रणनीति से लेकर संगठन में जमावट का काम दवे के जिम्मे हुआ करता था, वे राज्य की राजनीति को बेहतर तरीके से समझते थे और उनके पास अपनी टीम थी. वर्तमान में भाजपा के किसी नेता के पास बौद्धिक क्षमता और संगठन क्षमता दवे जैसी नहीं है. लिहाजा, दवे का न होना पार्टी को बहुत खटक रहा है.
वीडियो- पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे का निधन
(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
इस चुनाव में अनिल दवे नहीं हैं और उनकी गैरहाजिरी के चलते भाजपा को ऐसा कोई विकल्प नहीं मिल पाया है जो पर्दे के पीछे से संगठन की लगाम संभाले रह सके.दवे का आवास जिसे 'नदी के घर' के नाम से जाना और पहचाना जाता है, वहां चुनाव के छह माह पहले से बढ़ने वाली गतिविधियां भाजपा की तैयारियों का खुलासा कर दिया करती थी. दवे के कई नजदीकी लोग उम्मीदवारों के चयन से लेकर वर्तमान विधायकों की पररफॉर्मेस रिपोर्ट तैयार कर पार्टी हाईकमान तक भेज देते थे. इतना ही नहीं, बगावत को भी संभालने मे सफल होते थे.
यह भी पढ़ें- पूर्व केंद्रीय मंत्री अनिल दवे की मौत संदिग्ध! याचिका में उठाए गए कई सवाल
भाजपा में दवे जिस जिम्मेदारी को संभालते थे, उसे संभालने के लिए केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, धर्मेद्र प्रधान, भाजपा के प्रवक्ता डॉ. संबित पात्रा सहित कई प्रमुख नेताओं को दिल्ली से भोपाल लाकर बिठाना पड़ा है, उसके बाद भी पार्टी में न तो सामंजस्य बन पा रहा है और न ही बगावत को थामा जा सका है.दवे की काबिलियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें विश्व हिंदी सम्मेलन, सिंहस्थ में विशेष आयोजन से लेकर पार्टी के प्रमुख कार्यक्रमों की कमान सौंपी जाती थी. वे जन अभियान परिषद के जरिए राज्य में भाजपा की जड़े मजबूत करने में भी सफल हुए थे. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शिव अनुराग पटैरिया का कहना है, अनिल दवे सफल रणनीतिकार थे, वर्ष 2003 में 'मिस्टर बंटाढार' जैसी पंच लाइन भी उन्हीं ने दी थी। वर्ष 2008 के चुनाव में भी उन्होंने अहम भूमिका निभाई, मगर उनके भीतर बाद में मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा जागने के चलते शिवराज ने किनारे कर दिया. संगठन और संघ में उनकी पैठ थी, जिसके चलते वे केंद्रीय राजनीति में सक्रिय हुए.
भाजपा में टिकट वितरण से उपजे असंतोष के चलते 10 से ज्यादा विधायक और 20 से ज्यादा प्रभावशाली नेता पार्टी से बगावत कर गए हैं और चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की स्थिति में है. पार्टी के लिए वर्तमान हालात चुनौती भरे हो गए हैं.दवे को करीब से जानने वाले एक संघ के पदाधिकारी का कहना है कि भाजपा की चुनावी रणनीति से लेकर संगठन में जमावट का काम दवे के जिम्मे हुआ करता था, वे राज्य की राजनीति को बेहतर तरीके से समझते थे और उनके पास अपनी टीम थी. वर्तमान में भाजपा के किसी नेता के पास बौद्धिक क्षमता और संगठन क्षमता दवे जैसी नहीं है. लिहाजा, दवे का न होना पार्टी को बहुत खटक रहा है.
वीडियो- पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे का निधन
(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं