किसी भी पार्टी की सबसे छोटी इकाई उसका कार्यकर्ता होता है, लेकिन अपनी 'हाईकमान' को ज़मीनी हक़ीक़त से वाकिफ़ भी वही कराता है। बीजेपी ने चुनाव से 20 दिन पहले किरण बेदी को मैदान में उतार कर अपना मज़बूत और आश्चर्यजनक दांव चल तो दिया है, लेकिन क्या दिल्ली भाजपा के कार्यकर्ता पार्टी के फैसले से सहमत हैं? जो दिल्ली में हाल फिलहाल हो रहा है उससे कम से कम ये ज़ाहिर है कि कार्यकर्ताओं में अपनी नई उम्मीदवार को लेकर उत्साह नहीं है।
पार्टी में शामिल होने के अगले दिन ही कार्यकर्ताओं से अपनी पहली बैठक में बेदी ने जो लहज़ा और तेवर दिखाया, उसी दिन लगने लगा था कि पार्टी के हाईकमान ने बेदी को ठीक तैयारी से नहीं भेजा। किरण बेदी कार्यकर्ताओं को डपटती और खुद को सुनने के फरमान देती नज़र आई। जहां एक तरफ नरेंद्र मोदी कार्यकर्ताओं को अपनी जीत का हिस्सेदार बनाते हैं, वहां इतनी तल्खी कार्यकर्ताओं में बैठक के दौरान सुगबुगाहट पैदा करने के लिए काफी थी।
किरण बेदी के बाद दिल्ली भाजपा के नेता दूसरी पार्टियों से आने वाले लोगों का स्वागत करते रह गए। किरण बेदी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाया गया और अपने पुराने सत्ता संघर्षरत नेताओं को किनारे लगा कर दूसरी पार्टियों के लोगों को टिकट भी दिया गया। अनुभव नहीं होने की वजह से किरण बेदी राजनैतिक विनम्रता और शिष्टाचार से वाकिफ नहीं हैं तभी हर्षवर्धन को नाराज़ कर बैठीं। हर्षवर्धन के पूर्व विधानसभा क्षेत्र कृष्णा नगर से नामित होकर जब वहां कार्यकर्ताओं से मिलने पहुंची तो हर्षवर्धन ज़िंदाबाद के नारे ही सुनाई पड़े। जैसे ही किरण बेदी बोलने के लिए खड़ी हुई, मंच पर खड़े कार्यकर्ता को बाकी कार्यकर्ताओं से अपील करनी पड़ी कि वे किरण बेदी को सुन लें एक बार। बीच बीच में किसी ने बेदी को व्यंग्यातमक धन्यवाद भी कर दिया ताकि वो बोलना बंद करें।
जब किरण बेदी नामांकन भरने गई तब उम्मीद के विपरीत उनका रोड शो अरविंद केजरीवाल के मुकाबले काफी हल्का था। वैसे भी रोड शो और रैलियां कार्यकर्ताओं के उत्साह से बनते हैं। सतीश उपाध्याय का जब टिकट कट गया तब उनके समर्थक उनके टिकट के लिए समर्थन जुटाने से ज़्यादा किरण बेदी के खिलाफ नारे लगाने में व्यस्त थे। बीजेपी के चुनाव प्रभारी प्रभात झा को भी अभय वर्मा को टिकट ना दिए जाने की वजह से एक समर्थक द्वारा विरोध झेलना पड़ा। मॉडल टाउन क्षेत्र में भी उम्मीदवार को लेकर 3000 इस्तीफे होने की खबर है।
पार्टी के 'वरिष्ठ' नेता अपने कद और मजबूरियों को देखते हुए खुल कर तो नाराज़गी नहीं दिखा पा रहे लेकिन उनके समर्थकों के मार्फ़त अपनी भावना ज़ाहिर कर ही देते हैं। कहीं उन्हें ये डर तो नहीं सता रहा कि किरण की एंट्री के बाद अब वो पार्टी में आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी होकर रह जायेंगे। अरविंद केजरीवाल की मज़बूत दावेदारी ने भाजपा को अपने 'रूट' बदलने पर मजबूर कर दिया। दिल्ली की चुनावी धुंध में भाजपा के नेता और कार्यकर्ता धुंआ-धुंआ हो रहे हैं। लेकिन नाराज़ होकर जाएं कहां जब बाकी पार्टियों के लोग भाजपा का ही रुख कर रहे हैं।
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