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This Article is From Dec 30, 2017

दर्शकों के मन में बस गईं साल 2017 की यह पांच यादगार नाट्य प्रस्तुतियां

वर्ष 2017 में राजधानी दिल्ली में मंचित हुए इन पांच नाटकों को मिली प्रेक्षकों की अपार सराहना

दर्शकों के मन में बस गईं साल 2017 की यह पांच यादगार नाट्य प्रस्तुतियां
नाटक मुगल-ए-आजम का एक दृश्य.
नई दिल्ली: साल 2017 बीतने को है और साल 2018 दस्तक दे रहा है. इस साल देश-दुनिया के साथ-साथ राजधानी दिल्ली में भी रंगमंचीय अभिव्यक्तियां विवध रंगों के साथ दर्शकों के सामने आईं. कुछ यादगार नाट्य प्रदर्शनों ने सफलता के झंडे गाड़े और प्रेक्षकों के मन में अमिट छाप छोड़ गए.

हम यहां आपको बता रहे हैं वर्ष 2017 में दिल्ली में मंचित हुए उन पांच नाटकों के बारे में जिन्हें बहुत सराहा गया, दर्शकों के द्वारा और समीक्षकों द्वारा भी. आने वाल साल में आपके शहर में इन नाटकों का मंचन हो तो जरूर देखें. क्योंकि नाटक देखने का रोमांच अलग है. इसमें दर्शकों और अभिनेताओं के बीच माध्यम की दूरी नहीं है. दर्शक की ही तरह का अभिनेता उनकी प्रस्तुति करता है. यही जीवंतता नाटकों को ख़ास बना देती है.

मुग़ल-ए-आज़म
इस नाटक की प्रस्तुति में भव्यता के उसी स्केल के निर्वाह की कोशिश हुई है जो फिल्म में थी. इसके लिए निर्देशक फिरोज़ अब्बास खान ने अभिनेताओं, टेक्नीशियन, लाइट डिजाइनर, साउंड डिजाइनर, कोरियोग्राफर की टीम बनाई है जिसने मिलकर यह विश्वस्तरीय प्रस्तुति तैयार की है. वस्त्र सज्जा मनीष मल्होत्रा की है जो नाटक की ऐतिहासिकता के अनुकूल है. एक इंगेजिंग साउंड ट्रैक है, लाइव संगीत है और कथक नर्तकों की टोली है जो दृश्य सरंचना को गहराई देती है. मंच पर चारों ओर मेहराब हैं, उठने-गिरने वाले प्राप्स हैं और पीछे एक स्क्रीन है जिस पर दृश्य उभरते रहते हैं जो मंच को रेगिस्तान, महल, क़ैदखाने, बुर्ज, बाग, जंग के मैदान, में सहजता से बदलते रहते हैं. यहां तक कि सिनेमा में प्रयोग हुए शीश महल का दृश्य जो दर्शकों को आज भी याद है भी बेहतरीन ग्राफिक्स प्रोजेक्शन और प्राप्स के जरिए पेश कर दिया गया है. कभी-कभी लगता है कि आप थ्री-डी सिनेमा देख रहे हैं लेकिन अभिनेता इसको नाटक बनाए रखते हैं और दर्शकों को सिनेमा के हैंगओवर में नहीं जाने देते. अपने समय की प्रतिध्वनियां भी इस नाटक में मौज़ूद हैं जो रंग अनुभव को भव्य के साथ गहन भी बनाती हैं.
 
bandish 20 2000htz play
 
बंदिश 20-20,000 हर्टज़
कलाकार को किसके साथ होना चाहिए- विचार के साथ, व्यक्ति के साथ या कला के साथ? उसे अपने ऊपर पड़ रहे तमाम दबावों से कैसे निकलना चाहिए? एक कलाकार के भीतर कौन से संघर्ष चलते रहते हैं जिससे उसकी कला प्रभावित होती है? कला को रोकने वाली कौन सी बंदिशें हैं और उनसे कैसे पार पाना है? ऐसे कुछ सवालों पर इस प्रस्तुति के माध्यम से निर्देशक पूर्वा नरेश अपना नजरिया प्रस्तुत करती हैं. प्रस्तुति में हिंदुस्तानी संगीत में पिछली डेढ़ सदी में हुए परिवर्तन, कलाकारों की स्थिति और भीतरी राजनीति के प्रश्न और बेचैनियां बहुत सूक्ष्मता से उभरते हैं. प्रस्तुति में अतीत के साथ समकालीनता की भी महीन बुनाई है. नाटक में गायकी की तीन पीढ़ियों के जरिए गायकों के अनुभव को पेश किया गया है जो कला के प्रति समाज के रवैए को भी सामने लाता है. नाटक की जान अभिनय और संगीत है जो नाटक को दर्शनीय से अधिक श्रवणीय बनाता है. संगीत संयोजन शुभा मुद्गल ने किया है.
 
outcast play

आउटकास्ट
दलितों की पीड़ा और शोषण का आख्यान एकहरा नहीं है इसकी कई परतें हैं. दलितों के भीतर भी श्रेणियां हैं. कई तो ऐसी हैं कि इस जाति व्यवस्था से ही बाहर हैं. उनके शोषण के अलग आयाम हैं. रागा रेपर्टरी पटना की रणधीर निर्देशित रंग प्रस्तुति ‘आउटकास्ट’ उत्पीड़न के सामाजिक सत्य की कई परतों को शरण कुमार लिंबाले की चर्चित आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ के जरिए उघाड़कर दर्शकों के सामने पेश करता है. ‘अक्करमाशी’ में लिम्बाले के जीवन के कई प्रसंगों का विस्तार से वर्णन है जहां वे जाति व्यवस्था को झेलते हैं. वे बार-बार पूछते हैं कि इस व्यवस्था में उनकी जगह कहां है? वे कौन हैं?  कहानी को रंगमंच पर प्रस्तुत करने के लिए आख्यान को कई स्तर दिए गए हैं. एक पर कथानक चलता है जिसे बारी-बारी से सभी पात्र कहते हैं. कहानी कहते हुए उनकी गतिविधियों से उनके उत्पीड़न का प्रसंग भी मंच पर घटित होता रहता है. संगीत से और अभिनेताओ की गतियों से कथा की संवेदना को और गाढ़ा किया गया है. मराठी के साथ-साथ, भोजपुरी के लोकगीतों का अच्छा इस्तेमाल किया गया है.
 
nat samrat play alok chatarjee

नटसम्राट
विवि शिरवाड़कर द्वारा लिखा गया यह नाटक पुराना मालूम  होता है और कुछ-कुछ स्त्री विरोधी भी लेकिन  इस नाटक में छुपे हुए गंभीर सामाजिक सत्य हर पीढ़ी के सामने सवाल बनकर आते हैं. इस कहानी में कई स्तर हैं. एक कलाकार का अपना जीवन है जो अपनी भूमिकाओं और अपनी भूमिकाओं के बाहर के यथार्थ के बीच तालमेल बैठा नहीं पाता. उसका अपना अक्खड़पन है जो एक कलाकार का है, जिसे उसकी संतान नहीं समझ पाती. दूसरा स्तर परिवार का है, जिसमें बुजुर्गों की सीमा तय कर दी गई है और फिर उपेक्षा, उपहास और पीड़ा का संसार बनता है. वरिष्ठ अभिनेता आलोक चटर्जी ने नटसम्राट की अविस्मरणीय भूमिका निभाई है.  निर्देशक जयंत देशमुख ने नाटक की परिकल्पना में अभिनेताओं को पूरा स्पेस दिया है. आलोक चटर्जी के साथ सरकार बनी रश्मि मजूमदार का तालमेल ही दर्शकों को ऐसा रंग अनुभव देता है कि नाटक की अन्य कमियां ओझल हो जाती हैं.
 
netua play

नेटुआ
दिलीप गुप्ता निर्देशित साइक्लोरामा की यह प्रस्तुति बिहार की लोककलाओं के अभिन्न अंग नेटुआ के माध्यम से जाति और यौन उत्पीड़न की कथा कहता है. नेटुआ यानी स्त्री बनकर नाचने वाले पुरुष. ये कलाकार दो तरह की यौनिकता जीते हैं कला में स्त्री समाज में पुरुष. कला के कारण इन्हें कोई सम्मान नहीं मिलता लेकिन विपरीत लैंगिक पहचान ओढ़ने के कारण शोषण जरूर होता है. यह प्रस्तुति दो पीढ़ियों की कथा को आमने-सामने रखकर कला और जीवन में उनके संघर्ष को दिखाता है. लोकगीतों और नाच से भरी इस प्रस्तुति की खासियत है इसका कच्चापन जो लोक नाटकों  की प्रस्तुति की याद दिलाता है. कभी इस नाटक में मनोज बाजपेयी को नेटुआ की भूमिका करने के लिए प्रशंसा मिली थी.

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