विज्ञापन
This Article is From Dec 23, 2016

जंगल बचाने के लिए उत्तराखंड में अनूठा प्रयोग, पढ़ें इस खास रिपोर्ट को

जंगल बचाने के लिए उत्तराखंड में अनूठा प्रयोग, पढ़ें इस खास रिपोर्ट को
नई दिल्ली: सिर पर चांदी का ताज और हाथ में 1 लाख रुपये का चेक. दिल में बच्चों को ऊंची शिक्षा देने की उमंग और आंखों में खुशी के आंसू. 35 साल की विमला देवी ने शायद कभी सोचा नहीं होगा कि जिस घास काटने के काम को वह हर रोज़ अपने जानवरों को चारा खिलाने और परिवार के पोषण के लिए यूं ही करती हैं वह उन्हें “बेस्ट इकोलोजिस्ट अवॉर्ड“ से सम्मानित करवाएगा.

गुरुवार की दोपहर टिहरी जिले के अखोड़ी गांव में हुई अनूठी प्रतियोगिता में 33 महिलाओं ने हिस्सा लिया. इन महिलाओं को एक विशाल पहाड़ी ढलान में घास काटनी थी. इसके लिए दो मिनट का वक्त दिया गया. फिर हर महिला से जंगल और पर्यावरण से जुड़े सवाल पूछे गए. काटी गई घास के वज़न और सवालों के जवाब के आधार पर मिले अंकों से तय हुआ विजेताओं का फैसला.
uttrakhand

इस अनूठे प्रयोग के सूत्रधार हैं 45 साल के लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता त्रेपन सिंह चौहान, जो बताते हैं कि घास काटने और जंगलों के संरक्षण का एक अटूट रिश्ता है. पहाड़ी जनजीवन में पशुपालन की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है और उसके लिए घास और पेड़ों की पत्तियां नितांत ज़रूरी हैं. जो महिलाएं जंगल से घास काटती हैं वही उसे संरक्षित करने के काम में जी जान से लगी हैं, क्योंकि वह जानती हैं कि जंगल उनकी जीवन रेखा है.

चौहान ने एनडीटीवी से कहा कि पहाड़ में घास काटने वाली महिलाओं को 'घसियारी' कहा जाता है और इस काम को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है जबकि ये महिलायें कमरतोड़ मेहनत करती हैं और पर्यावरण की सबसे बड़ी संरक्षक हैं. ये महिलाएं घास ही नहीं काटती घर चलाने के साथ पशुपालन और कृषि का काम भी करती हैं. ये महिलाएं जंगल संरक्षण में लगी ग्रामीण वन समितियों को अनाज के रूप में भुगतान भी करती हैं इसलिए 'घसियारी' शब्द को सम्मानित करने की ज़रूरत है और महिलाओं को यह अहसास कराना होगा कि वह कितना अहम काम कर रही हैं.
 
uttrakhand


चौहान किसी एनजीओ से नहीं जुड़े बल्कि उन्होंने लोगों के सहयोग से इस प्रतियोगिता के लिए धनराशि इक्ट्ठा की है. उनका चेतना आंदोलन पहाड़ों में महिलाओं को जागृत कर एक और "चिपको आंदोलन" खड़ा करना चाहता है.

चौहान के साथ इस प्रयोग को सफल बनाने में लगे शंकर गोपालकृष्णन कहते हैं, वन विभाग ग्रामीणों और इन महिलाओं के प्रति नफरत भरा रवैया अपनाता है और सरकार भी इन्हें इनके वह अधिकार नहीं दे रही जिसके ये हकदार हैं. जैसे 2006 बनाए गए वन अधिकार कानून के तहत अब तक सरकार ने फॉरेस्ट ज़ोन नोटिफाइ नहीं किये हैं और इन लोगों को इनके ही जंगलों से दूर रखा जा रहा है.

इस सालाना प्रतियोगिता से चौहान और उनके साथी महिलाओं को जंगलों से जोड़ना चाहते हैं. इतिहासकार शेखर पाठक कहते हैं, पहाड़ों से लगातार पलायन हो रहा है और उत्तराखंड के सैकड़ों गांव खाली हो रहे हैं. गांवों में लोग नहीं रहेंगे तो पर्यावरण को बचायेगा कौन और हिमालयी पर्यावरण का रिश्ता तो पूरे देश की इकोलॉजी से हैं. इस लिहाज से यह प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण है.

चौहान पिछले दो साल से ये प्रतियोगिता आयोजित कर रहे हैं. अभी ये प्रयोग टिहरी तक सीमित है, लेकिन उनकी कोशिश इसे पूरे उत्तराखंड में फैलाने की है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
उत्तराखंड, बेस्ट इकोलोजिस्ट अवॉर्ड, जंगल, Uttrakhand, Jungal, Best Ecologists Award
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com