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This Article is From May 29, 2011

'कांग्रेस की बदहाली के लिए इंदिरा जिम्मेदार'

New Delhi: कांग्रेस पर लिखी गई एक किताब में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को हिन्दी भाषी प्रदेशों खासतौर पर उत्तर प्रदेश में पार्टी के चुनावी आधार को नुकसान पहुंचाने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। पुस्तक ए सेंटिनरी हिस्टरी ऑफ दि इंडियन नेशनल कांग्रेस शृंखला के पांचवें अंक में लिखा गया है कि इंदिरा गांधी ने जमीनी स्तर तक जाने की कोशिश तो की, लेकिन अपने करीबी सहयोगियों की मदद से पार्टी के ढांचे में परिवर्तन शीर्ष स्तर से किया, जिसका नियंत्रण कम लोगों के पास रहा। इससे कांग्रेस का मूल सांगठनिक स्वरूप चरमरा गया, जो कुछ राज्यों में पार्टी की मजबूती का आधार था। पुस्तक के मुताबिक, 1980 के दशक के मध्य तक संगठन को और पार्टी के चुनावी आधार को काफी नुकसान हो चुका था, जिससे अब तक यह उबर नहीं सकी है। पार्टी के नियंत्रण के उनके प्रयासों ने आतंरिक लोकतंत्र को समाप्त किया जिसके चलते उत्तर प्रदेश जैसे प्रमुख राज्यों में पार्टी की शाखाओं का पतन हुआ। गौरतलब है कि पार्टी के 125 साल पूरे होने के मौके पर वरिष्ठ नेता प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में संपादकों के एक समूह ने इस पुस्तक को तैयार किया है, जिसमें कांग्रेस को प्रभावित करने वाले अनेक मुद्दों का बखान और विश्लेषण किया गया है। किताब की प्रस्तावना में मुखर्जी ने कहा है कि कांग्रेस चाहती थी कि इस अंक का संपादन विशेषज्ञ करें और इसमें अपना योगदान दें, ताकि जिस अवधि की समीक्षा की जा रही है उस पर एक उद्देश्यपरक और विद्वानों का नजरिया सामने आए और जरूरी नहीं है कि वह पार्टी का दृष्टिकोण हो।प्रणब मुखर्जी ने लिखा है कि पुस्तक में लेखकों द्वारा व्यक्त विचार कांग्रेस पार्टी के नजरिये को नहीं झलकाते। यह 1964 से 1984 के बीच की अवधि का कांग्रेस का आधिकारिक इतिहास नहीं है। कांग्रेस के इतिहास में आपातकाल समेत अन्य अप्रिय अध्यायों की गहराई से पड़ताल करने वाली पुस्तक के इस अंक में 1964 से 1984 की अवधि को शामिल किया गया है, जिसमें एक बड़ा हिस्सा दिवंगत इंदिरा गांधी पर केंद्रित है। पुस्तक में उक्त अवधि के दौरान हुए छह चुनावों में राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य की पड़ताल करते हुए एक लेख में सुधा पई लिखती हैं, जिस वक्त देश में और पार्टी में हालात (इंदिरा) गांधी के परिवर्तन के दृष्टिकोण को हासिल करने के लिहाज से परिपक्व थे, वह व्यक्तिगत केंद्रित राजनीति में चली गईं, जिसके नतीजतन उनके हाथों में सत्ता का केंद्रीकरण हुआ। लेख के अनुसार इंदिरा ने आम सहमति वाले नेतृत्व के बजाय व्यक्तिगत सोच वाली राजनीति को अपनाया। इसके मुताबिक, उन्होंने पार्टी को नुकसान पहुंचाया, मध्यवर्ती नेतृत्व तथा सलाह मशविरा से फैसला लेने की प्रक्रिया को समाप्त कर दिया और अपने लिए व्यक्तिगत तौर पर जवाबदेह पदाधिकारियों के साथ बिना लोकतांत्रिक ढांचे के इसका पुनर्निर्माण किया। पुस्तक में लिखा है, (इंदिरा) गांधी को देशभर के राज्यों में तमाम सक्षम नेताओं के साथ एक भलीभांति संगठित पार्टी विरासत में मिली थी। लेकिन पार्टी मशीनरी की उपेक्षा करने के चलते उन्होंने एक दलीय प्रभुत्व की अवनति की और विशेष तौर पर उत्तर भारत में पार्टी संगठन के दीर्घकालिक क्षय की प्रक्रिया की शुरुआत की। लेखकों का विचार है कि इन घटनाक्रमों का तत्काल प्रभाव महसूस नहीं किया गया और 1990 के दशक में पार्टी को नुकसान होता देखा गया। इन घटनाक्रमों ने संयुक्त तौर पर पार्टी के सामाजिक और क्षेत्रीय आधार पर और इसके चुनावी भविष्य को नुकसान पहुंचाया। पुस्तक के अनुसार, केंद्रीकरण का अहम परिणाम प्रदेशों में कांग्रेस पार्टी मशीनरी के क्षय और विघटन के तौर पर हुआ। इसके मुताबिक इंदिरा गांधी के पास सत्ता के अधिकार के चलते पार्टी और सरकार में पिरामिड की तरह का निर्णय लेने वाला ढांचा बन गया। पुस्तक में लिखा गया है, उत्तर प्रदेश, जो कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण प्रदेश था, में 1977 के बाद पार्टी की 800 सहकारी समितियों में कोई चुनाव नहीं हुआ, जो कि स्थानीय विधानसभाओं से महत्वपूर्ण तरीके से संबंधित थीं। इसके अनुसार, 1950 और 1960 के दशक की तुलना में 1970 के दशक के मध्य तक पार्टी में मुश्किल से ही राजनीतिक शक्ति के स्वतंत्र आधार वाले राष्ट्रीय और प्रदेश स्तर के नेता थे।

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