मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत (फाइल फोटो).
नई दिल्ली:
दिल्ली हाई कोर्ट ने आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की विधायकी बहाल करते हुए चुनाव आयोग पर गंभीर खड़े किए हैं. अपने 79 पन्नों के फैसले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि 'चुनाव आयोग की 19 जनवरी 2018 की सलाह कानून में बिगड़ी और बुरी है क्योंकि उसमें प्राकृतिक न्याय का पालन नहीं हुआ. इसलिए 19 जनवरी की इस सलाह को रद्द करने के लिए और उसके बाद 20 जनवरी के नोटिफिकेशन को रद्द करने के लिए उत्प्रेषण लेख जारी किया जाता है.'
दिल्ली हाई कोर्ट ने बाकायदा अपने इस आदेश के पीछे कई कारण भी गिनाए हैं. कोर्ट ने कहा कि ऐसा आदेश इसलिए क्योंकि ' प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ जैसे कि मौखिक सुनवाई का मौका नहीं दिया गया और इस मुद्दे की अहम दलील को रखने का मौका नहीं दिया गया जिससे पता चले कि याचिकाकर्ता अयोग्यता के लायक था या नहीं.'
यहीं नहीं कुछ और बातें अपने आदेश में कहीं कि ' चुनाव आयोग ये भी सूचित करने में नाकाम रहा कि ओपी रावत (उस समय के चुनाव आयुक्त, फिलहाल मुख्य चुनाव आयुक्त) ने खुद को इस मामले से अलग करने के बाद दोबारा इस कार्यवाही में हिस्सा लेने की मंशा जताई थी. साथ ही सुनील अरोड़ा (चुनाव आयुक्त) ने तो इस कार्यवाही में हिस्सा ही नहीं लिया और उनके सामने कोई सुनवाई नहीं हुई.'
यह भी पढ़ें : लाभ का पद मामला : आप के 20 विधायकों के खिलाफ फिर चुनाव आयोग जाएगी कांग्रेस
आपको बता दें कि हाई कोर्ट ये बात कहकर चुनाव आयोग पर गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. पहला ये कि जब तत्कालीन चुनाव आयुक्त और मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने खुद को इस मामले की सुनवाई से अलग कर लिया था तो वो कब इस मामले की सुनवाई में शामिल हुए, इसकी कोई जानकारी नहीं जबकि विधायकों को अयोग्य ठहराने वाले फैसले में उनके दस्तखत हैं. दूसरा, चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा जो कि 1 सितंबर 2017 में ही चुनाव आयुक्त के पद पर आसीन हुए, ने इस कार्यवाही में जब हिस्सा ही नहीं लिया और उनके सामने कोई सुनवाई ही नहीं हुई तो राष्ट्रपति को भेजी सिफारिश में उनके दस्तखत कैसे हैं?
VIDEO : विधायकों को अयोग्य घोषित करने वाला नोटिफिकेशन रद्द
इसलिए दिल्ली हाई कोर्ट ने आदेश दिया है कि 'चुनाव आयोग इस मामले को दोबारा सुने और तय करे अहम और लाभदायक मुद्दे जैसे कि 'सरकार में लाभ के पद' का क्या मतलब होता है और फिर से फैसला करे कि इस मामले के तथ्यात्मक स्थिति क्या है जिससे तय हो सके कि याचिकाकर्ता (आप विधायक) संसदीय सचिव नियुक्त होने के चलते अयोग्य घोषित होने लायक हैं या नहीं. इस दौरान पिछले किसी आदेश या टिप्पणी से प्रभावित ना हों.'
दिल्ली हाई कोर्ट ने बाकायदा अपने इस आदेश के पीछे कई कारण भी गिनाए हैं. कोर्ट ने कहा कि ऐसा आदेश इसलिए क्योंकि ' प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ जैसे कि मौखिक सुनवाई का मौका नहीं दिया गया और इस मुद्दे की अहम दलील को रखने का मौका नहीं दिया गया जिससे पता चले कि याचिकाकर्ता अयोग्यता के लायक था या नहीं.'
यहीं नहीं कुछ और बातें अपने आदेश में कहीं कि ' चुनाव आयोग ये भी सूचित करने में नाकाम रहा कि ओपी रावत (उस समय के चुनाव आयुक्त, फिलहाल मुख्य चुनाव आयुक्त) ने खुद को इस मामले से अलग करने के बाद दोबारा इस कार्यवाही में हिस्सा लेने की मंशा जताई थी. साथ ही सुनील अरोड़ा (चुनाव आयुक्त) ने तो इस कार्यवाही में हिस्सा ही नहीं लिया और उनके सामने कोई सुनवाई नहीं हुई.'
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आपको बता दें कि हाई कोर्ट ये बात कहकर चुनाव आयोग पर गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. पहला ये कि जब तत्कालीन चुनाव आयुक्त और मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने खुद को इस मामले की सुनवाई से अलग कर लिया था तो वो कब इस मामले की सुनवाई में शामिल हुए, इसकी कोई जानकारी नहीं जबकि विधायकों को अयोग्य ठहराने वाले फैसले में उनके दस्तखत हैं. दूसरा, चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा जो कि 1 सितंबर 2017 में ही चुनाव आयुक्त के पद पर आसीन हुए, ने इस कार्यवाही में जब हिस्सा ही नहीं लिया और उनके सामने कोई सुनवाई ही नहीं हुई तो राष्ट्रपति को भेजी सिफारिश में उनके दस्तखत कैसे हैं?
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इसलिए दिल्ली हाई कोर्ट ने आदेश दिया है कि 'चुनाव आयोग इस मामले को दोबारा सुने और तय करे अहम और लाभदायक मुद्दे जैसे कि 'सरकार में लाभ के पद' का क्या मतलब होता है और फिर से फैसला करे कि इस मामले के तथ्यात्मक स्थिति क्या है जिससे तय हो सके कि याचिकाकर्ता (आप विधायक) संसदीय सचिव नियुक्त होने के चलते अयोग्य घोषित होने लायक हैं या नहीं. इस दौरान पिछले किसी आदेश या टिप्पणी से प्रभावित ना हों.'
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