तरिणी बरिहा का परिवार
बरगड़ (ओडिशा):
ओडिशा के बरगड़ ज़िले के बिरही पाली गांव में रहने वाले अजीत बरिहा ने चार महीने पहले अपने पिता से 12वीं की परीक्षा में शामिल होने के लिए कुछ रुपयों की मांग की। लेकिन तब उन्नीस साल के अजीत को पता नहीं था कि ये मांग उसके पिता तरिणी बरिहा के लिए जानलेवा साबित होगी।
'मुझे अब सोचकर काफी बुरा लगता है। मैंने पढ़ाई के लिए पैसे मांगे... नहीं थे उनके पास... मैंने ज़िद की... उन्होंने कहा कि पूरी फसल बर्बाद हो गई... कैसे पैसे दूंगा तुझे। वो तनाव में थे फिर उन्होंने दवाई (कीटनाशक) पीकर जान दे दी।'
तरिणी ने पिछले साल नवंबर में खुदकुशी की। वो एक आदिवासी था। भूमिहीन खेतीहर मज़दूर। प्रताप किशोर नाम के किसान ने उसे दो हेक्टेयर ज़मीन खेती के लिए दी थी। प्रताप किशोर का कहना है कि यहां किसानों के हाल बड़े खराब हैं। उनकी फसल बर्बाद हो रही है और वो अपनी जान दे रहे हैं।
देखें : ओडिशा किसान आत्महत्या पर एनडीटीवी की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट
तरिणी के परिवार को अब तक केवल दस हज़ार रुपये की मदद मिली है, वो भी रेडक्रॉस की ओर से। सरकार ने तो सिर्फ दो हज़ार रुपये दिए वो भी तरिणी के अंतिम संस्कार के लिए।
विडम्बना है कि बरगढ़ ज़िले से हर साल सरकार ही करीब दस लाख टन धान खरीदती है और ये पूरे ओडिशा की धान खरीद का एक चौथाई है। लेकिन आज का कड़वा सच यह भी है कि इस जिले में पिछले एक साल में 26 किसानों ने खुदकुशी की है।
स्थानीय कांग्रेस नेता सत्य नारायण देवता कहते हैं, 'ये लोग साहूकारों से कर्ज लेते हैं। इन्हें लगता है कि ये कर्ज़ फसल होने पर चुकाना है और जब फसल डूब जाती है तो ये लोग उस दबाव को झेल नहीं पाते।
तरिणी की तरह ही पिछले साल नवंबर महीने में कर्ज़ से दबे मकरध्वज वाक ने भी अपनी जान दे दी। वाक का घर बरगड़ के सोहैला ब्लॉक में है। वाक के पड़ोसी ने बताया, 'उस दिन वह खेत में गए तो वापस नहीं आए। हम उन्हें ढूंढने गए तो खेत में बेहोश मिले। जब तक अस्पताल ले जाते उनकी जान जा चुकी थी। उन्होंने ज़हर पी लिया था।'
वाक के परिवार ने हमें अपनी बैंक पास बुक दिखाई, जिसमें उनके पास केवल 500 रुपये थे। उनकी बेटी पिंकी और पत्नी मिथिला नहीं जानते कि आगे उनका क्या होगा? ओडिशा में किसानों की आत्महत्या कोई नई बात नहीं है, लेकिन हाल बिगड़ते चले गए हैं। पिछले एक साल में ओडिशा में करीब डेढ़ सौ किसानों ने जान दी है। लेकिन नवीन पटनायक सरकार कहती है कि बरगड़ या पूरे राज्य में जिस किसान ने भी खुदकुशी की, उसका कर्ज या फसल बर्बादी से कुछ लेना देना नहीं है।
बरगड़ के ज़िलाधिकारी अंजन कुमार मानिक का कहना है, 'हमने मीडिया में आई खुदकुशी की हर खबर की जांच कराई है। इनकी वजहें फसल बर्बाद होना या कर्ज़ नहीं है। किसी भी बैंक या कर्ज़ देने वाली संस्था ने किसानों पर कोई दबाव भी नहीं डाला है। ओडिशा में बाढ़, तूफान और सूखे की मार पड़ती रही है। इसलिए हमें पता है कि लोग इन समस्याओं से लड़ना और इनका सामाना करना सीख गए हैं। ये पहली बार नहीं है कि यहां सूखा पड़ा है।'
जब एनडीटीवी ने प्रशासन के इस बयान के बारे में यहां लोगों को बताया तो पता चला कि गांव के लोगों को ये सब सुनने की आदत पड़ गई है। उन्हें ऐसे सरकारी बयानों से हैरानी नहीं होती।
बरगड़ जिले के सौम्य रंजन कहते हैं, 'अधिकारियों पर ऊपर से राजनीतिक दबाव रहता है। वो कभी स्वीकार नहीं करते कि लोग कर्ज़ की मार में दबकर अपनी जान दे रहे हैं। कभी उनकी जांच में कहा जाता है कि कि फलां किसान ने कीटनाशक को शराब समझकर पी लिया। कभी वह कहते हैं कि किसी किसान ने इसलिए जान दी क्योंकि पारिवारिक झगड़ा था या फिर घर में तनाव था, क्योंकि उसकी बेटी का किसी के साथ चक्कर था।'
भोजन के अधिकार के लिए लड़ रही 'राइट टू फूड' कैंप ने इस बारे में राज्य के 12 ज़िलों के तीस परिवारों की जांच की। संस्था से जुड़े प्रदीप प्रधान कहते हैं, 'तीस में से पच्चीस परिवारों में मौत कर्ज और फसल बर्बादी से हुई है। हमारी जांच बताती है कि सरकारी अधिकारी फर्जी जांच रिपोर्ट देते हैं। हमने इस बारे में मानवाधिकार आयोग में भी रिपोर्ट की है।'
'मुझे अब सोचकर काफी बुरा लगता है। मैंने पढ़ाई के लिए पैसे मांगे... नहीं थे उनके पास... मैंने ज़िद की... उन्होंने कहा कि पूरी फसल बर्बाद हो गई... कैसे पैसे दूंगा तुझे। वो तनाव में थे फिर उन्होंने दवाई (कीटनाशक) पीकर जान दे दी।'
तरिणी ने पिछले साल नवंबर में खुदकुशी की। वो एक आदिवासी था। भूमिहीन खेतीहर मज़दूर। प्रताप किशोर नाम के किसान ने उसे दो हेक्टेयर ज़मीन खेती के लिए दी थी। प्रताप किशोर का कहना है कि यहां किसानों के हाल बड़े खराब हैं। उनकी फसल बर्बाद हो रही है और वो अपनी जान दे रहे हैं।
देखें : ओडिशा किसान आत्महत्या पर एनडीटीवी की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट
तरिणी के परिवार को अब तक केवल दस हज़ार रुपये की मदद मिली है, वो भी रेडक्रॉस की ओर से। सरकार ने तो सिर्फ दो हज़ार रुपये दिए वो भी तरिणी के अंतिम संस्कार के लिए।
विडम्बना है कि बरगढ़ ज़िले से हर साल सरकार ही करीब दस लाख टन धान खरीदती है और ये पूरे ओडिशा की धान खरीद का एक चौथाई है। लेकिन आज का कड़वा सच यह भी है कि इस जिले में पिछले एक साल में 26 किसानों ने खुदकुशी की है।
स्थानीय कांग्रेस नेता सत्य नारायण देवता कहते हैं, 'ये लोग साहूकारों से कर्ज लेते हैं। इन्हें लगता है कि ये कर्ज़ फसल होने पर चुकाना है और जब फसल डूब जाती है तो ये लोग उस दबाव को झेल नहीं पाते।
तरिणी की तरह ही पिछले साल नवंबर महीने में कर्ज़ से दबे मकरध्वज वाक ने भी अपनी जान दे दी। वाक का घर बरगड़ के सोहैला ब्लॉक में है। वाक के पड़ोसी ने बताया, 'उस दिन वह खेत में गए तो वापस नहीं आए। हम उन्हें ढूंढने गए तो खेत में बेहोश मिले। जब तक अस्पताल ले जाते उनकी जान जा चुकी थी। उन्होंने ज़हर पी लिया था।'
मकरध्वज वाक का परिवार
वाक के परिवार ने हमें अपनी बैंक पास बुक दिखाई, जिसमें उनके पास केवल 500 रुपये थे। उनकी बेटी पिंकी और पत्नी मिथिला नहीं जानते कि आगे उनका क्या होगा? ओडिशा में किसानों की आत्महत्या कोई नई बात नहीं है, लेकिन हाल बिगड़ते चले गए हैं। पिछले एक साल में ओडिशा में करीब डेढ़ सौ किसानों ने जान दी है। लेकिन नवीन पटनायक सरकार कहती है कि बरगड़ या पूरे राज्य में जिस किसान ने भी खुदकुशी की, उसका कर्ज या फसल बर्बादी से कुछ लेना देना नहीं है।
बरगड़ के ज़िलाधिकारी अंजन कुमार मानिक का कहना है, 'हमने मीडिया में आई खुदकुशी की हर खबर की जांच कराई है। इनकी वजहें फसल बर्बाद होना या कर्ज़ नहीं है। किसी भी बैंक या कर्ज़ देने वाली संस्था ने किसानों पर कोई दबाव भी नहीं डाला है। ओडिशा में बाढ़, तूफान और सूखे की मार पड़ती रही है। इसलिए हमें पता है कि लोग इन समस्याओं से लड़ना और इनका सामाना करना सीख गए हैं। ये पहली बार नहीं है कि यहां सूखा पड़ा है।'
जब एनडीटीवी ने प्रशासन के इस बयान के बारे में यहां लोगों को बताया तो पता चला कि गांव के लोगों को ये सब सुनने की आदत पड़ गई है। उन्हें ऐसे सरकारी बयानों से हैरानी नहीं होती।
बरगड़ जिले के सौम्य रंजन कहते हैं, 'अधिकारियों पर ऊपर से राजनीतिक दबाव रहता है। वो कभी स्वीकार नहीं करते कि लोग कर्ज़ की मार में दबकर अपनी जान दे रहे हैं। कभी उनकी जांच में कहा जाता है कि कि फलां किसान ने कीटनाशक को शराब समझकर पी लिया। कभी वह कहते हैं कि किसी किसान ने इसलिए जान दी क्योंकि पारिवारिक झगड़ा था या फिर घर में तनाव था, क्योंकि उसकी बेटी का किसी के साथ चक्कर था।'
भोजन के अधिकार के लिए लड़ रही 'राइट टू फूड' कैंप ने इस बारे में राज्य के 12 ज़िलों के तीस परिवारों की जांच की। संस्था से जुड़े प्रदीप प्रधान कहते हैं, 'तीस में से पच्चीस परिवारों में मौत कर्ज और फसल बर्बादी से हुई है। हमारी जांच बताती है कि सरकारी अधिकारी फर्जी जांच रिपोर्ट देते हैं। हमने इस बारे में मानवाधिकार आयोग में भी रिपोर्ट की है।'
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